कोआ के झरती, आमा के फरती और दुबले अमित के स्वस्थ्य होने का राज
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-27
- पंकज अवधिया
कोआ के झरती, आमा के फरती और दुबले अमित के स्वस्थ्य होने का राज
“कोआ के झरती, आमा के फरती।” जंगल से गुजरते वक्त हमारी गाडी मे पुराने छत्तीसगढी गीत बज रहे थे। उन्ही मे से एक मे ये पंक्तियाँ थी। मै तो गाने को गाने की तरह सुन रहा था। ध्यान बाहर की ओर था कि कुछ नयी वनस्पतियाँ मिल जाये। “ये गाना गडबड है। इसे फिर से सुनाओ।“पिछली सीट पर बैठे पारम्परिक चिकित्सक की आवाज से मेरा ध्यान टूटा। “कोआ के झरती, आमा के फरती। ये बिल्कुल गलत है।“ पारम्परिक चिकित्सक ने अपनी बात दोहरायी। कोआ महुआ के फल को कहा जाता है। आमा यानि देशी आम। गाने की इस पंक्ति का अर्थ था कि जब महुआ के फल यानि कोआ गिरते है तब आम के फल लगते है। पारम्परिक चिकित्सक के अनुरोध पर हमने रिवाइंड करके इसे सुना। गाने की पंक्ति यही थी। पर वास्तव मे ऐसा नही होता है। इसे होना चाहिये था “आमा के झरती, कोआ के फरती” यानि जब आम के फल गिरते है तब कोआ मे फल आते है। पारम्परिक चिकित्सक ने सही पकडा था। इस गीत के गीतकार राज्य के ख्यातिनाम गीतकार है। अभी तक शायद ही उन्हे किसी ने टोका हो। अपनी बात सही निकलने पर पारम्परिक चिकित्सक शेष गाने ध्यान से सुनते रहे और उन्होने बहुत से गानो मे तकनीकी गल्तियाँ पकडी।
रास्ते मे जंगल के अन्दर दीमक की बाम्बी की मिट्टी खोदता एक व्यक्ति दिखायी पडा। अच्छी सेहत वाला यह व्यक्ति हमे देखकर पास आ गया। मैने उसे पहचान लिया। वह अमित था। वही अमित जो कुछ ही हफ्तो पहले दुबला-पतला हुआ करता था। उसे दोस्त तांतू कहकर चिढाते थे। वह रायपुर का ही रहने वाला था। उसने इंजिनियरिंग पढाई की थी और अब वह किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा है। इंटरनेट पर उसने मेरे लेख पढे और मुझसे मिलने चला आया। उसे ऐसी वनस्पतियाँ चाहिये थी जिससे उसका दुबलापन दूर हो जाये। मैने कहा कि जो जैसा है, वैसा ही अच्छा है। यहाँ मै उसके जैसे दुबला होना चाहता हूँ और वह है कि मेरे जैसा मोटा होना चाहता है। उसने जिद नही छोडी। वह बहुत से शहरी जिम मे गया। दूध-केला खाया। डाक्टरो से मिला पर बात नही बनी। किसी ने कहा कि शादी कर लो तो मोटे हो जाओगे। वह अभी तो प्रतियोगी परीक्षाओ की तैयारी मे था। इसलिये शादी के बारे मे तो सोच भी नही सकता था। और फिर इस बात की कोई गारंटी भी नही थी। एक बार जंगल यात्रा के दौरान मैने उसे साथ रख लिया। रास्ते मे जितने पारम्परिक चिकित्सक मिले सबके वह पीछे पड गया। अंतत: एक पारम्परिक चिकित्सक ने मदद के लिये हामी भर दी। पर जब चिकित्सा की विधि के बारे मे उसे बताया गया तो उसके होश उड गये।
