नया मोबाइली संवाद, सेन्हा और कुल्लु से आलिंगन
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-10
- पंकज अवधिया
दस जून, 2009
नया मोबाइली संवाद, सेन्हा और कुल्लु से आलिंगन
राजधानी से घंटो का सफर करके हम जंगल पहुँचे तो भूख लग गयी। एक उम्र थी जब कुछ भी खाये, न खाये सब चल जाता था पर अब दो समय का खाना जरुरी लगता है। अब जंगल भ्रमण काम के लिये होता है मौज-मस्ती के लिये नही, इसलिये जंगल पहुँचकर खाना बनाना और फिर मजे से खाना नितांत असम्भव लगता है। अल सुबह जब घर से निकलते है तो शहर के होटल खुले नही होते है। आस-पास के कस्बो मे गरम जलेबी और आलू-पोहा के साथ चाय मिल जाती है। इसी के सहारे पहले दिन गुजार लेते थे। जंगलो मे स्थित सुदूर गाँवो मे जलपान गृह मुश्किल से मिलते है। वहाँ सुबह वाला नाश्ता होता है जिसे दिन भर या दूसरे दिन तक बेचा जाता है। इस नाश्ते का भी अपना मजा है पर अब यह पचता नही है। इसलिये आजकल घर से दाल-भात लेकर निकलते है। अपने लिये भी और ड्रायवर के लिये भी। खाने की हडबडी रहती है क्योकि हम ज्यादा से ज्यादा समय जंगल मे घूमना चाहते है। जैसे ही रात हुयी कैमरे का काम खत्म हो जाता है। इस बार की जंगल यात्रा मे ऐसे ही एक अनजान वन ग्राम मे हम रुक गये। छोटा सा होटल था जिसे ग्राहको की उम्मीद नही थी। छोटी गाडी मे दो शहरियो को देखकर उन्हे अटपटा लगा।
मैने पूछा कि क्या हम यहाँ खाना खा सकते है? आपके यहाँ चाय पी लेंगे। होटल वाला तैयार हो गया। हमे नमक और प्याज मिल गया। बातो ही बातो मे मैने होटल वाले से अनुरोध किया कि कोई स्थानीय आदमी दिलवा दो तो हम आस-पास के जंगल घूम आयेंगे। होटल वाले ने हमे बडे ही अटपटे ढंग से घूरा। फिर अपने दोस्तो के साथ बातचीत मे मशगूल हो गया। कुछ देर बाद मैने फिर से अपनी बात दोहरायी। होटल वाले ने इसे अनसुना कर दिया। मोबाइल पर वे सब गाना सुन रहे थे। अपनी ही दुनिया मे मगन दिखते थे। हमे तो जंगल घूमना था। अकेले नही जाना चाहते थे। किसी को तो ले जाना ही था। यदि दिन भर का मेहनताना देना होता तो भी। पता नही मुझे क्या सूझी मैने अपना एन 73 मोबाइल निकाला और वही गाना बजा दिया जो उन लोगो के मोबाइल मे बज रहा था। गाना फिल्म कयामत से कयामत तक का था, गजब का है दिन, देखो जरा। अब एन 73 मे जबरदस्त आवाज आती है। अचानक ही वे सब पास आ गये और मोबाइली गाना सुनने लगे। कुछ पलो मे माहौल बदल गया और उनमे से एक व्यक्ति जिसका नाम तिहारु था, साथ चलने के लिये तैयार हो गया। उसकी शर्त यही थी कि जंगल भ्रमण के दौरान मोबाइल मे गाना ऐसे ही बजते रहना चाहिये। संवाद स्थापित करने के इस नये ढंग ने मुझे आश्चर्य मे डाल दिया।
