समस्त दुखो को हरने वाली माला और जख्मी वृक्षो की मरहम-पट्टी
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-25
- पंकज अवधिया
समस्त दुखो को हरने वाली माला और जख्मी वृक्षो की मरहम-पट्टी
“अब हाथ मे एक हजार एक की दक्षिणा रखे और इस सारे दुख को हरने वाली माला को प्राप्त करे।“ इस जंगल यात्रा के दौरान मैने सडक के किनारे हाल ही मे बने एक डेरे पर अपनी गाडी रुकवायी। बाहर से ही यह साफ झलक रखा था कि यह किसी तांत्रिक का डेरा है। रंग-बिरंगे झंडे लगे थे। आस-पास के गाँवो से बडी संख्या मे लोग जमा थे। मेरे साथ स्थानीय पारम्परिक चिकित्सक थे इसलिये मुझे सीधे ही तांत्रिक से मिलने का अवसर मिल गया। मेरे अन्दर प्रवेश करते ही वो जोर से चिल्लाया कि तू बहुत दुखी है इसलिये मेरे दर पर आया। तेरे लिये यह माला और यह शिव पत्र उपयुक्त रहेगा। किसी वृक्ष के जडो से बनी ताजी माला मुझे दे दी गयी। मै जडो को पहचान नही पाया। फिर एक पत्ती मुझे दी गयी जिसमे महामृत्युंजय मंत्र लिखा हुआ था। इस ताजी पत्ती को घर के द्वार मे रखने की बात कही गयी और दावा किया गया कि इससे सारे दुख द्वार से ही उल्टे पैर वापस चले जायेंगे। पत्ती को देखकर मै झट से पहचान गया कि यह तो कुल्लु की ताजी पत्तियाँ है।
कुछ दिनो पहले ही मैने कुल्लु की नयी पत्तियो से युक्त वृक्ष देखे थे और जंगल मे उनकी तस्वीरे ली थी। धार्मिक प्रयोजनो के लिये कुल्लु का प्रयोग मेरे लिये नयी बात थी। पारम्परिक चिकित्सको ने कान मे फुसफुसाकर कहा कि यह जडो की माला भी कुल्लु से ही बनी है। मेरे आश्चर्य और क्रोध का ठिकाना नही रहा। आश्चर्य इसलिये क्योकि मैने ऐसी माला पहली बार देखी थी। और क्रोध इसलिये क्योकि जडो का एकत्रण यानि वृक्ष का सर्वनाश। इस पत्ती और जड के एकत्रण से इस क्षेत्र के कुल्लु के वृक्ष तेजी से खत्म हो रहे होंगे। मै झट से वहाँ से उठा और तेजी से डेरे के बाहर आ गया। पारम्परिक चिकित्सको ने तांत्रिक से बात की और बाहर आ गये। बिना विलम्ब हमने पास के जंगल की ओर कूच कर दिया।
जंगल की पथरीली जमीन पर हमे एक घायल कुल्लु का वृक्ष मिला। सम्भवत: तांत्रिक के चेले तो यह दुष्कृत्य किया होगा। इस समय सब सभी कुल्लु के वृक्ष नयी पत्तियो से लदे है ऐसे मे यह वृक्ष पत्ती विहीन था। यानि इससे पत्तियाँ एकत्र की गयी थी। काफी खोजबीन के बाद कुछ और वृक्ष दिखे। उनकी हालत भी बिगडी हुयी थी। जडो के लिये आस-पास की मिट्टी मे खुदायी के ताजे निशान थे। सारी तस्वीरे लेने के बाद हम उल्टे पैर डेरे पर पहुँचे और कडे शब्दो मे तांत्रिक को हडकाया। वह तांत्रिक बाहर से आया था। उसे तो बस ऐसी किसी वनस्पति का अनूठा प्रयोग बताना था जिसके बारे मे आम लोग कुछ नही जानते थे। उसके सामने कुल्लु का वृक्ष पडा तो वह उसी की जड और पत्तियो के पीछे लग गया। मैने उसे समझाने की कोशिश की तो पहले जंगल मे कुल्लु के असंख्य वृक्ष थे पर आज गिने-चुने ही बचे है। आज भी गोन्द की तलाश मे लोग टंगिया लेकर कुल्लु को घायल करने घूम रहे है। पारम्परिक चिकित्सको ने बडी मुश्किल से इन्हे बचाये रखा है। ऐसे मे इसकी जड की माला और पत्तियो का नया प्रयोग इसे हमेशा के लिये समाप्त कर देगा। “अभी से यह गोरखधन्धा बन्द होना चाहिये।