अच्छे-बुरे भालू, लिंग से बना कामोत्तेजक तेल और निराधार दावे
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-36
- पंकज अवधिया
अच्छे-बुरे भालू, लिंग से बना कामोत्तेजक तेल और निराधार दावे
क्या ऐसा हो सकता है कि अगल-बगल स्थित दो पहाडियो मे से एक मे अच्छे भालू रहे और दूसरे मे बुरे भालू? बुरे भालू यानि ऐसे भालू जो मनुष्यो पर आक्रमण करे और उनकी फसलो को बर्बाद कर दे और अच्छे भालू यानि ऐसे भालू जो मनुष्यो को देखते ही किनारे से निकल जाये। उनकी फसलो को कम नुकसान पहुँचाये। और तो और पाँचवी-छठवी क्लास के बच्चे उन्हे दौडा दे तिस पर भी वे कुछ न बोले। मै अपना प्रश्न फिर से दोहराता हूँ। आपको शायद यकीन न हो पर यह एकदम सत्य है। आज यानि रविवार का दिन इन्ही अच्छे-बुरे भालूओ के साथ बिता कर कुछ समय पहले लौटा हूँ।
आज जंगल यात्रा मे निकलने के समय भालू से दिन भर मिलना-जुलना होगा इसकी मैने कल्पना भी नही की थी। आज एक पारम्परिक चिकित्सक के पास जाना था और फिर एक सर्प विशेषज्ञ से मुलाकात करने की योजना थी। सर्प विशेषज्ञ हरेली यानि 22 जुलाई को अपने चेलो को दीक्षा देने वाले है। इसके लिये उन्होने मुझे विशेष तौर पर आमंत्रित किया है। मै साजो-सामान के साथ उस दिन जाना चाहता हूँ। उनसे मिलकर पूरी योजना तैयार करने के उद्देश्य से मै निकला था।
जब मै उस क्षेत्र मे पहुँचा तो एक ऊँची पहाडी को देखकर गाडी उधर घुमा ली। पहाडी के नीचे पहुँचे तो साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सक ने कहा कि इस पहाडी पर बहुत से भालू है। यदि आप इन्हे देखना चाहे तो यहाँ खुले मे शाम को चार से पाँच के बीच बैठ जाये। भालू पहाडी से उतरेंगे और अपने रास्ते चले जायेंगे। क्या वे हम पर आक्रमण नही करेंगे? यह प्रश्न करने पर उन्होने कहा कि इस गाँव के लोग भालुओ को सम्मान देते है। पहाड पर गाँव वालो के जलको देवता है। उनके भक्त होने के कारण इस पहाडी के भालू गाँव वालो को नही सताते है। उन्होने इस पहाडी का नाम जलको पाट बताया। मुझे बडा आश्चर्य हुआ। हालाँकि यह बात मेरे लिये नयी नही थी क्योकि इस क्षेत्र मे मैने अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय बिताया है। पर मेरी रुचि वनस्पतियो मे ज्यादा रही है, वन्य जीवो मे जरा कम। भालू के बारे मे इतनी दिलचस्प बाते सुनने के बाद मैने सारे कार्यक्रम रद्द कर इसी विषय़ पर ध्यान केन्द्रित करना चाहा।
हम कोटनपाली और विराजपाली नामक दो गाँव पहुँचे और वहाँ के लोगो से बातचीत की। इन गाँवो से थोडी दूरी पर एक और पहाड है जिसे लमकेनी कहा जाता है। इसे पर्रा पाट भी कहा जाता है। यहाँ के भालू बडे ही खूँखार है। गाँव वालो ने बताया कि एक बार गाँव के एक घर मे मेहमान आये। मेहमान और मेजबान खलिहान की घेराबन्दी करने काँटे वाली शाखाए लेने के लिये पर्रा पाट मे चढे। एक भालू ने मेजबान पर आक्रमण कर दिया। मेहमान के पास