“ये सेन्हा है, साहब। इसका कोई भाग उपयोग मे नही आता।“भरी गर्मी मे नयी पत्तियो से युक्त सेन्हा के पौधो और बडे पेडो की ओर इशारा करते हुये तिहारु ने कहा। तिहारु के ये शब्द कि इसका कोई भाग उपयोग मे नही आता, मेरे लिये सुकून भरे थे। इसका साफ मतलब था कि सेन्हा को हमारी आने वाली पीढी भी देख पायेगी। कोई उपयोग नही होने के कारण यह मानव आबादी के बढते दबाव से बचा रहेगा जबकि थोडी भी उपयोगी प्रजातियो को आज की पीढी बिना किसी दया के निपटा देगी। सेन्हा के फल बडे आकर्षक होते है। पर व्यापारी इसे एकत्र नही करवाते है। अक्सर वे इन फलो को मेरे पास भेजकर कहते जरुर है कि इसका कोई उपयोग बताइये। ये जंगल मे बहुत है। कोई नया उपयोग बतायेंगे तो जितनी मात्रा मे बोलेंगे हम एकत्र करवा देंगे। मैने सेन्हा के औषधीय गुणो पर काफी जानकारियाँ एकत्र की है। पारम्परिक चिकित्सक इसके पौध भागो का प्रयोग नाना प्रकार के रोगो की चिकित्सा मे करते है। पर मेरी तरह वे भी डरते है कि इसके उपयोग सार्वजनिक होने पर इसके लिये मारामारी मच जायेगी। मेरे लिये यह बडी दुविधा वाली स्थिति है। ज्ञान यदि नये शोधो के लिये उपलब्ध न कराया जाये तो इसका प्रसार नही हो पायेगा। यदि उपलब्ध कराया तो इसके सार्वजनिक होने मे देर नही लगेगी। सार्वजनिक होते ही यह प्रजाति खतरे मे पड जायेगी। भले ही यह ब्लाग और यह लेखमाला हिन्दी मे है पर स्टैट काउंटर के आँकडे बताते है कि दुनिया भर की जानी-मानी दवा कम्पनियो से लोग इस पर नजर गडाये है। वे एक नही पाँच नही, सत्रह घंटो तक इस ब्लाग पर टिके रहते है। फिर भारतीय शोध संस्थानो के माध्यम से शोध के नाम पर जानकरियाँ माँगते है। हाल ही मे “अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग” नामक लेखमाला मे कैंसर की जडी-बूटी पर लिखे गये लेख की प्रति लेकर कुछ विदेशी पर्यटक उस लेख मे वर्णित स्थान की तलाश करते पाये गये है। इतनी जल्दी यह सब होगा इसकी मुझे उम्मीद नही थी। एक ओर तो मुझे अपने अनुभव आप सब से बाँटने मे आनन्द आता है वही दूसरी ओर गिद्ध नजरो से डर भी लगता है। यही कारण है कि मूल लेखो से स्थान और विशेषज्ञो की पहचान हटाकर सम्पादित लेखो को यहाँ प्रस्तुत करता हूँ।
तिहारु से मिलते ही मुझे कुल्लु के पेड की याद आयी। वह इसे इस नाम से नही जनता था पर जब मैने उसकी तस्वीर दिखायी तो उसने झट से कहा कि पास की पहाडी मे एक-दो पेड है। उसने भी वही बात दोहरायी कि उसके देखते ही देखते यह आस-पास के जंगलो से साफ हो गया। पता नही कब ये बचे हुये एक-दो पेड भी कट जाये। हमने पहले उसी ओर का रुख किया। पथरीली जमीन मे ही कुल्लु मिलता है यह आप पहले पढ चुके है। इस बार भी हमे वह ऐसी ही परिस्थितियो मे मिला। कान्हा मे जब हमने इसे देखा तो इसमे फल लगे थे। जब चार जून की यात्रा वाले स्थान पर इसे देखा तो इसकी पत्तियाँ झड चुकी थी पर यहाँ हमे नयी हरी पत्तियो से युक्त कुल्लु दिखा। मेरे ड्रायवर ने कपडे उतारने शुरु किये। तिहारु घबरा गया। अधोवस्त्र पहने हुये ड्रायवर अपने बिछडे हुये सगे की तरह उससे लिपट गया। तिहारु यह सब देखता रहा। पाँच मिनट बाद वह उससे अलग हुआ और हाथ जोडकर कुल्लु की सात बार परिक्रमा की। किसी पारम्परिक चिकित्सक ने उसे बताया था कि उसके असाध्य समझे जाने वाले रोग के लिये इस तरह आलिंगन जरुरी था। उसे यह दिन मे कई बार करना था पर शहरो मे तो ये पेड है नही। जंगलो मे भी मुश्किल से मिलते है। इसलिये जब भी वह इन्हे देखता है बस लिपट