“ तांत्रिक को आखिरी चेतावनी दे दी गयी। हमारी बातो का गाँव वालो पर भी असर पडा था। उन्होने भी डेरा उठाने के लिये जोर डाला। हमे आगे बढ गये।
जंगल मे हमे सूखे झरनो के किनारे बहुत से कुल्लु के नये पौधे मिले। नये पौधो को देखकर उम्मीद की कुछ किरण जागी। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको ने बताया कि बहता पानी कुल्लु के बीजो को दूर-दूर तक फैलाने मे मदद करता है। जबलपुर मे नर्मदा मैया को भी ऐसी ही भूमिका मे मैने देखा है। वहाँ भी तट पर नये पौधे और पुराने वृक्ष दिख जाते है। इंटरनेट पर स्टरकुलिया यूरेंस खोजने पर बहुत कम वेबसाइट मिलती है। इस पर ज्यादा शोध नही हुये है। मेरे मन मे योजना बन रही है कि मै देश भर के कुल्लु वृक्षो की तस्वीरे एक स्थान पर लाने के उद्देश्य से एक वेबसाइट बनाऊँ। इस वेबसाइट मे इस वृक्ष से सम्बन्धित सभी जानकारियो को प्रस्तुत करुँ ताकि नयी पीढी माँ प्रकृति के इस अनुपम उपहार को बचाने के लिये सामने आ सके।
कुल्लु की तरह ही सलिहा के वृक्ष भी संकट मे है। रास्ते मे हम उस स्थान पर रुके जहाँ एक समय सलिहा का जंगल हुआ करता था। इसकी गोन्द के औषधीय उपयोग है। बडी व्यवसायिक माँग भी है। यही कारण है कि सलिहा का यह जंगल देखते ही देखते खत्म हो गया। अब इसके गिने-चुने वृक्ष बचे है। जब भी इस रास्ते से गुजरता हूँ तो उनसे हाल-चाल पूछ लेता हूँ। इस बार जब हम वहाँ पहुँचे तो बहुत से वृक्ष लहूलुहान थे। उनके चोटिल भागो से पतली गोन्द बह रही थी। गोन्द का मुख्य हिस्सा एकत्र करके लोग जा चुके थे। इस बेहरमी से चोट की गयी थी कि बहुत से वृक्षो का बचना मुश्किल दिख रहा था। यह तो मेरा सौभाग्य था कि पारम्परिक चिकित्सक मेरे साथ थे। उन्होने पहले जख्मो पर हाथ रखा और फिर पास से सेन्हा नामक वृक्ष की पत्तियाँ ले आये। उन्होने इसमे पास की गीली मिट्टी मिलायी और एक लेप तैयार किया। फिर यह लेप वृक्ष के जख्मो मे लगा दिया। उन्होने लहा कि एक सप्ताह तक यदि यह लेप ऐसे ही लगा रहा तो वृक्ष बच जायेंगे। हम तो वहाँ रुककर पहरेदारी नही करने वाले थे। गोन्द एकत्र करने वालो का क्या भरोसा? दिल्ली से एक फोन आया नही कि स्थानीय व्यापारी उन्हे जंगल से गोन्द एकत्र करने दौडा देंगे और जख्म के ऊपर कई और जख्म हो जायेंगे। मुझे बहुत से धराशायी वृक्ष भी दिखे। मैने इसे लकडी माफिया की करतूत माना पर पारम्परिक चिकित्सको ने बताया कि मानसून मे देरी के कारण जो रोज गर्म हवाओ के तूफान चल रहे उससे ही ये वृक्ष गिरे है। इनके गिरने के बाद आस-पास के गाँव वाले इन्हे उठाने मे जरा भी देरी नही करते है। पारम्परिक चिकित्सको ने समझाया कि इन गिरे हुये वृक्षो पर बहुत से सूक्ष्मजीव अपना पोषण करते है। माँ प्रकृति ने इन्हे ऐसे ही नही गिराया है। पर जब गाँव वाले इन्हे ले जाते है तो सारे किये कराये पर पानी फिर जाता है। जंगल मे जो कुछ भी होता है अपने आप, उसके पीछे कुछ न कुछ उद्देश्य अवश्य होता है।