टंगिया थी। उसने बिना किसी देर और संकोच के भालू पर हमला कर दिया। भालू ने मेजबान को छोडकर मेहमान पर आक्रमण कर दिया। इतना जबरदस्त आक्रमण की मेहमान की अंगुलियाँ ही मिल पायी। सारा शरीर क्षत-विक्षत हो गया। यह गाँव वालो के लिये शर्मिन्दगी की बात थी। वे मेहमान की रक्षा नही कर पाये। आज भी जिस स्थान पर मेहमान की मौत हुयी थी वहाँ एक स्मारक बना हुआ है। इस घटना ने भालू और गाँव वालो को एक-दूसरे का जानी दुश्मन बना दिया।
लमकेनी और जलको पाट इतने करीब है और फिर भी इनमे बसने वाले भालुओ के व्यवहार मे जबरदस्त अंतर है। गाँव वाले बताते है कि लमकेनी के बुरे भालू यदि गल्ती से जलको पाट मे आ जाते है तो अच्छे भालू उन्हे खदेडने मे जरा भी देर नही लगाते है। यह अपने आप मे एक अनोखी बात है। अच्छे भालू दीमको के शौकीन है। उनका यह शौक किसानो को मदद करता है। उनकी फसल दीमको से बची रहती है। अच्छे भालू जिस पहाडी पर रहते है वहाँ बडे-बडे खोह है। पहाडी पर बहुत कम वृक्ष बचे है। पहाडी पर तीखी ढलाने है। इनमे मनुष्य़ शायद ही तेजी से चढ पाये पर भालुओ के लिये यह बाये हाथ का खेल है। वे रोज शाम को पहाडी से उतरते है और अल सुबह वापस लौट जाते है। आज शाम को हमे बडी संख्या मे भालुओ को देखने के लिये आमंत्रित किया गया तो हम सहर्ष तैयार हो गये।
आज रविवार था इसलिये इस पहाडी के आस-पास सन्नाटा पसरा हुआ था। सप्ताह के शेष दिन यहाँ ह्जारो की संख्या मे लोग काम करते है। यह काम है पत्थर तोडने का। गाँव के बुजुर्ग बताते है कि पिछले एक दशक मे पत्थर खदान के कारण इस पहाडी का आधा भाग साफ हो चुका है। यदि यही गति रही तो आगामी दस-पन्द्रह वर्षो मे यह पहाडी पूरी तरह से गायब हो जायेगी। बारुद से चट्टानो को तोडा जाता है और फिर ट्रको मे लादकर तेजी से बढते महानगरो मे पहुँचा दिया जाता है। साल भर यहाँ काम चलता रहता है। केवल बरसात मे खदान मे पानी भरने के कारण काम बन्द रहता है। इस समय गाँव वाले खेती करते है। इस खदान ने गाँव वालो के जीवन मे सुख भर दिया है पर भालू का आवास लगातार छोटा होता जा रहा है। पहले जंगल उनका था जहाँ वे घूमते थे और पहाड भी उनका था जहाँ वे रहते थे। अब जंगल बचे नही है और पहाड भी सिमट रहा है, ऐसे मे वे कितने दिन तक बच पायेंगे, यह कहना मुश्किल है। दुर्भाग्य से यह सब अच्छे भालुओ के साथ हो रहा है। बुरे भालू के पहाड मे खदान नही है। वे मजे से वहाँ जीवन व्यतीत कर रहे है।
मैने मन मे भय लिये गाँव वालो से पूछा कि भालू देवता स्वरुप माने जाते है फिर भी आप खनन से पहाडी को खत्म कर भालुओ का आवास खत्म कर रहे है? इस पर वे नाराज नही हुये। उन्होने कहा कि देव स्थान वाला भाग खनन से मुक्त है। वहाँ लम्बे समय तक भालू मजे से रह सकते है। हाँ, पहाडी के कटने से उनका घूमना-फिरना बन्द हो जायेगा पर यह हमारे पेट से जुडा है। पहले पेट भगवान और फिर दूसरे भगवान। यह कडवा सत्य दिल दहलाने वाला है।