जाता है। पारम्परिक चिकित्सक ने उसे कोई दवा नही दी थी। इस बात को बहुत महिने गुजर चुके है पर यह कुल्लु के आलिंगन का असर ही है कि वह यह मौका कभी नही छोडता। तिहारु को यह सब अच्छा लगा। उसने भी इस प्रक्रिया को दोहराया। उसने कहा कि वह अब रोज आयेगा। इस पर ड्रायवर ने तपाक से कहा कि एक बार गले मिल गये तो अब यह तुम्हारा रिश्तेदार हो गया। तुम्हारी जान के लिये यह अपना सर्वस्व लुटा देगा पर तुम्हे भी यही करना होगा। ड्रायवर की बात सुनकर मै अभिभूत था। ऐसी महान आत्माओ का साथ जंगल भ्रमण को और भी सार्थक बना देता है।
मै बार-बार यह लिखता रहता हूँ कि जंगल मे जो काम मै करता हूँ उसकी विधिवत शिक्षा मैने नही ली। यह तो शौक है जो जीवन बन गया है। दुनिया भर से शोधकर्ता जब सही पहचान के लिये वनस्पतियो के नमूने और चित्र भेजते है तो मन प्रफुल्लित हो जाता है। हाल ही मेरे द्वारा खीची गयी चालीस हजारवी तस्वीर इंटरनेट पर विश्व समुदाय के लिये उपलब्ध हुयी है। तीन लाख तस्वीरो मे से केवल चालीस हजार ही अभी अपलोड कर पाया हूँ। दुनिया के जाने-माने वनस्पति विशेषज्ञ लिखते है कि इतनी सारी तस्वीरो और करोडो पन्नो का ज्ञान कोई भी मुफ्त मे नही बाँटता। मुझे इस बात का अहसास है कि ये बहुत उपयोगी सामग्रियाँ है पर इन्हे पूरी तरह पढने वाले विद्यार्थी तेजी से कम हो रहे है। उनके रुचि जगाने मे मै थोडा भी सफल हो जाऊँ तो मै अपने जीवन को सार्थक मानूँगा। (क्रमश:)
एक बार फिर दर्शन हुये कुल्लु के
नयी पत्तियो से युक्त सेन्हा
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
- पंकज अवधिया
दस जून, 2009
नया मोबाइली संवाद, सेन्हा और कुल्लु से आलिंगन
राजधानी से घंटो का सफर करके हम जंगल पहुँचे तो भूख लग गयी। एक उम्र थी जब कुछ भी खाये, न खाये सब चल जाता था पर अब दो समय का खाना जरुरी लगता है। अब जंगल भ्रमण काम के लिये होता है मौज-मस्ती के लिये नही, इसलिये जंगल पहुँचकर खाना बनाना और फिर मजे से खाना नितांत असम्भव लगता है। अल सुबह जब घर से निकलते है तो शहर के होटल खुले नही होते है। आस-पास के कस्बो मे गरम जलेबी और आलू-पोहा के साथ चाय मिल जाती है। इसी के सहारे पहले दिन गुजार लेते थे। जंगलो मे स्थित सुदूर गाँवो मे जलपान गृह मुश्किल से मिलते है। वहाँ सुबह वाला नाश्ता होता है जिसे दिन भर या दूसरे दिन तक बेचा जाता है। इस नाश्ते का भी अपना मजा है पर अब यह पचता नही है। इसलिये आजकल घर से दाल-भात लेकर निकलते है। अपने लिये भी और ड्रायवर के लिये भी। खाने की हडबडी रहती है क्योकि हम ज्यादा से ज्यादा समय जंगल मे घूमना चाहते है। जैसे ही रात हुयी कैमरे का काम खत्म हो जाता है। इस बार की जंगल यात्रा मे ऐसे ही एक अनजान वन ग्राम मे हम रुक गये। छोटा सा होटल था जिसे ग्राहको की उम्मीद नही थी। छोटी गाडी मे दो शहरियो को देखकर उन्हे अटपटा लगा।