पारम्परिक चिकित्सक ने दो टूक कह दिया कि मेहनत करनी होगी, वो भी जमकर मेहनत। इस पर अमित ने बेसब्र होकर कहा कि मुझे दुबला नही होना है बल्कि मोटा होना है। यदि मै मेहनत करुंगा तो और दुबला हो जाऊँगा। इस पर पारम्परिक चिकित्सक ने खुलासा किया कि मेहनत के बाद पौष्टिक़ खाने से शरीर बनेगा। शरीर मे जो माँस बनेगा वह स्थायी तौर पर रहेगा। यह तुम्हे बीमार नही करेगा। अमित को इसके लिये डेढ महिने तक पारम्परिक चिकित्सक के साथ रहना था। फीस के रुप मे वहाँ आ रहे रोगियो के लिये जंगल से जडी-बूटियाँ एकत्र करनी थी। मुझे शक था कि अमित यह चुनौती शायद ही स्वीकार कर पायेगा। दिन मे देर से उठने वाले अमित की शाम कैफे काफी डे मे गुजरती थी। एसी के बिना नीन्द नही आती थी। वो क्या गाँव मे टिकेगा? पर दूसरे दिन ही वह अपनी बाइक मे सवार होकर पारम्परिक चिकित्सक के घर पहुँच गया।
शुरुआत मे पारम्परिक चिकित्सक अपने ही साथ उसे जंगल ले जाने लगे। पैदल चलने का चस्का लगा तो उसने बाइक को छोड दिया। आस-पास जाने के लिये साइकिल रख ली। दिन भर की व्यस्तता से उसकी भूख बहुत बढ गयी। उसे दो समय चावल मिलता था और कभी-कभी दाल व साग। जब वह वनस्पतियाँ लेने जाता तो रास्ते मे जंगली फल मिल जाते थे। सुबह और शाम का नाश्ता जोर का होता था। बरकन्द, बिलाईकन्द, राम कन्द, रावण कन्द, बेन्दरा कन्द, जगमंडल कन्द, पातालकुम्हडा, गोल कन्द जाने कौन-कौन से कन्द उसे खाने को मिलते थे। ये कन्द बहुत ही स्वादिष्ट होते थे। वह बिना देरी इन्हे खा जाता था। मेरी जंगल यात्रा के दौरान पारम्परिक चिकित्सक अमित के बारे मे बताते रहे पर मुलाकात इस बार ही हुयी। उसकी सेहत अच्छी हो गयी थी।
अमित गर्मजोशी से मिला। उसने अब तक 36 प्रकार के कन्द खा लिये थे। उसे उनके नाम जबानी याद थे। पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि रावण की लंका मे आक्रमण से पहले भगवान राम की सेना ने इन्ही कन्द-मूलो से अपार शक्ति प्राप्त की थी। पारम्परिक चिकित्सको ने इनमे से बहुत से कन्द-मूलो के बारे मे जानकारी बन्दरो से प्राप्त की है। सम्भवत: बन्दरो ने भी इन पारम्परिक चिकित्सको से बहुत कुछ सीखा होगा। मै लम्बे समय से इन कन्द-मूलो के विषय मे जानकारी एकत्र कर रहा हूँ। मुझे तो सबसे पहले इनका सामरिक महत्व दिखता है। भविष्य़ ँऎ छत्तीसगढ के जंगलो मे होने वाले किसी सैनिक अभियान के लिये इन कंद-मूलो से सम्बन्धित जानकारी बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है। इसमे बहुत से कन्द आम लोगो की दिनचर्या मे शामिल किये जा सकते है जिससे उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ सके। एडस के बहुत से रोगी जब आखिर उम्मीद लेकर पारम्परिक चिकित्सको की शरण मे आते है तो इन्ही कन्दो का भोजन दिया जाता है। पर इन कन्दो के विषय मे आम लोगो को बताने से पहले कुछ सावधानी भरे कदम उठाने जरुरी है।