दिन भर काम निपटाकर हम देर शाम कोटनपाली गाँव पहुँच पाये। बिसत नामक स्थानीय व्यक्ति ने हमारे साथ चलने मे रुचि दिखायी। उन्होने अपने चार-पाँच साल के बच्चे को भी साथ रख लिया। उन्होने सुझाव दिया कि यहाँ से भालू दर्शन ठीक नही रहेगा। आप हिम्मत दिखाये तो पहाडी के दूसरी तरफ चलते है। हमारी छोटी गाडी चली जायेगी, यह सुनकर हम बिना देरी के उस ओर चल पडे। काफी देर चलने के बाद हम पहाडी के आधार तक पहुँच गये। गाडी किनारे मे खडी की और ताकने लगे ढलानो को ताकि भालू दिख जाये। भालू कितने भी अच्छे बताये जाये पर हमारी इच्छा गाडी से बाहर निकलने की नही थी। बिसत अपने बच्चे को कन्धे मे बिठाकर ढलान की ओर चल पडे। हम उनकी हिम्म्त के कायल हो गये। कुछ देर बाद वे वापस आये तो उनके पीछे थोडी दूरी पर दो भालू ढलान से उतर रहे थे। उन्हे बिसत की फिक्र नही थी। नीचे उतर कर वे हमारी कार से सट कर निकल गये। हमे बताया गया कि अभी दसो भालू और दिखेगे। इस बीच बारिश होने लगी तो बिसत भी गाडी के अन्दर आ गये।
उन्होने बताया कि जिन इलाको मे बुरे भालू रहते है वहाँ लोग कानून को ताक मे रखकर भालुओ को मारकर खा जाते है। क्या भालू के अंगो का व्यापार भी यहाँ होता है? मेरे इस प्रश्न पर उन्होने “हाँ” मे जवाब दिया। यहाँ भी व्यापारी भालू के लिंग की प्राप्ति के लिये उनकी हत्या कर देते है। मैने अपने लेखो मे पहले लिखा है कि भालू के लिंग का तेल कामोत्तेजक के रुप मे बिकता है। बिसत ने बताया कि यहाँ लिंग के प्रयोग की दूसरी विधि लोकप्रिय है। व्यापारी दावा करते है कि लिंग की सब्जी बनाकर खाने से कामोत्तेजना बढती है। बिसत ने आँखो मे क्रोध भरते हुए कहा कि लिंग की सब्जी खाओ या तेल लगाओ पर जैसा दावा किया जाता है वैसा लाभ नही होता है। बेवजह ही भालू देवता मारे जाते है। भालू की काम शक्ति प्रबल होती है- यह सच है पर यह कौन सी बात हुयी कि उसके लिंग का इस तरह उपयोग किया जाये? मुझे बिसत की बात सही लगी। अब आप ही सोचिये यदि इंसानो की बढती आबादी को देखकर, वन्य जीव खुद अपनी आबादी बढाने की सोच ले और इसके लिये इंसानो की इस शक्ति का राज लिंग मान ले तो सारी मानव आबादी खतरे मे पड जायेगी।
दो भालुओ के निकलने के काफी देर तक दूसरे भालू नही दिखे। मैने हिम्मत करके बिसत के साथ आस-पास के क्षेत्र का मुआयना किया। भालू कन्द-मूलो को बहुत पसन्द करते है। अल्प समय मे ही मैने 33 किस्म के कन्द एकत्र किये। इनमे से ज्यादातर कन्द ऐसे थे जो भालू की अपार शक्ति के लिये उत्तरदायी थे। पारम्परिक चिकित्सक ने इसकी पुष्टि की। मैने इन कन्दो की तस्वीरे ली और फिर हम वापस लौट आये। इस बीच बारिश तेज हो गयी। हमे मिट्टी के गीले होने का डर था। गाडी के फँसने पर हम शायद ही निकल पाते। और अच्छे भालू इतने भी अच्छे नही थे कि वे मिलकर गाडी को धक्का देते इसलिये हमने वापसी की राह पकड ली। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
