जंगलो के लिये अभिशाप ढाबे और उनकी काली करतूते
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-15
- पंकज अवधिया
बारह जून, 2009
जंगलो के लिये अभिशाप ढाबे और उनकी काली करतूते
“चाय के साथ मसाला पापड ले आना। मसाला पापड मिलता है ना यहाँ?” मैने तो सिर्फ चाय के लिये कहा था पर ड्रायवर ने उसमे मसाला पापड भी जोड दिया। हमारी योजना एक ढाबे मे रुककर चाय पीने की थी ताकि वहाँ गाडी खडी करके पीछे के पहाड को पैदल पारकर पारम्परिक चिकित्सको के गाँव पहुँचा जाये और फिर उनके साथ जंगल जाया जाये। हम अक्सर इस ढाबे मे आते थे। विशेषकर उन दिनो मे जब मै इस क्षेत्र विशेष मे वानस्पतिक सर्वेक्षण कर रहा था। ढाबा वही था पर इसके मालिक बदलते रहते है। अभी किसी बाहरी व्यक्ति के पास इसका मालिकाना हक है। छोकरे भी उसने बाहर के ही रखे है। इस बार जब हम ढाबे के पास पहुँचे तो सारी रंगत ही बदली-बदली नजर आयी। ढाबे के पीछे काफी दूर तक जंगल साफ हो चुका था। पहले ढाबे के सामने खटिया लगी होती थी जिसमे ट्रक वाले अपनी पीठ सीधी कर लिया करते थे। अब पीछे तक ढाबे का विस्तार हो गया था।
इस बीच मसाला पापड के साथ चाय आ गयी। मसाला पापड मे टमाटर और प्याज की टापिंग की गयी थी। दोनो ही बडे ताजे लग रहे थे। जैसे ही मैने एक टुकडा खाया टमाटर के टुकडो से रस टपक पडा। खून की तरह लाल रस। मेरा मुँह लाल हो गया। हाथ भी लाल हो गया। मेरे क्रोध का ठिकाना नही रहा। तुरंत छोकरे को बुलाया। “इसमे रंग डाला है। कौन-सा रंग? जरा डिब्बा दिखाओ?” मेरी बात सुनकर वह झट से डिब्बा ले आया। डिब्बा देखकर मेरे होश उड गये। यह कपडो को चटक रंग देने वाला रसायन था। अब मै तो रंग चुका था और कुछ किया नही जा सकता था इसलिये डाँट-डपट के बाद मसाला पापड वापस लौटा दिया। मैने मालिक से शिकायत की। फिर रसोई का मुआयना किया। इतनी सारी उल्टी-पुल्टी सामग्रियाँ थी कि ढाबे के खाने से नफरत हो गयी। हम जंगल की ओर चल पडे।
ढाबे के आस-पास घने जंगल मे बहुत से पुराने वृक्ष थे जिन्हे पारम्परिक चिकित्सको ने चिन्हित करके रखा था। अब वे नही दिख रहे थे। गाँव पहुँचते तक हमे अवैध खुदाई के बहुत से चिन्ह मिले। जब पारम्परिक चिकित्सको से मुलाकात हुयी तो उनकी रुलाई फूट पडी। ढाबे के नये मालिक की ये सारी करतूते थी। जंगल साफ हो गया है। अवैध खुदाई हो रही है। देर रात तक लोगो का जमावडा होने लगा है। ये ट्रक वाले नही थे बल्कि आस-पास के शहरो से आने-वाले लोग है। अधिक लोगो के आने से बेकार भोजन सामग्री का ढेर बढता जा रहा है। यह सामग्री माँसाहारी वन्य प्राणियो को आकर्षित कर रही है। ये वन्य प्राणी गाँव पार कर आते है। पहले रात मे ये गाँव की गलियो से गुजरते थे पर अब दिन मे कभी भी आ जाते है। ग्रामीण जानते है कि इनसे बचने मे ही भलाई है। यदि ये मारे गये तो उन्हे जेल भेज दिया जायेगा। ढाबे मे भालू तो जैसे डेरा जमाये ही रहते है। वैसे भी ये कचरा प्रेमी होते है। लकडबग्घे और तेन्दुए भी आ जाते है।
