अच्छे स्वास्थ्य के लिये मच्छरो का प्रयोग, रेडियो साक्षात्कार और अंतरराष्ट्रीय दबाव

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-58
- पंकज अवधिया

अच्छे स्वास्थ्य के लिये मच्छरो का प्रयोग, रेडियो साक्षात्कार और अंतरराष्ट्रीय दबाव


“हाँ तो बताइये कैसे बनता है मच्छरो का काढा? क्या किलो भर मच्छरो की जरुरत होती है या टन भर? कैसे पीते है इस काढे को?” कनाडा के सीबीसी रेडियो के सम्पादक मार्क विंकलर ने तो जैसे प्रश्नो की बौछार ही कर दी। पिछले सप्ताह वे अपने किसी रेडियो कार्यक्रम के लिये मेरा साक्षात्कार ले रहे थे। दरअसल उन्होने मेरा एक शोध आलेख पढ लिया था जो मच्छरो के सम्भावित उपयोग के बारे मे था। यह शोध पत्र है तो दिलचस्प पर वर्ष 2003 मे प्रकाशित होने के बाद विज्ञान जगत ने इसमे अधिक रुचि नही दिखायी। इस पर आगे काम नही हुये और न ही मुझसे मार्क की तरह किसी ने विस्तार से पूछा। बाटेनिकल डाट काम ने यह अवश्य बताया कि यह आलेख उन आलेखो मे से है जिन्हे सबसे ज्यादा यानि हजारो मे हिट्स मिलती रही है। ये तो कनाडा के मार्क थे जिन्हे मन हुआ कि इस शोध के बारे मे वे मुझसे विस्तार से पूछे।

एक घंटे के साक्षात्कार से पहले उन्होने बता दिया था कि कुछ भी लाइव नही है इसलिये आराम से बात की जाये। शुरु मे वे ऐसे ही आराम से बात करते रहे पर धीरे-धीरे उनके प्रश्न जटिल होते गये। बीस मिनट बाद ही मुझे आभास हो गया कि यह सब केवल साक्षात्कार के लिये नही पूछा जा रहा है। इसके पीछे सब कुछ जानने की मंशा भी है और जरुर इसे वैज्ञानिको के लिये तैयार किया जा रहा है। यह आभास होते ही मैने ठान लिया कि पूछने दो उन्हे जो पूछना है, अब तो वे खेत की पूछेंगे तो मै खलिहान की बताऊँगा। हुआ भी ऐसा। मार्क इतना चिढ गये कि खीझने लगे। और फिर उन्हे धन्यवाद कहकर साक्षात्कार खत्म करना पडा। उन्होने यह भी नही बताया कि इसे कब प्रसारित किया जायेगा?

मच्छरो और मलेरिया से सभी परेशान है। छत्तीसगढ के आम लोग भी। पर जैसा मै अक्सर लिखता हूँ दुनिया मे प्रयोगधर्मी दिमागो की कमी नही है। इसी प्रयोगधर्मिता के चलते राज्य के पारम्परिक चिकित्सको ने हर नयी वनस्पति और कीट के साथ प्रयोग किये है और उनके कुछ न कुछ उपयोग ढूँढ निकाले है। जहाँ एक ओर लेंटाना नामक वनस्पति को वैज्ञानिक जैव-विविधता के लिये खतरा मानकर रसायनो से इसे नष्ट करने का अनुमोदन कर रहे है वही पारम्परिक चिकित्सको ने इस विदेशी पौधे के औषधीय गुण विकसित कर लिये है। आम ग्रामीण भी पीछे नही है। मैने अपने शोध दस्तावेजो मे पहले लिखा है कि कैसे तिल्दा क्षेत्र के ग्रामीण मुँह मे छाले होने पर लेंटाना की दातून करते है। दातून के रुप मे लेंटाना का प्रयोग और इसके फायदे के विषय मे उस देश के लोग भी नही जानते जहाँ से यह आया है। इसी तरह सैकडो किस्म के कीडो के औषधीय उपयोग पारम्परिक चिकित्सको ने विकसित किये है। इनमे बहुत से ऐसे कीडे है जो कि फसलो को नुकसान पहुँचाते है। मसलन धान मे आक्रमण करने वाले माहो कीट के दसो औषधीय उपयोग है। पारम्परिक चिकित्सक न केवल सीधे ही इस कीडे का उपयोग करते है बल्कि इसे औषधीय मिश्रणो मे वनस्पतियो के साथ भी प्रयोग करते है। मैने विस्तार से इस पारम्परिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण किया है।

होम्योपैथी का छात्र होने के नाते औषधीय कीटो और मकौडो मे मेरी विशेष रुचि रही है। बहुत सी होम्योपैथी दवाए इनसे बनती है और जबरदस्त असर भी करती है। अपने वानस्पतिक सर्वेक्षणो के दौरान एक बार मैने देखा कि विभिन्न वनस्पतियो को औषधीय गुणो से समृद्ध करने के लिये पारम्परिक चिकित्सक जडी-बूटियो का जो घोल बना रहे है उसमे वे मच्छरो को भी डाल रहे है। यह मेरे लिये नयी जानकारी थी। मैने पूरी प्रक्रिया का दस्तावेजीकरण किया और फिर जब दूसरे पारम्परिक चिकित्सको से इस विषय पर चर्चा की तो उनसे काफी कुछ जानने को मिला। मच्छरो का ऐसा उपयोग आधुनिक साहित्यो मे दर्ज नही है। कुछ बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सको से जब मैने ऐसे पारम्परिक नुस्खो के विषय़ मे जानकारी प्राप्त की जिनमे तीन सौ से अधिक औषधीयो का प्रयोग किया जाता है तब मुझे मच्छरो का नाम भी सूची मे मिला। क्या मच्छर इंसानो की औषधीयो मे प्रयोग हो रहे है? मैने इन नुस्खो को न केवल तैयार होते देखा बल्कि रोगियो पर प्रयोग के बाद नुस्खो से होने वाले लाभो के विषय मे विस्तार से अध्ययन किया। मच्छारो के उपयोग के इसी ज्ञान पर मैने सतही शोध आलेख लिखा था। इसमे सम्भावित उपयोगो पर भी चर्चा की थी। इसमे पारम्परिक चिकित्सको को ही महत्व दिया गया था आखिर वे ही असली हीरो है, मै तो मात्र उनके ज्ञान के बारे मे लिख रहा हूँ।