- पंकज अवधिया
अच्छे-बुरे भालू, लिंग से बना कामोत्तेजक तेल और निराधार दावे
क्या ऐसा हो सकता है कि अगल-बगल स्थित दो पहाडियो मे से एक मे अच्छे भालू रहे और दूसरे मे बुरे भालू? बुरे भालू यानि ऐसे भालू जो मनुष्यो पर आक्रमण करे और उनकी फसलो को बर्बाद कर दे और अच्छे भालू यानि ऐसे भालू जो मनुष्यो को देखते ही किनारे से निकल जाये। उनकी फसलो को कम नुकसान पहुँचाये। और तो और पाँचवी-छठवी क्लास के बच्चे उन्हे दौडा दे तिस पर भी वे कुछ न बोले। मै अपना प्रश्न फिर से दोहराता हूँ। आपको शायद यकीन न हो पर यह एकदम सत्य है। आज यानि रविवार का दिन इन्ही अच्छे-बुरे भालूओ के साथ बिता कर कुछ समय पहले लौटा हूँ।
आज जंगल यात्रा मे निकलने के समय भालू से दिन भर मिलना-जुलना होगा इसकी मैने कल्पना भी नही की थी। आज एक पारम्परिक चिकित्सक के पास जाना था और फिर एक सर्प विशेषज्ञ से मुलाकात करने की योजना थी। सर्प विशेषज्ञ हरेली यानि 22 जुलाई को अपने चेलो को दीक्षा देने वाले है। इसके लिये उन्होने मुझे विशेष तौर पर आमंत्रित किया है। मै साजो-सामान के साथ उस दिन जाना चाहता हूँ। उनसे मिलकर पूरी योजना तैयार करने के उद्देश्य से मै निकला था।
जब मै उस क्षेत्र मे पहुँचा तो एक ऊँची पहाडी को देखकर गाडी उधर घुमा ली। पहाडी के नीचे पहुँचे तो साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सक ने कहा कि इस पहाडी पर बहुत से भालू है। यदि आप इन्हे देखना चाहे तो यहाँ खुले मे शाम को चार से पाँच के बीच बैठ जाये। भालू पहाडी से उतरेंगे और अपने रास्ते चले जायेंगे। क्या वे हम पर आक्रमण नही करेंगे? यह प्रश्न करने पर उन्होने कहा कि इस गाँव के लोग भालुओ को सम्मान देते है। पहाड पर गाँव वालो के जलको देवता है। उनके भक्त होने के कारण इस पहाडी के भालू गाँव वालो को नही सताते है। उन्होने इस पहाडी का नाम जलको पाट बताया। मुझे बडा आश्चर्य हुआ। हालाँकि यह बात मेरे लिये नयी नही थी क्योकि इस क्षेत्र मे मैने अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय बिताया है। पर मेरी रुचि वनस्पतियो मे ज्यादा रही है, वन्य जीवो मे जरा कम। भालू के बारे मे इतनी दिलचस्प बाते सुनने के बाद मैने सारे कार्यक्रम रद्द कर इसी विषय़ पर ध्यान केन्द्रित करना चाहा।
हम कोटनपाली और विराजपाली नामक दो गाँव पहुँचे और वहाँ के लोगो से बातचीत की। इन गाँवो से थोडी दूरी पर एक और पहाड है जिसे लमकेनी कहा जाता है। इसे पर्रा पाट भी कहा जाता है। यहाँ के भालू बडे ही खूँखार है। गाँव वालो ने बताया कि एक बार गाँव के एक घर मे मेहमान आये। मेहमान और मेजबान खलिहान की घेराबन्दी करने काँटे वाली शाखाए लेने के लिये पर्रा पाट मे चढे। एक भालू ने मेजबान पर आक्रमण कर दिया। मेहमान के पास टंगिया थी। उसने बिना किसी देर और संकोच के भालू पर हमला कर दिया। भालू ने मेजबान को छोडकर मेहमान पर आक्रमण कर दिया। इतना जबरदस्त आक्रमण की मेहमान की अंगुलियाँ ही मिल पायी। सारा शरीर क्षत-विक्षत हो गया। यह गाँव वालो के लिये शर्मिन्दगी की बात थी। वे मेहमान की रक्षा नही कर पाये। आज भी जिस स्थान पर मेहमान की मौत हुयी थी वहाँ एक स्मारक बना हुआ है। इस घटना ने भालू और गाँव वालो को एक-दूसरे का जानी दुश्मन बना दिया।