एक ग्रामीण ने दबे स्वर मे बताया कि ढाबे मे कुछ लोगो को उसने वन्य प्राणियो के शारीरिक अंग बेचते देखा है। बडी गाडियो मे सवार शहरी इन अंगो की मुँहमाँगी कीमत देते है। शहरी वैसे ही अन्ध-विश्वासी होते है, ग्रामीणो से ज्यादा। भालू के नाखून से लेकर तेन्दुए की हड्डियाँ बिकती है। मुझे ग्रामीण की बातो पर एकाएक विश्वास नही हुआ। मुख्य मार्ग मे स्थित ढाबे मे ऐसा खुलेआम होना आश्चर्य का विषय था। पर ग्रामीण की बात का अविश्वास भी तो नही किया जा सकता था।
मुझे याद आता है कि वानस्पतिक सर्वेक्षण के दौरान एक बार छत्तीसगढ के हीरा क्षेत्र मे जाना हुआ। वहाँ सरकारी गाडियो को एक ढाबे मे खडा देखकर उसे बडा ढाबा मानकर खाने के लिये रुक गये। रुकते ही ढाबे के कुछ लोग आये और पूछने लगे कि क्या आपको हीरे चाहिये? क्या आप हीरे खरीदने आये है? मेरे आश्चर्य का ठिकाना नही रहा। क्या अब ऐसे दिन आ गये है कि हीरे ढाबे मे बिकेंगे? मैने कहा कि हम तो जडी-बूटी की खोज मे आये है तो उनका शक यकीन मे बदल गया। वे पीछे ही लग गये। तब हमने बिना खाये-पीये लौटने मे ही अपनी भलाई समझी।
ऐसे ही एक ढाबे मे हमने वन्य प्राणियो की खाल के नाम पर कुत्ते की खाल बिकती देखी। महानगर से आया एक खरीददार मुँहमाँगे दाम पर उसे ले गया। खाल को रंगा गया था ताकि वह बाघ की पुरानी खाल जैसी लगे। जानकार झट से पहचान जाते पर नौसीखीये बेवकूफ बन जाते है। किसी तांत्रिक ने उस नौसीखीये से कहा था कि बाघ की खाल मे बैठकर पूजा करने से समस्त मनोकामनाए पूर्ण होगी। अब तो वह कुत्ते की खाल पर बैठा अपनी मनोकामना पूर्ण होने की बाट जोह रहा होगा। उस ढाबे के मालिक को जब हमने हडकाया तो वह बोला कि अमुक दिन आना तो मै असली खाल दे दूंगा। इसका मतलब ढाबे से खालो का व्यापार हो रहा था। खाल पर इस चर्चा से दिल को छूने वाली एक घटना याद आ रही है।
छत्तीसगढ मे जतमाई गढ है। यहाँ झरना है और माँ का मन्दिर भी। एक बार एक हिरण वहाँ भटकता हुआ आ गया और मन्दिर के पास ही उसने प्राण छोड दिये। पुजारी के लिये यह घटना अनर्थ से कम नही थी। माँ जिन वन्य प्राणियो की रक्षा करती है वे ही यदि मन्दिर के पास आकर जान देने लगे, मतलब कुछ गडबड है। पुजारी ने उसका अंतिम संस्कार किया पूरे विधि विधान से और फिर खाल को अपने पास रख लिया। खाल मे गुलाल लगाकर उसकी पूजा शुरु हो ग्यी। उस दौरान मै गया तो खाल की पूजा देखकर मैने प्रश्न किये। सारी बाते पता चली। मुझे पुजारी के वन्य-प्राणी प्रेम पर अभिमान हुआ। वह चाहता तो वह खाल उसके लिये पैसे का एक बडा स्त्रोत थी। पर उसने जंगल और वन्य प्राणियो को धार्मिक आस्थाओ के नजरिये से देखा है। यह नजरिया कभी भी वन्य प्राणियो व मनुष्यो के बीच दीवार नही खडी करेगा।