पास के कस्बे मे हमे व्यापारियो के पास बडी मात्रा मे कुल्लु और सलिहा की गोन्द होने का अनुमान था। कस्बे मे पहुँचने के बाद हमने गाडी दुकान के काफी पहले रोक दी। फिर एक पारम्परिक चिकित्सक को गोन्द के बारे मे पता करने भेजा। व्यापारियो ने कह दिया कि यह गोन्द अभी स्टाक मे नही है। फिर ड्रायवर को भेजा। उसने प्रभावी ढंग से बात की और बडी मात्रा मे खरीदने का प्रलोभन दिया तब कुछ व्यापारियो ने बताया कि बाहर के व्यापारियो के लिये इन गोन्द को एकत्र करवाया गया है। उन्होने कहा कि अभी तो हम इसे नही बेच सकते है पर आप सौदा करो तो तीन दिन के भीतर हम इतना ही माल दे सकते है। निश्चित ही व्यापारियो के हौसले बुलन्द थे।
हम वापस उसी रास्ते से लौटे। तब तक तांत्रिक का डेरा उठ चुका था। अभी तो कुल्लु वृक्ष पर से संकट टल गया था पर हमे इस बात का अहसास है कि हमे आजीवन गश्त पर आते रहना होगा। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
- पंकज अवधिया
समस्त दुखो को हरने वाली माला और जख्मी वृक्षो की मरहम-पट्टी
“अब हाथ मे एक हजार एक की दक्षिणा रखे और इस सारे दुख को हरने वाली माला को प्राप्त करे।“ इस जंगल यात्रा के दौरान मैने सडक के किनारे हाल ही मे बने एक डेरे पर अपनी गाडी रुकवायी। बाहर से ही यह साफ झलक रखा था कि यह किसी तांत्रिक का डेरा है। रंग-बिरंगे झंडे लगे थे। आस-पास के गाँवो से बडी संख्या मे लोग जमा थे। मेरे साथ स्थानीय पारम्परिक चिकित्सक थे इसलिये मुझे सीधे ही तांत्रिक से मिलने का अवसर मिल गया। मेरे अन्दर प्रवेश करते ही वो जोर से चिल्लाया कि तू बहुत दुखी है इसलिये मेरे दर पर आया। तेरे लिये यह माला और यह शिव पत्र उपयुक्त रहेगा। किसी वृक्ष के जडो से बनी ताजी माला मुझे दे दी गयी। मै जडो को पहचान नही पाया। फिर एक पत्ती मुझे दी गयी जिसमे महामृत्युंजय मंत्र लिखा हुआ था। इस ताजी पत्ती को घर के द्वार मे रखने की बात कही गयी और दावा किया गया कि इससे सारे दुख द्वार से ही उल्टे पैर वापस चले जायेंगे। पत्ती को देखकर मै झट से पहचान गया कि यह तो कुल्लु की ताजी पत्तियाँ है।