मैने पूछा कि क्या हम यहाँ खाना खा सकते है? आपके यहाँ चाय पी लेंगे। होटल वाला तैयार हो गया। हमे नमक और प्याज मिल गया। बातो ही बातो मे मैने होटल वाले से अनुरोध किया कि कोई स्थानीय आदमी दिलवा दो तो हम आस-पास के जंगल घूम आयेंगे। होटल वाले ने हमे बडे ही अटपटे ढंग से घूरा। फिर अपने दोस्तो के साथ बातचीत मे मशगूल हो गया। कुछ देर बाद मैने फिर से अपनी बात दोहरायी। होटल वाले ने इसे अनसुना कर दिया। मोबाइल पर वे सब गाना सुन रहे थे। अपनी ही दुनिया मे मगन दिखते थे। हमे तो जंगल घूमना था। अकेले नही जाना चाहते थे। किसी को तो ले जाना ही था। यदि दिन भर का मेहनताना देना होता तो भी। पता नही मुझे क्या सूझी मैने अपना एन 73 मोबाइल निकाला और वही गाना बजा दिया जो उन लोगो के मोबाइल मे बज रहा था। गाना फिल्म कयामत से कयामत तक का था, गजब का है दिन, देखो जरा। अब एन 73 मे जबरदस्त आवाज आती है। अचानक ही वे सब पास आ गये और मोबाइली गाना सुनने लगे। कुछ पलो मे माहौल बदल गया और उनमे से एक व्यक्ति जिसका नाम तिहारु था, साथ चलने के लिये तैयार हो गया। उसकी शर्त यही थी कि जंगल भ्रमण के दौरान मोबाइल मे गाना ऐसे ही बजते रहना चाहिये। संवाद स्थापित करने के इस नये ढंग ने मुझे आश्चर्य मे डाल दिया।
“ये सेन्हा है, साहब। इसका कोई भाग उपयोग मे नही आता।“भरी गर्मी मे नयी पत्तियो से युक्त सेन्हा के पौधो और बडे पेडो की ओर इशारा करते हुये तिहारु ने कहा। तिहारु के ये शब्द कि इसका कोई भाग उपयोग मे नही आता, मेरे लिये सुकून भरे थे। इसका साफ मतलब था कि सेन्हा को हमारी आने वाली पीढी भी देख पायेगी। कोई उपयोग नही होने के कारण यह मानव आबादी के बढते दबाव से बचा रहेगा जबकि थोडी भी उपयोगी प्रजातियो को आज की पीढी बिना किसी दया के निपटा देगी। सेन्हा के फल बडे आकर्षक होते है। पर व्यापारी इसे एकत्र नही करवाते है। अक्सर वे इन फलो को मेरे पास भेजकर कहते जरुर है कि इसका कोई उपयोग बताइये। ये जंगल मे बहुत है। कोई नया उपयोग बतायेंगे तो जितनी मात्रा मे बोलेंगे हम एकत्र करवा देंगे। मैने सेन्हा के औषधीय गुणो पर काफी जानकारियाँ एकत्र की है। पारम्परिक चिकित्सक इसके पौध भागो का प्रयोग नाना प्रकार के रोगो की चिकित्सा मे करते है। पर मेरी तरह वे भी डरते है कि इसके उपयोग सार्वजनिक होने पर इसके लिये मारामारी मच जायेगी। मेरे लिये यह बडी दुविधा वाली स्थिति है। ज्ञान यदि नये शोधो के लिये उपलब्ध न कराया जाये तो इसका प्रसार नही हो पायेगा। यदि उपलब्ध कराया तो इसके सार्वजनिक होने मे देर नही लगेगी। सार्वजनिक होते ही यह प्रजाति खतरे मे पड जायेगी। भले ही यह ब्लाग और यह लेखमाला हिन्दी मे है पर स्टैट काउंटर के आँकडे बताते है कि दुनिया भर की जानी-मानी दवा कम्पनियो से लोग इस पर नजर गडाये है। वे एक नही पाँच नही, सत्रह घंटो तक इस ब्लाग पर टिके रहते है। फिर भारतीय शोध संस्थानो के माध्यम से शोध के नाम पर जानकरियाँ माँगते है। हाल ही मे “अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग” नामक लेखमाला मे कैंसर की जडी-बूटी पर लिखे गये लेख की प्रति लेकर कुछ विदेशी पर्यटक उस लेख मे वर्णित स्थान की तलाश करते पाये गये है। इतनी जल्दी यह सब होगा इसकी मुझे उम्मीद नही थी। एक ओर तो मुझे अपने अनुभव आप सब से बाँटने मे आनन्द आता है वही दूसरी ओर गिद्ध नजरो से डर भी लगता है। यही कारण है कि मूल लेखो से स्थान और विशेषज्ञो की पहचान हटाकर सम्पादित लेखो को यहाँ प्रस्तुत करता हूँ।