ये कन्द जंगल मे सीमित मात्रा मे है। इन कन्दो पर मनुष्य ही आश्रित नही है बल्कि भालू और जंगली सुअर जैसे वन्य जीव भी अपनी शक्ति के लिये इनका नियमित सेवन करते है। यदि इन कन्दो के विषय मे जानकारी शहरो तक पहुँच गयी तो इन्हे पाने के लिये मारामारी मच जायेगी और देखते ही देखते जंगल के जंगल साफ हो जायेंगे। इसलिये प्रचार से पहले इन कन्दो की जैविक खेती की विधियाँ विकसित करने की जरुरत है। यह सच है कि खेती से औषधीय वनस्पतियो के गुण प्रभावित होते है पर जंगल जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करके काफी हद तक औषधीय गुणो को बरकरार रखा जा सकता है। जैविक खेती से जंगलो पर दबाव कम होगा। जंगलो से एकत्र किये गये चन्द कंदो को नये कन्द के उत्पादन के लिये उपयोग किया जायेगा। लिखने और पढने मे यह सब आसान लगता है। पर जमीनी स्तर पर यह कठिन कार्य है। भारतीय जंगलो मे विलुप्त हो रही सफेद मूसली को बचाने के लिये इसकी खेती को प्रोत्साहित किया गया। पर सफेद मूसली का प्रचार प्रसार बढने से जंगलो पर दबाव और बढ गया। सफेद मूसली की खेती पौध-सामग्री माफिया के चंगुल मे फँस गयी। अधिक उत्पादन के चक्कर मे जैविक खेती को ताक पर रख दिया गया। आज बडे पैमाने पर खेती तो हो रही है पर उच्च गुणवत्ता का उत्पाद नही मिल पा रहा है।
अमित से मिलकर दिल को सुकून मिला। यह केवल जडी-बूटियो का ही प्रभाव नही था बल्कि उसका त्याग भी था। आजकल के युवा आकर्षक डिब्बो मे बन्द उत्पादो पर अधिक विश्वास करते है। उनमे से बहुत कम ही अमित की तरह जंगल मे जाकर समय गुजारना पसन्द करते है। मुझे उम्मीद है कि डेढ महिने पूरे होने तक अमित स्वस्थ्य जीवन की कुंजी प्राप्त कर लेगा और आजीवन अपने परिवार व मित्रजनो मे इसे बाँटता रहेगा। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
- पंकज अवधिया
कोआ के झरती, आमा के फरती और दुबले अमित के स्वस्थ्य होने का राज
“कोआ के झरती, आमा के फरती।” जंगल से गुजरते वक्त हमारी गाडी मे पुराने छत्तीसगढी गीत बज रहे थे। उन्ही मे से एक मे ये पंक्तियाँ थी। मै तो गाने को गाने की तरह सुन रहा था। ध्यान बाहर की ओर था कि कुछ नयी वनस्पतियाँ मिल जाये। “ये गाना गडबड है। इसे फिर से सुनाओ।“पिछली सीट पर बैठे पारम्परिक चिकित्सक की आवाज से मेरा ध्यान टूटा। “कोआ के झरती, आमा के फरती। ये बिल्कुल गलत है।“ पारम्परिक चिकित्सक ने अपनी बात दोहरायी। कोआ महुआ के फल को कहा जाता है। आमा यानि देशी आम। गाने की इस पंक्ति का अर्थ था कि जब महुआ के फल यानि कोआ गिरते है तब आम के फल लगते है। पारम्परिक चिकित्सक के अनुरोध पर हमने रिवाइंड करके इसे सुना। गाने की पंक्ति यही थी। पर वास्तव मे ऐसा नही होता है। इसे होना चाहिये था “आमा के झरती, कोआ के फरती” यानि जब आम के फल गिरते है तब कोआ मे फल आते है। पारम्परिक चिकित्सक ने सही पकडा था। इस गीत के गीतकार राज्य के ख्यातिनाम गीतकार है। अभी तक शायद ही उन्हे किसी ने टोका हो। अपनी बात सही निकलने पर पारम्परिक चिकित्सक शेष गाने ध्यान से सुनते रहे और उन्होने बहुत से गानो मे तकनीकी गल्तियाँ पकडी।
