स्त्री रोग, रोहिना और “ट्री शेड थेरेपी”

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-17
- पंकज अवधिया
दस जून, 2009

स्त्री रोग, रोहिना और “ट्री शेड थेरेपी”


घने जंगल मे एक वृक्ष की ओर इशारा करते हुये साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको ने कहा कि आम महिलाओ को अपने कष्टो से मुक्ति के लिये इस वृक्ष की देखरेख शुरु कर देनी चाहिये। देख-रेख यानि सुबह से शाम तक इसकी सेवा। जितना हो सके उतना समय इसके साये मे गुजारना चाहिये। पारम्परिक चिकित्सक की बात सुनकर मैने कैमरा निकाल लिया और विभिन्न कोणो से उस वृक्ष की तस्वीर लेने लगा। यह मेरा जाना-पहचाना वृक्ष था। मैने इसके पारम्परिक उपयोगो का दस्तावेजीकरण किया है पर जैसा कि आप जानते है, हर वानस्पतिक सर्वेक्षण से नयी जानकारियाँ मिलती है। मै तस्वीरे लेता रहा और पारम्परिक चिकित्सक अपनी बात कहते रहे। साधारण महिलाओ को तो इस वृक्ष के साये मे रहना चाहिये। पहले जंगलो मे बहुत से ऐसे स्थान होते थे जहाँ ये वृक्ष समूह मे उगा करते थे। तब पारम्परिक चिकित्सक महिलाओ के परिवारजनो से कहते थे कि यदि सम्भव हो तो उस वृक्ष समूह के साये मे मिट्टी की अस्थायी झोपडी बना ले और वही रहकर औषधीयो का सेवन करे। उनका कहना था कि साधारण रोग तो केवल वहाँ रहने ही से दूर हो जाते है। दूसरी औषधीयो की आवश्यकत्ता नही होती है।

मुझे याद आता है कि कुछ वर्षो पहले मेरी मुलाकात एक महिला पारम्परिक चिकित्सक से हुयी थी। आमतौर पर पुरुष पारम्परिक चिकित्सक ही मिलते है। महिला पारम्परिक चिकित्सक चाह कर भी अपनी सेवाए नही दे पाती है। जिस महिला पारम्परिक चिकित्सक की मै यहाँ बात कर रहा हूँ वे श्वेत प्रदर (ल्यूकोरिया) की चिकित्सा मे माहिर है। सुबह ही से दूर-दूर से रोगी उनके घर के सामने एकत्र हो जाते है और फिर चिकित्सा का सिलसिला शुरु होता है। सप्ताह मे पाँच दिन वे रोगियो को देखती है। बचे हुये दो दिनो मे एक दिन आराम करती है जबकि दूसरे दिन अपने बडे बेटे के साथ जंगल जाती है ताकि जडी-बूटियाँ एकत्र की जा सके। मेरी उनसे बहुत बार जंगल मे मुलाकात हुयी है। उनके गाँव के पास ही जंगल है। पहले उनका गाँव जंगल के अन्दर था पर अब मनुष्यो ने जंगल से जैसे नाता तोड लिया है। तभी तो जंगल गाँव से दूर जाता जा रहा है। इन महिला पारम्परिक चिकित्सक से मैने घंटो बात की है। उनका कहना था कि मै सरकार से कहकर एक विशेष प्रकार के वृक्ष का रोपण बडे पैमाने मे करवा दूँ ताकि आम महिलाए लम्बे समय तक रोगमुक्त रह सके। यह विशेष वृक्ष स्थानीय भाषा मे रोहिना कहलाता है। यदि आप किसी वन अधिकारी से इसके बारे मे पूछेंगे तो वे आपको केवल इसकी लकडी की उपयोगिता के बारे मे बता पायेंगे। उससे आगे एक शब्द भी नही। आम लोग भी इसके बारे मे कम जानते है पर जानकार पारम्परिक चिकित्सको के लिये यह ईश्वर के वरदान से कम नही है।

डेढ दशक से भी अधिक समय से मेरी नजर रोहिना की घटती आबादी पर है। इसकी लकडी बहुत मजबूत होती है। यही गुण इसके लिये अभिशाप बना हुआ है। सालो से इसकी अवैध और वैध कटाई हो रही है। पहले आसानी से दिख जाने वाला यह वृक्ष आज खोजने पर मुश्किल से मिल पाता है। सरकारी दस्तावेजो मे इसकी संख्या उतनी ही है जितनी दशको पहले थी। पर जमीनी सच्चाई दिल दहला देने वाली है। रोहिना की छाल कुछ मात्रा मे व्यापार मे है। पर इसकी अधिक माँग नही होने के कारण व्यापारियो से इसे उतना खतरा नही है। फिर भ्रष्टाचार भी इसकी जान बचाये हुये है। रोहिना की छाल मे बडे पैमाने पर स्थानीय तौर पर मिलावट होती है। अर्थात रोहिना की छाल कम मात्रा मे एकत्र की जाती है और दूसरी प्रजातियो की अधिक। इस तरह की मिलावट से न केवल दिल्ली जैसे महानगरो के व्यापारी अनजान है बल्कि देश-विदेश की जानी-मानी दवा कम्पनियाँ भी। एक बार उत्तर भारत से आये एक दवा विशेषज्ञ को रोहिना की छाल दी गयी तो वे उसे पहचान नही पाये। जब उन्होने इसका रासायनिक विश्लेषण किया तो और भ्रमित हो गये। उन्होने जीवन भर मिलावटयुक्त रोहिना की छाल का प्रयोग किया था। ऐसे मे पहली बार शुद्ध छाल का अनुभव पाकर वे भ्रमित हो गये।