कुछ दिनो पहले ही मैने कुल्लु की नयी पत्तियो से युक्त वृक्ष देखे थे और जंगल मे उनकी तस्वीरे ली थी। धार्मिक प्रयोजनो के लिये कुल्लु का प्रयोग मेरे लिये नयी बात थी। पारम्परिक चिकित्सको ने कान मे फुसफुसाकर कहा कि यह जडो की माला भी कुल्लु से ही बनी है। मेरे आश्चर्य और क्रोध का ठिकाना नही रहा। आश्चर्य इसलिये क्योकि मैने ऐसी माला पहली बार देखी थी। और क्रोध इसलिये क्योकि जडो का एकत्रण यानि वृक्ष का सर्वनाश। इस पत्ती और जड के एकत्रण से इस क्षेत्र के कुल्लु के वृक्ष तेजी से खत्म हो रहे होंगे। मै झट से वहाँ से उठा और तेजी से डेरे के बाहर आ गया। पारम्परिक चिकित्सको ने तांत्रिक से बात की और बाहर आ गये। बिना विलम्ब हमने पास के जंगल की ओर कूच कर दिया।
जंगल की पथरीली जमीन पर हमे एक घायल कुल्लु का वृक्ष मिला। सम्भवत: तांत्रिक के चेले तो यह दुष्कृत्य किया होगा। इस समय सब सभी कुल्लु के वृक्ष नयी पत्तियो से लदे है ऐसे मे यह वृक्ष पत्ती विहीन था। यानि इससे पत्तियाँ एकत्र की गयी थी। काफी खोजबीन के बाद कुछ और वृक्ष दिखे। उनकी हालत भी बिगडी हुयी थी। जडो के लिये आस-पास की मिट्टी मे खुदायी के ताजे निशान थे। सारी तस्वीरे लेने के बाद हम उल्टे पैर डेरे पर पहुँचे और कडे शब्दो मे तांत्रिक को हडकाया। वह तांत्रिक बाहर से आया था। उसे तो बस ऐसी किसी वनस्पति का अनूठा प्रयोग बताना था जिसके बारे मे आम लोग कुछ नही जानते थे। उसके सामने कुल्लु का वृक्ष पडा तो वह उसी की जड और पत्तियो के पीछे लग गया। मैने उसे समझाने की कोशिश की तो पहले जंगल मे कुल्लु के असंख्य वृक्ष थे पर आज गिने-चुने ही बचे है। आज भी गोन्द की तलाश मे लोग टंगिया लेकर कुल्लु को घायल करने घूम रहे है। पारम्परिक चिकित्सको ने बडी मुश्किल से इन्हे बचाये रखा है। ऐसे मे इसकी जड की माला और पत्तियो का नया प्रयोग इसे हमेशा के लिये समाप्त कर देगा। “अभी से यह गोरखधन्धा बन्द होना चाहिये।“ तांत्रिक को आखिरी चेतावनी दे दी गयी। हमारी बातो का गाँव वालो पर भी असर पडा था। उन्होने भी डेरा उठाने के लिये जोर डाला। हमे आगे बढ गये।
जंगल मे हमे सूखे झरनो के किनारे बहुत से कुल्लु के नये पौधे मिले। नये पौधो को देखकर उम्मीद की कुछ किरण जागी। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको ने बताया कि बहता पानी कुल्लु के बीजो को दूर-दूर तक फैलाने मे मदद करता है। जबलपुर मे नर्मदा मैया को भी ऐसी ही भूमिका मे मैने देखा है। वहाँ भी तट पर नये पौधे और पुराने वृक्ष दिख जाते है। इंटरनेट पर स्टरकुलिया यूरेंस खोजने पर बहुत कम वेबसाइट मिलती है। इस पर ज्यादा शोध नही हुये है। मेरे मन मे योजना बन रही है कि मै देश भर के कुल्लु वृक्षो की तस्वीरे एक स्थान पर लाने के उद्देश्य से एक वेबसाइट बनाऊँ। इस वेबसाइट मे इस वृक्ष से सम्बन्धित सभी जानकारियो को प्रस्तुत करुँ ताकि नयी पीढी माँ प्रकृति के इस अनुपम उपहार को बचाने के लिये सामने आ सके।