रास्ते मे जंगल के अन्दर दीमक की बाम्बी की मिट्टी खोदता एक व्यक्ति दिखायी पडा। अच्छी सेहत वाला यह व्यक्ति हमे देखकर पास आ गया। मैने उसे पहचान लिया। वह अमित था। वही अमित जो कुछ ही हफ्तो पहले दुबला-पतला हुआ करता था। उसे दोस्त तांतू कहकर चिढाते थे। वह रायपुर का ही रहने वाला था। उसने इंजिनियरिंग पढाई की थी और अब वह किसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहा है। इंटरनेट पर उसने मेरे लेख पढे और मुझसे मिलने चला आया। उसे ऐसी वनस्पतियाँ चाहिये थी जिससे उसका दुबलापन दूर हो जाये। मैने कहा कि जो जैसा है, वैसा ही अच्छा है। यहाँ मै उसके जैसे दुबला होना चाहता हूँ और वह है कि मेरे जैसा मोटा होना चाहता है। उसने जिद नही छोडी। वह बहुत से शहरी जिम मे गया। दूध-केला खाया। डाक्टरो से मिला पर बात नही बनी। किसी ने कहा कि शादी कर लो तो मोटे हो जाओगे। वह अभी तो प्रतियोगी परीक्षाओ की तैयारी मे था। इसलिये शादी के बारे मे तो सोच भी नही सकता था। और फिर इस बात की कोई गारंटी भी नही थी। एक बार जंगल यात्रा के दौरान मैने उसे साथ रख लिया। रास्ते मे जितने पारम्परिक चिकित्सक मिले सबके वह पीछे पड गया। अंतत: एक पारम्परिक चिकित्सक ने मदद के लिये हामी भर दी। पर जब चिकित्सा की विधि के बारे मे उसे बताया गया तो उसके होश उड गये।
पारम्परिक चिकित्सक ने दो टूक कह दिया कि मेहनत करनी होगी, वो भी जमकर मेहनत। इस पर अमित ने बेसब्र होकर कहा कि मुझे दुबला नही होना है बल्कि मोटा होना है। यदि मै मेहनत करुंगा तो और दुबला हो जाऊँगा। इस पर पारम्परिक चिकित्सक ने खुलासा किया कि मेहनत के बाद पौष्टिक़ खाने से शरीर बनेगा। शरीर मे जो माँस बनेगा वह स्थायी तौर पर रहेगा। यह तुम्हे बीमार नही करेगा। अमित को इसके लिये डेढ महिने तक पारम्परिक चिकित्सक के साथ रहना था। फीस के रुप मे वहाँ आ रहे रोगियो के लिये जंगल से जडी-बूटियाँ एकत्र करनी थी। मुझे शक था कि अमित यह चुनौती शायद ही स्वीकार कर पायेगा। दिन मे देर से उठने वाले अमित की शाम कैफे काफी डे मे गुजरती थी। एसी के बिना नीन्द नही आती थी। वो क्या गाँव मे टिकेगा? पर दूसरे दिन ही वह अपनी बाइक मे सवार होकर पारम्परिक चिकित्सक के घर पहुँच गया।
शुरुआत मे पारम्परिक चिकित्सक अपने ही साथ उसे जंगल ले जाने लगे। पैदल चलने का चस्का लगा तो उसने बाइक को छोड दिया। आस-पास जाने के लिये साइकिल रख ली। दिन भर की व्यस्तता से उसकी भूख बहुत बढ गयी। उसे दो समय चावल मिलता था और कभी-कभी दाल व साग। जब वह वनस्पतियाँ लेने जाता तो रास्ते मे जंगली फल मिल जाते थे। सुबह और शाम का नाश्ता जोर का होता था। बरकन्द, बिलाईकन्द, राम कन्द, रावण कन्द, बेन्दरा कन्द, जगमंडल कन्द, पातालकुम्हडा, गोल कन्द जाने कौन-कौन से कन्द उसे खाने को मिलते थे। ये कन्द बहुत ही स्वादिष्ट होते थे। वह बिना देरी इन्हे खा जाता था। मेरी जंगल यात्रा के दौरान पारम्परिक चिकित्सक अमित के बारे मे बताते रहे पर मुलाकात इस बार ही हुयी। उसकी सेहत अच्छी हो गयी थी।