अपनी इस जंगल यात्रा के दौरान ढाबे के बारे मे और भी चौकाने वाली बाते पता चली। ग्रामीणो का साफ कहना था कि कही भी कुछ खम्बे गडाकर ढाबे बना लिये जाते है और फिर देखते ही देखते वे बहुत बडे हो जाते है। फिर आस-पास ढाबो की बाढ आ जाती है। आज जब ज्यादातर ट्रक वाले अपना खाना खुद पकाकर खाने मे विश्वास करते है ऐसे मे ढाबे कम होने की बजाय बढते जा रहे है। ढाबे की आमदनी उन कार्यो से हो रही है जो सीधे तौर पर ढाबे से सम्बन्धित नही है। पारम्परिक चिकित्सक तो साफ शब्दो मे कहते है कि वन की सुरक्षा मे लगे विभागो को एक “ढाबा निगरानी समिति” बनानी चाहिये।
मुझे मालूम है कि हम शहरी ढाबो को लेकर बहुत उत्साहित रहते है। हम इसके उजले पक्ष को तो देखते है पर इसके कृष्ण पक्ष को अनदेखा कर देते है। इसी कम देखे और कम जाने पक्ष को सामने रखना इस लेख का उद्देश्य है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
- पंकज अवधिया
बारह जून, 2009
जंगलो के लिये अभिशाप ढाबे और उनकी काली करतूते
“चाय के साथ मसाला पापड ले आना। मसाला पापड मिलता है ना यहाँ?” मैने तो सिर्फ चाय के लिये कहा था पर ड्रायवर ने उसमे मसाला पापड भी जोड दिया। हमारी योजना एक ढाबे मे रुककर चाय पीने की थी ताकि वहाँ गाडी खडी करके पीछे के पहाड को पैदल पारकर पारम्परिक चिकित्सको के गाँव पहुँचा जाये और फिर उनके साथ जंगल जाया जाये। हम अक्सर इस ढाबे मे आते थे। विशेषकर उन दिनो मे जब मै इस क्षेत्र विशेष मे वानस्पतिक सर्वेक्षण कर रहा था। ढाबा वही था पर इसके मालिक बदलते रहते है। अभी किसी बाहरी व्यक्ति के पास इसका मालिकाना हक है। छोकरे भी उसने बाहर के ही रखे है। इस बार जब हम ढाबे के पास पहुँचे तो सारी रंगत ही बदली-बदली नजर आयी। ढाबे के पीछे काफी दूर तक जंगल साफ हो चुका था। पहले ढाबे के सामने खटिया लगी होती थी जिसमे ट्रक वाले अपनी पीठ सीधी कर लिया करते थे। अब पीछे तक ढाबे का विस्तार हो गया था।
इस बीच मसाला पापड के साथ चाय आ गयी। मसाला पापड मे टमाटर और प्याज की टापिंग की गयी थी। दोनो ही बडे ताजे लग रहे थे। जैसे ही मैने एक टुकडा खाया टमाटर के टुकडो से रस टपक पडा। खून की तरह लाल रस। मेरा मुँह लाल हो गया। हाथ भी लाल हो गया। मेरे क्रोध का ठिकाना नही रहा। तुरंत छोकरे को बुलाया। “इसमे रंग डाला है। कौन-सा रंग? जरा डिब्बा दिखाओ?” मेरी बात सुनकर वह झट से डिब्बा ले आया। डिब्बा देखकर मेरे होश उड गये। यह कपडो को चटक रंग देने वाला रसायन था। अब मै तो रंग चुका था और कुछ किया नही जा सकता था इसलिये डाँट-डपट के बाद मसाला पापड वापस लौटा दिया। मैने मालिक से शिकायत की। फिर रसोई का मुआयना किया। इतनी सारी उल्टी-पुल्टी सामग्रियाँ थी कि ढाबे के खाने से नफरत हो गयी। हम जंगल की ओर चल पडे।