कुल्लु की तरह ही सलिहा के वृक्ष भी संकट मे है। रास्ते मे हम उस स्थान पर रुके जहाँ एक समय सलिहा का जंगल हुआ करता था। इसकी गोन्द के औषधीय उपयोग है। बडी व्यवसायिक माँग भी है। यही कारण है कि सलिहा का यह जंगल देखते ही देखते खत्म हो गया। अब इसके गिने-चुने वृक्ष बचे है। जब भी इस रास्ते से गुजरता हूँ तो उनसे हाल-चाल पूछ लेता हूँ। इस बार जब हम वहाँ पहुँचे तो बहुत से वृक्ष लहूलुहान थे। उनके चोटिल भागो से पतली गोन्द बह रही थी। गोन्द का मुख्य हिस्सा एकत्र करके लोग जा चुके थे। इस बेहरमी से चोट की गयी थी कि बहुत से वृक्षो का बचना मुश्किल दिख रहा था। यह तो मेरा सौभाग्य था कि पारम्परिक चिकित्सक मेरे साथ थे। उन्होने पहले जख्मो पर हाथ रखा और फिर पास से सेन्हा नामक वृक्ष की पत्तियाँ ले आये। उन्होने इसमे पास की गीली मिट्टी मिलायी और एक लेप तैयार किया। फिर यह लेप वृक्ष के जख्मो मे लगा दिया। उन्होने लहा कि एक सप्ताह तक यदि यह लेप ऐसे ही लगा रहा तो वृक्ष बच जायेंगे। हम तो वहाँ रुककर पहरेदारी नही करने वाले थे। गोन्द एकत्र करने वालो का क्या भरोसा? दिल्ली से एक फोन आया नही कि स्थानीय व्यापारी उन्हे जंगल से गोन्द एकत्र करने दौडा देंगे और जख्म के ऊपर कई और जख्म हो जायेंगे। मुझे बहुत से धराशायी वृक्ष भी दिखे। मैने इसे लकडी माफिया की करतूत माना पर पारम्परिक चिकित्सको ने बताया कि मानसून मे देरी के कारण जो रोज गर्म हवाओ के तूफान चल रहे उससे ही ये वृक्ष गिरे है। इनके गिरने के बाद आस-पास के गाँव वाले इन्हे उठाने मे जरा भी देरी नही करते है। पारम्परिक चिकित्सको ने समझाया कि इन गिरे हुये वृक्षो पर बहुत से सूक्ष्मजीव अपना पोषण करते है। माँ प्रकृति ने इन्हे ऐसे ही नही गिराया है। पर जब गाँव वाले इन्हे ले जाते है तो सारे किये कराये पर पानी फिर जाता है। जंगल मे जो कुछ भी होता है अपने आप, उसके पीछे कुछ न कुछ उद्देश्य अवश्य होता है।
पास के कस्बे मे हमे व्यापारियो के पास बडी मात्रा मे कुल्लु और सलिहा की गोन्द होने का अनुमान था। कस्बे मे पहुँचने के बाद हमने गाडी दुकान के काफी पहले रोक दी। फिर एक पारम्परिक चिकित्सक को गोन्द के बारे मे पता करने भेजा। व्यापारियो ने कह दिया कि यह गोन्द अभी स्टाक मे नही है। फिर ड्रायवर को भेजा। उसने प्रभावी ढंग से बात की और बडी मात्रा मे खरीदने का प्रलोभन दिया तब कुछ व्यापारियो ने बताया कि बाहर के व्यापारियो के लिये इन गोन्द को एकत्र करवाया गया है। उन्होने कहा कि अभी तो हम इसे नही बेच सकते है पर आप सौदा करो तो तीन दिन के भीतर हम इतना ही माल दे सकते है। निश्चित ही व्यापारियो के हौसले बुलन्द थे।
हम वापस उसी रास्ते से लौटे। तब तक तांत्रिक का डेरा उठ चुका था। अभी तो कुल्लु वृक्ष पर से संकट टल गया था पर हमे इस बात का अहसास है कि हमे आजीवन गश्त पर आते रहना होगा। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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Comments
आप नए जमाने के 'ऋषि' हैं। मुंशी रचित 'महामुनि वेदव्यास' में अथर्वण परम्परा द्वारा वनस्पतियों के प्रयोग का चित्रण याद आ गया।
लगे रहिए। आप जैसे बहुत कम लोग हैं।