लमकेनी और जलको पाट इतने करीब है और फिर भी इनमे बसने वाले भालुओ के व्यवहार मे जबरदस्त अंतर है। गाँव वाले बताते है कि लमकेनी के बुरे भालू यदि गल्ती से जलको पाट मे आ जाते है तो अच्छे भालू उन्हे खदेडने मे जरा भी देर नही लगाते है। यह अपने आप मे एक अनोखी बात है। अच्छे भालू दीमको के शौकीन है। उनका यह शौक किसानो को मदद करता है। उनकी फसल दीमको से बची रहती है। अच्छे भालू जिस पहाडी पर रहते है वहाँ बडे-बडे खोह है। पहाडी पर बहुत कम वृक्ष बचे है। पहाडी पर तीखी ढलाने है। इनमे मनुष्य़ शायद ही तेजी से चढ पाये पर भालुओ के लिये यह बाये हाथ का खेल है। वे रोज शाम को पहाडी से उतरते है और अल सुबह वापस लौट जाते है। आज शाम को हमे बडी संख्या मे भालुओ को देखने के लिये आमंत्रित किया गया तो हम सहर्ष तैयार हो गये।
आज रविवार था इसलिये इस पहाडी के आस-पास सन्नाटा पसरा हुआ था। सप्ताह के शेष दिन यहाँ ह्जारो की संख्या मे लोग काम करते है। यह काम है पत्थर तोडने का। गाँव के बुजुर्ग बताते है कि पिछले एक दशक मे पत्थर खदान के कारण इस पहाडी का आधा भाग साफ हो चुका है। यदि यही गति रही तो आगामी दस-पन्द्रह वर्षो मे यह पहाडी पूरी तरह से गायब हो जायेगी। बारुद से चट्टानो को तोडा जाता है और फिर ट्रको मे लादकर तेजी से बढते महानगरो मे पहुँचा दिया जाता है। साल भर यहाँ काम चलता रहता है। केवल बरसात मे खदान मे पानी भरने के कारण काम बन्द रहता है। इस समय गाँव वाले खेती करते है। इस खदान ने गाँव वालो के जीवन मे सुख भर दिया है पर भालू का आवास लगातार छोटा होता जा रहा है। पहले जंगल उनका था जहाँ वे घूमते थे और पहाड भी उनका था जहाँ वे रहते थे। अब जंगल बचे नही है और पहाड भी सिमट रहा है, ऐसे मे वे कितने दिन तक बच पायेंगे, यह कहना मुश्किल है। दुर्भाग्य से यह सब अच्छे भालुओ के साथ हो रहा है। बुरे भालू के पहाड मे खदान नही है। वे मजे से वहाँ जीवन व्यतीत कर रहे है।
मैने मन मे भय लिये गाँव वालो से पूछा कि भालू देवता स्वरुप माने जाते है फिर भी आप खनन से पहाडी को खत्म कर भालुओ का आवास खत्म कर रहे है? इस पर वे नाराज नही हुये। उन्होने कहा कि देव स्थान वाला भाग खनन से मुक्त है। वहाँ लम्बे समय तक भालू मजे से रह सकते है। हाँ, पहाडी के कटने से उनका घूमना-फिरना बन्द हो जायेगा पर यह हमारे पेट से जुडा है। पहले पेट भगवान और फिर दूसरे भगवान। यह कडवा सत्य दिल दहलाने वाला है।