ढाबे के आस-पास घने जंगल मे बहुत से पुराने वृक्ष थे जिन्हे पारम्परिक चिकित्सको ने चिन्हित करके रखा था। अब वे नही दिख रहे थे। गाँव पहुँचते तक हमे अवैध खुदाई के बहुत से चिन्ह मिले। जब पारम्परिक चिकित्सको से मुलाकात हुयी तो उनकी रुलाई फूट पडी। ढाबे के नये मालिक की ये सारी करतूते थी। जंगल साफ हो गया है। अवैध खुदाई हो रही है। देर रात तक लोगो का जमावडा होने लगा है। ये ट्रक वाले नही थे बल्कि आस-पास के शहरो से आने-वाले लोग है। अधिक लोगो के आने से बेकार भोजन सामग्री का ढेर बढता जा रहा है। यह सामग्री माँसाहारी वन्य प्राणियो को आकर्षित कर रही है। ये वन्य प्राणी गाँव पार कर आते है। पहले रात मे ये गाँव की गलियो से गुजरते थे पर अब दिन मे कभी भी आ जाते है। ग्रामीण जानते है कि इनसे बचने मे ही भलाई है। यदि ये मारे गये तो उन्हे जेल भेज दिया जायेगा। ढाबे मे भालू तो जैसे डेरा जमाये ही रहते है। वैसे भी ये कचरा प्रेमी होते है। लकडबग्घे और तेन्दुए भी आ जाते है।
एक ग्रामीण ने दबे स्वर मे बताया कि ढाबे मे कुछ लोगो को उसने वन्य प्राणियो के शारीरिक अंग बेचते देखा है। बडी गाडियो मे सवार शहरी इन अंगो की मुँहमाँगी कीमत देते है। शहरी वैसे ही अन्ध-विश्वासी होते है, ग्रामीणो से ज्यादा। भालू के नाखून से लेकर तेन्दुए की हड्डियाँ बिकती है। मुझे ग्रामीण की बातो पर एकाएक विश्वास नही हुआ। मुख्य मार्ग मे स्थित ढाबे मे ऐसा खुलेआम होना आश्चर्य का विषय था। पर ग्रामीण की बात का अविश्वास भी तो नही किया जा सकता था।
मुझे याद आता है कि वानस्पतिक सर्वेक्षण के दौरान एक बार छत्तीसगढ के हीरा क्षेत्र मे जाना हुआ। वहाँ सरकारी गाडियो को एक ढाबे मे खडा देखकर उसे बडा ढाबा मानकर खाने के लिये रुक गये। रुकते ही ढाबे के कुछ लोग आये और पूछने लगे कि क्या आपको हीरे चाहिये? क्या आप हीरे खरीदने आये है? मेरे आश्चर्य का ठिकाना नही रहा। क्या अब ऐसे दिन आ गये है कि हीरे ढाबे मे बिकेंगे? मैने कहा कि हम तो जडी-बूटी की खोज मे आये है तो उनका शक यकीन मे बदल गया। वे पीछे ही लग गये। तब हमने बिना खाये-पीये लौटने मे ही अपनी भलाई समझी।