प्राचीन भारतीय ग्रंथ इस वृक्ष का उल्लेख तो करते है पर यह आश्चर्य का विषय है कि जितनी जानकारी आज पारम्परिक चिकित्सको के पास है उसका एक प्रतिशत हिस्सा भी इन ग्रंथो मे नही है। इस वृक्ष के गुणो का बखान करती दसो जीबी के फाइल मैने तैयार की है पर फिर भी इस ज्ञान का कोई अंत नही दिखता है।

मुझे याद आता है कि कुछ वर्षो पहले एक महिला महाविद्यालय मे मै गाजर घास पर व्याख्यान दे रहा था। व्याख्यान के बाद मैने पारम्परिक ज्ञान दस्तावेजीकरण के अपने काम पर भी कुछ कहा। इस पर वहाँ के प्राचार्य ने मुझे कैम्पस के लिये उपयुक्त वृक्ष प्रजाति सुझाने को कहा। उस समय उनकी योजना गुलमोहर जैसे सजावटी वृक्ष लगाने की थी। मैने बिना विलम्ब रोहिना का सुझाव दिया। इसके गुणो के बारे मे जानकर उन्होने सहमति दे दी पर काफी मशक्कत के बाद भी वे इसके पौधे नही लगा पाये। उन्होने देश भर की नर्सरियाँ खोज डाली पर रोहिना नही मिला। मैने कुछ पौधे अपने सम्पर्को से उन्हे उपलब्ध करवाये। इस घटना से यह सबक मिला कि रोहिना के प्रवर्धन पर शोध जरुरी है। अपनी हर जंगल यात्रा के दौरान इसके प्रवर्धन के विषय मे अधिक से अधिक जानकारी जुटाने का प्रयास करता हूँ।

रोहिना के साथ यदि चार का वृक्ष अपने आप उग रहा हो तो ऐसा स्थान वात रोगियो के लिये उपयुक्त है। यदि रोहिना के साथ धोबन के वृक्ष उग रहे हो तो ऐसा स्थान श्वेतकुष्ठ से प्रभावित रोगियो के लिये वरदान है। यदि रोहिना के साथ धौरा, सलिहा, धोबन, कुर्रु और चार उग रहे हो तो ऐसे स्थान मे कम जीवनी शक्ति वाले व्यक्तियो को समय बिताना चाहिये। यदि रोहिना के साथ बाँस उग रहा हो और पास मे दीमक की बडी बाम्बी हो तो पेट के रोगियो को वहाँ रहना चाहिये। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि ऐसे हजारो वृक्ष मिश्रण है पारम्परिक चिकित्सको के पास और हर वृक्ष मिश्रण की अपनी अलग उपयोगिता है। इस छोटे से उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि क्यो माँ प्रकृति ने विविधता को अपनाया है। ये तो मनुष्य़ है जो विविधता को समाप्त कर एकरसता ला रहा है और हजारो एकड जमीन मे एक ही तरह की वनस्पति रोप रहा है। वृक्ष की छाँव से चिकित्सा को “ट्री शेड थेरेपी” का नाम दिया गया है। यदि आप इसे गूगल मे खोजेंगे तो सारे सन्दर्भ छत्तीसगढ ही से मिलेंगे। यह छत्तीसगढ का विश्व समुदाय को एक अनुपम उपहार है।

जब रोहिना को देखने के बाद हम दूसरे वृक्ष की ओर बढे तो पारम्परिक चिकित्सको ने इसका एक फल मुझे दे दिया। मुझे इसे अपने ड्राइंग रुम मे सजाकर नही रखना था बल्कि लौटते समय ऐसी जगह पर रोप देना था जहाँ इसके वृक्ष न हो। ऐसे ही उपहारो का सिलसिला चलता रहा तो उन्हे उम्मीद है कि स्त्री रोगो को हरने वाले ये देव-तुल्य वृक्ष बडी संख्या मे माँ प्रकृति के पास फिर से होंगे। (क्रमश:)

रोहिना का वृक्ष

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

पंकज जी,
मैं आप का फैन हूँ। लेकिन एक शिकायत है, आप इन वृक्षों के चित्र, वैज्ञानिक नाम, अनुकूल मिट्टी, मिलने के स्थान वगैरह् की जानकारी नहीं देते।

आशा है आप इस ओर ध्यान देंगे।
Gyan Darpan said…
राजस्थान में इसी तरह मजबूत लकडी वाला पेड़ होता है जिसे रोहिडा कहते है शायद वो रोहिना ही हो |

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