दिन भर काम निपटाकर हम देर शाम कोटनपाली गाँव पहुँच पाये। बिसत नामक स्थानीय व्यक्ति ने हमारे साथ चलने मे रुचि दिखायी। उन्होने अपने चार-पाँच साल के बच्चे को भी साथ रख लिया। उन्होने सुझाव दिया कि यहाँ से भालू दर्शन ठीक नही रहेगा। आप हिम्मत दिखाये तो पहाडी के दूसरी तरफ चलते है। हमारी छोटी गाडी चली जायेगी, यह सुनकर हम बिना देरी के उस ओर चल पडे। काफी देर चलने के बाद हम पहाडी के आधार तक पहुँच गये। गाडी किनारे मे खडी की और ताकने लगे ढलानो को ताकि भालू दिख जाये। भालू कितने भी अच्छे बताये जाये पर हमारी इच्छा गाडी से बाहर निकलने की नही थी। बिसत अपने बच्चे को कन्धे मे बिठाकर ढलान की ओर चल पडे। हम उनकी हिम्म्त के कायल हो गये। कुछ देर बाद वे वापस आये तो उनके पीछे थोडी दूरी पर दो भालू ढलान से उतर रहे थे। उन्हे बिसत की फिक्र नही थी। नीचे उतर कर वे हमारी कार से सट कर निकल गये। हमे बताया गया कि अभी दसो भालू और दिखेगे। इस बीच बारिश होने लगी तो बिसत भी गाडी के अन्दर आ गये।
उन्होने बताया कि जिन इलाको मे बुरे भालू रहते है वहाँ लोग कानून को ताक मे रखकर भालुओ को मारकर खा जाते है। क्या भालू के अंगो का व्यापार भी यहाँ होता है? मेरे इस प्रश्न पर उन्होने “हाँ” मे जवाब दिया। यहाँ भी व्यापारी भालू के लिंग की प्राप्ति के लिये उनकी हत्या कर देते है। मैने अपने लेखो मे पहले लिखा है कि भालू के लिंग का तेल कामोत्तेजक के रुप मे बिकता है। बिसत ने बताया कि यहाँ लिंग के प्रयोग की दूसरी विधि लोकप्रिय है। व्यापारी दावा करते है कि लिंग की सब्जी बनाकर खाने से कामोत्तेजना बढती है। बिसत ने आँखो मे क्रोध भरते हुए कहा कि लिंग की सब्जी खाओ या तेल लगाओ पर जैसा दावा किया जाता है वैसा लाभ नही होता है। बेवजह ही भालू देवता मारे जाते है। भालू की काम शक्ति प्रबल होती है- यह सच है पर यह कौन सी बात हुयी कि उसके लिंग का इस तरह उपयोग किया जाये? मुझे बिसत की बात सही लगी। अब आप ही सोचिये यदि इंसानो की बढती आबादी को देखकर, वन्य जीव खुद अपनी आबादी बढाने की सोच ले और इसके लिये इंसानो की इस शक्ति का राज लिंग मान ले तो सारी मानव आबादी खतरे मे पड जायेगी।
दो भालुओ के निकलने के काफी देर तक दूसरे भालू नही दिखे। मैने हिम्मत करके बिसत के साथ आस-पास के क्षेत्र का मुआयना किया। भालू कन्द-मूलो को बहुत पसन्द करते है। अल्प समय मे ही मैने 33 किस्म के कन्द एकत्र किये। इनमे से ज्यादातर कन्द ऐसे थे जो भालू की अपार शक्ति के लिये उत्तरदायी थे। पारम्परिक चिकित्सक ने इसकी पुष्टि की। मैने इन कन्दो की तस्वीरे ली और फिर हम वापस लौट आये। इस बीच बारिश तेज हो गयी। हमे मिट्टी के गीले होने का डर था। गाडी के फँसने पर हम शायद ही निकल पाते। और अच्छे भालू इतने भी अच्छे नही थे कि वे मिलकर गाडी को धक्का देते इसलिये हमने वापसी की राह पकड ली। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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