अमित गर्मजोशी से मिला। उसने अब तक 36 प्रकार के कन्द खा लिये थे। उसे उनके नाम जबानी याद थे। पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि रावण की लंका मे आक्रमण से पहले भगवान राम की सेना ने इन्ही कन्द-मूलो से अपार शक्ति प्राप्त की थी। पारम्परिक चिकित्सको ने इनमे से बहुत से कन्द-मूलो के बारे मे जानकारी बन्दरो से प्राप्त की है। सम्भवत: बन्दरो ने भी इन पारम्परिक चिकित्सको से बहुत कुछ सीखा होगा। मै लम्बे समय से इन कन्द-मूलो के विषय मे जानकारी एकत्र कर रहा हूँ। मुझे तो सबसे पहले इनका सामरिक महत्व दिखता है। भविष्य़ ँऎ छत्तीसगढ के जंगलो मे होने वाले किसी सैनिक अभियान के लिये इन कंद-मूलो से सम्बन्धित जानकारी बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है। इसमे बहुत से कन्द आम लोगो की दिनचर्या मे शामिल किये जा सकते है जिससे उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ सके। एडस के बहुत से रोगी जब आखिर उम्मीद लेकर पारम्परिक चिकित्सको की शरण मे आते है तो इन्ही कन्दो का भोजन दिया जाता है। पर इन कन्दो के विषय मे आम लोगो को बताने से पहले कुछ सावधानी भरे कदम उठाने जरुरी है।
ये कन्द जंगल मे सीमित मात्रा मे है। इन कन्दो पर मनुष्य ही आश्रित नही है बल्कि भालू और जंगली सुअर जैसे वन्य जीव भी अपनी शक्ति के लिये इनका नियमित सेवन करते है। यदि इन कन्दो के विषय मे जानकारी शहरो तक पहुँच गयी तो इन्हे पाने के लिये मारामारी मच जायेगी और देखते ही देखते जंगल के जंगल साफ हो जायेंगे। इसलिये प्रचार से पहले इन कन्दो की जैविक खेती की विधियाँ विकसित करने की जरुरत है। यह सच है कि खेती से औषधीय वनस्पतियो के गुण प्रभावित होते है पर जंगल जैसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करके काफी हद तक औषधीय गुणो को बरकरार रखा जा सकता है। जैविक खेती से जंगलो पर दबाव कम होगा। जंगलो से एकत्र किये गये चन्द कंदो को नये कन्द के उत्पादन के लिये उपयोग किया जायेगा। लिखने और पढने मे यह सब आसान लगता है। पर जमीनी स्तर पर यह कठिन कार्य है। भारतीय जंगलो मे विलुप्त हो रही सफेद मूसली को बचाने के लिये इसकी खेती को प्रोत्साहित किया गया। पर सफेद मूसली का प्रचार प्रसार बढने से जंगलो पर दबाव और बढ गया। सफेद मूसली की खेती पौध-सामग्री माफिया के चंगुल मे फँस गयी। अधिक उत्पादन के चक्कर मे जैविक खेती को ताक पर रख दिया गया। आज बडे पैमाने पर खेती तो हो रही है पर उच्च गुणवत्ता का उत्पाद नही मिल पा रहा है।
अमित से मिलकर दिल को सुकून मिला। यह केवल जडी-बूटियो का ही प्रभाव नही था बल्कि उसका त्याग भी था। आजकल के युवा आकर्षक डिब्बो मे बन्द उत्पादो पर अधिक विश्वास करते है। उनमे से बहुत कम ही अमित की तरह जंगल मे जाकर समय गुजारना पसन्द करते है। मुझे उम्मीद है कि डेढ महिने पूरे होने तक अमित स्वस्थ्य जीवन की कुंजी प्राप्त कर लेगा और आजीवन अपने परिवार व मित्रजनो मे इसे बाँटता रहेगा। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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