कनाडा के मार्क को एक घंटे की साक्षात्कार मे सब कुछ चाहिये था। वे प्रयोग विधि से लेकर गुप्त नुस्खो के बारे मे जानना चाहते थे। मै कैसे देश के पारम्परिक ज्ञान के बारे मे सब कुछ बता देता? मैने उनसे कहा कि आप राष्ट्रीय जैव-विविधता बोर्ड द्वारा तय किये गये मापदंडो के हिसाब से चले और उनसे अनुमति लेने के बाद मेरा साक्षात्कार ले। अच्छा तो यही होगा कि आप पारम्परिक चिकित्सको का साक्षात्कार ले। मार्क यह सब अनसुना करते गये और ग्वांटेनामो बे का कैदी समझकर मुझसे सवाल करते रहे।

पिछले सप्ताह जर्मनी से आये एक सन्देश ने भी मुझे काफी उद्वेलित किया। यह सन्देश दुनिया के जाने माने वैज्ञानिक का था जो नोबल पुरुस्कार प्राप्त कर चुके है। उन्होने मेरे कार्यो की जम कर तारीफ की और फिर बताया कि वे भी पारम्परिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण कर रहे है। उन्होने औषधीय कीटो और डायबीटीज पर वैसे ही काम किया है जैसे मै कर रहा हूँ। उन्होने “जोर” डालकर कहा कि आप जितना काम कर रहे हो उसकी महत्ता तभी होगी जब आप उसे अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिकाओ मे प्रकाशित करेंगे। मुझे मालूम है कि पत्रिकाओ का खर्च बहुत अधिक है और आप वहन नही कर सकते है। मेरे विश्वविद्यालय ने इन पत्रिकाओ को पैसे दिये है। यदि आप चाहे तो मेरे साथ मिलकर अपने शोध कार्यो का प्रकाशन करे ताकि बिना पैसे के सब कुछ हो जाये। हाँ, आपको सब कुछ पूरे विस्तार से बताना होगा। इस नोबल वैज्ञानिक की “चाल” समझकर मै दंग रह गया।

मैने उन्हे विनम्रतापूर्वक लिखा कि मैने पहले सौ से अधिक शोध पत्र दुनिया भर की शोध पत्रिकाओ मे प्रकाशित करवाये है। मैने पाया है कि ये शोध पत्रिकाए सम्पादन के नाम पर महत्वपूर्ण जानकारियो को उडा देती है और फिर उन जानकारियो का अन्यत्र प्रयोग हो जाता है। मैने बहुत बार इसकी शिकायत की और नतीजा सिफर रहा। फिर पत्रिकाए पारम्परिक चिकित्सको का नाम नही प्रकाशित करती है। सारा श्रेय वैज्ञानिको को दे दिया जाता है। यह मुझे पसन्द नही है। मैने उनसे यह भी कहा कि मेरे शोध-दस्तावेज विस्तार से है। अब 1000 जीबी से अधिक मधुमेह की रपट और 200 जीबी से अधिक औषधीय धान की रपट को मूल रुप मे बिना छेडछाड के प्रकाशित करने का माद्दा किस पत्रिका मे है? यदि इसे सिकोडा गया तो इसकी मूल भावना खत्म हो जायेगी।

जर्मन वैज्ञानिक महोदय ने जवाब मिलने पर भी पीछा नही छोडा है। वे लगातार ई-मेल भेज रहे है। हाल के ई-मेल साफ जता रहे है कि उन्हे कूट भाषा मे लिखी जा रही मधुमेह की रपट के बारे मे सब कुछ जानना है, और उस रपट मे अपना नाम भी जुडवाना है। डाक्टरेट की मानद उपाधि से लेकर विदेश मे घर तक के आफर दे रहे है ये सज्जन। मै इन्हे अनदेखा कर रहा हूँ। मेरे मित्र इसे जीवन का स्वर्णिम अवसर बता रहे है।

मच्छरो के उपयोगो मे भी इन जर्मन वैज्ञानिक की रुचि है। वे कनाडा के रेडियो कार्यक्रम की बात भी जानते है। कैसे? ये उन्होने नही बताया। मुझे अब समझ आने लगा है रेडियो साक्षात्कार क राज। पता नही, आगे और कितने अंतरराष्ट्रीय दबाव झेलने होंगे? शुक्र है कि मेरे पास अपना हिन्दी ब्लाग है जिसके माध्यम से मै अपने देशवासियो से सीधे जुड सकता हूँ और इन दबावो के विषय मे बता सकता हूँ। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

pankaj ji,
aap in dabawon ke aage mat jhukiye. in pralobhanon ke chakkar me mat padiye, aap jo bhi kuchh kar rahe hain desh ke liye bahut achchha kar rahe hain.
आपको नमस्कार और सलाम

आप प्रलोभन और चाल में ना फंसकर अपनी मेहनत और शोध से अपने अमूल्य ज्ञान को विदेशियों के हाथ में जाने से बचा रहे हैं।

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