ऐसे ही एक ढाबे मे हमने वन्य प्राणियो की खाल के नाम पर कुत्ते की खाल बिकती देखी। महानगर से आया एक खरीददार मुँहमाँगे दाम पर उसे ले गया। खाल को रंगा गया था ताकि वह बाघ की पुरानी खाल जैसी लगे। जानकार झट से पहचान जाते पर नौसीखीये बेवकूफ बन जाते है। किसी तांत्रिक ने उस नौसीखीये से कहा था कि बाघ की खाल मे बैठकर पूजा करने से समस्त मनोकामनाए पूर्ण होगी। अब तो वह कुत्ते की खाल पर बैठा अपनी मनोकामना पूर्ण होने की बाट जोह रहा होगा। उस ढाबे के मालिक को जब हमने हडकाया तो वह बोला कि अमुक दिन आना तो मै असली खाल दे दूंगा। इसका मतलब ढाबे से खालो का व्यापार हो रहा था। खाल पर इस चर्चा से दिल को छूने वाली एक घटना याद आ रही है।
छत्तीसगढ मे जतमाई गढ है। यहाँ झरना है और माँ का मन्दिर भी। एक बार एक हिरण वहाँ भटकता हुआ आ गया और मन्दिर के पास ही उसने प्राण छोड दिये। पुजारी के लिये यह घटना अनर्थ से कम नही थी। माँ जिन वन्य प्राणियो की रक्षा करती है वे ही यदि मन्दिर के पास आकर जान देने लगे, मतलब कुछ गडबड है। पुजारी ने उसका अंतिम संस्कार किया पूरे विधि विधान से और फिर खाल को अपने पास रख लिया। खाल मे गुलाल लगाकर उसकी पूजा शुरु हो ग्यी। उस दौरान मै गया तो खाल की पूजा देखकर मैने प्रश्न किये। सारी बाते पता चली। मुझे पुजारी के वन्य-प्राणी प्रेम पर अभिमान हुआ। वह चाहता तो वह खाल उसके लिये पैसे का एक बडा स्त्रोत थी। पर उसने जंगल और वन्य प्राणियो को धार्मिक आस्थाओ के नजरिये से देखा है। यह नजरिया कभी भी वन्य प्राणियो व मनुष्यो के बीच दीवार नही खडी करेगा।
अपनी इस जंगल यात्रा के दौरान ढाबे के बारे मे और भी चौकाने वाली बाते पता चली। ग्रामीणो का साफ कहना था कि कही भी कुछ खम्बे गडाकर ढाबे बना लिये जाते है और फिर देखते ही देखते वे बहुत बडे हो जाते है। फिर आस-पास ढाबो की बाढ आ जाती है। आज जब ज्यादातर ट्रक वाले अपना खाना खुद पकाकर खाने मे विश्वास करते है ऐसे मे ढाबे कम होने की बजाय बढते जा रहे है। ढाबे की आमदनी उन कार्यो से हो रही है जो सीधे तौर पर ढाबे से सम्बन्धित नही है। पारम्परिक चिकित्सक तो साफ शब्दो मे कहते है कि वन की सुरक्षा मे लगे विभागो को एक “ढाबा निगरानी समिति” बनानी चाहिये।
मुझे मालूम है कि हम शहरी ढाबो को लेकर बहुत उत्साहित रहते है। हम इसके उजले पक्ष को तो देखते है पर इसके कृष्ण पक्ष को अनदेखा कर देते है। इसी कम देखे और कम जाने पक्ष को सामने रखना इस लेख का उद्देश्य है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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Comments
किसी अलगे पोस्ट में इनका भी पर्दाफाश करें।
असल में देखा जाए, तो ढाबों को ग्राम वन विकास समिति द्वारा इकोडेवलपमेंट कार्यक्रम के तहत चलाया जाना चाहिए, और उनमें केवल स्थानीय लोगों को काम पर रखा जाना चाहिए। इससे स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर मिल जाएंगे, और पर्यटकों को स्वच्छ भोजन भी।
आपका ढाबा निगरानी समिति वाला विचार भी अच्छा है, वन विभाग को उसे लागू करना चाहिए।