तिहारु से मिलते ही मुझे कुल्लु के पेड की याद आयी। वह इसे इस नाम से नही जनता था पर जब मैने उसकी तस्वीर दिखायी तो उसने झट से कहा कि पास की पहाडी मे एक-दो पेड है। उसने भी वही बात दोहरायी कि उसके देखते ही देखते यह आस-पास के जंगलो से साफ हो गया। पता नही कब ये बचे हुये एक-दो पेड भी कट जाये। हमने पहले उसी ओर का रुख किया। पथरीली जमीन मे ही कुल्लु मिलता है यह आप पहले पढ चुके है। इस बार भी हमे वह ऐसी ही परिस्थितियो मे मिला। कान्हा मे जब हमने इसे देखा तो इसमे फल लगे थे। जब चार जून की यात्रा वाले स्थान पर इसे देखा तो इसकी पत्तियाँ झड चुकी थी पर यहाँ हमे नयी हरी पत्तियो से युक्त कुल्लु दिखा। मेरे ड्रायवर ने कपडे उतारने शुरु किये। तिहारु घबरा गया। अधोवस्त्र पहने हुये ड्रायवर अपने बिछडे हुये सगे की तरह उससे लिपट गया। तिहारु यह सब देखता रहा। पाँच मिनट बाद वह उससे अलग हुआ और हाथ जोडकर कुल्लु की सात बार परिक्रमा की। किसी पारम्परिक चिकित्सक ने उसे बताया था कि उसके असाध्य समझे जाने वाले रोग के लिये इस तरह आलिंगन जरुरी था। उसे यह दिन मे कई बार करना था पर शहरो मे तो ये पेड है नही। जंगलो मे भी मुश्किल से मिलते है। इसलिये जब भी वह इन्हे देखता है बस लिपट जाता है। पारम्परिक चिकित्सक ने उसे कोई दवा नही दी थी। इस बात को बहुत महिने गुजर चुके है पर यह कुल्लु के आलिंगन का असर ही है कि वह यह मौका कभी नही छोडता। तिहारु को यह सब अच्छा लगा। उसने भी इस प्रक्रिया को दोहराया। उसने कहा कि वह अब रोज आयेगा। इस पर ड्रायवर ने तपाक से कहा कि एक बार गले मिल गये तो अब यह तुम्हारा रिश्तेदार हो गया। तुम्हारी जान के लिये यह अपना सर्वस्व लुटा देगा पर तुम्हे भी यही करना होगा। ड्रायवर की बात सुनकर मै अभिभूत था। ऐसी महान आत्माओ का साथ जंगल भ्रमण को और भी सार्थक बना देता है।
मै बार-बार यह लिखता रहता हूँ कि जंगल मे जो काम मै करता हूँ उसकी विधिवत शिक्षा मैने नही ली। यह तो शौक है जो जीवन बन गया है। दुनिया भर से शोधकर्ता जब सही पहचान के लिये वनस्पतियो के नमूने और चित्र भेजते है तो मन प्रफुल्लित हो जाता है। हाल ही मेरे द्वारा खीची गयी चालीस हजारवी तस्वीर इंटरनेट पर विश्व समुदाय के लिये उपलब्ध हुयी है। तीन लाख तस्वीरो मे से केवल चालीस हजार ही अभी अपलोड कर पाया हूँ। दुनिया के जाने-माने वनस्पति विशेषज्ञ लिखते है कि इतनी सारी तस्वीरो और करोडो पन्नो का ज्ञान कोई भी मुफ्त मे नही बाँटता। मुझे इस बात का अहसास है कि ये बहुत उपयोगी सामग्रियाँ है पर इन्हे पूरी तरह पढने वाले विद्यार्थी तेजी से कम हो रहे है। उनके रुचि जगाने मे मै थोडा भी सफल हो जाऊँ तो मै अपने जीवन को सार्थक मानूँगा। (क्रमश:)
एक बार फिर दर्शन हुये कुल्लु के
नयी पत्तियो से युक्त सेन्हा
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }