रीठा की घटती संख्या, सरल प्रयोग और ग्रामीणो की शपथ

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-46
- पंकज अवधिया

रीठा की घटती संख्या, सरल प्रयोग और ग्रामीणो की शपथ


“हमारे यहाँ पीढीयो से मिठाई का कारोबार है। मिठाई वाले के घर मे रीठा का होना जरुरी है। बताशे तो रीठा के बिना बनाये ही नही जा सकते। यह मैल को साफ करता है। मैने यह धन्धा छोड दिया है। अब खेती पर ही पूरा ध्यान है। पहले रीठा के बहुत से वृक्ष जंगल और गाँव मे थे पर अब इसका उपयोग कम होने से केवल यही वृक्ष बचा है, वह भी आँधी-तूफान की मार से आधे से टूट गया है।“ एक ग्रामीण अधेड मुझे जंगली क्षेत्र का एकमात्र रीठा वृक्ष दिखाते हुये यह कह रहे थे। उन्हे भी आश्चर्य हो रहा था कि कहाँ शहरी बाबू इतनी दूर उनके घर मे आ गये, वह भी बिन बताये। मुझे रीठा की तस्वीरे लेती देख भीड एकत्र हो गयी। इस बीच रीठा के फल ले आये गये और जब तक मै अपना काम खत्म करता तब तक कई हाथ पानी मे रीठा को मलकर झाग बना चुके थे। वे चाहते थे कि मै झागयुक्त हाथो की तस्वीरे लूँ। मैने उन्हे निराश नही किया। भीड मे कुछ बच्चे भी थे जिन्हे रीठा के बारे मे ज्यादा कुछ मालूम नही था। वे बाल धोने के साबुन का प्रयोग करते थे पर यह उन्हे नही मालूम था कि उस साबुन मे उपस्थित रीठा उनके घर के पिछवाडे मे ही उग रहा है।

रीठा की माला अक्सर लोगो के गलो मे दिख जाती है। मान्यता है कि यह माला बुरी नजर से बचाती है। छत्तीसगढी गीतो मे रीठा का जिक्र बार-बार आता है। आज छत्तीसगढ मे रीठा के वृक्ष तेजी से कम होते जा रहे है। रायपुर के मिठाई निर्माता काफी हद तक दूसरे प्रदेशो से मंगाये गये रीठा पर निर्भर है। जब मैने पारम्परिक चिकित्सको से इस बारे मे पूछा तो उन्होने दो टूक कहा कि जंगल के लकडी माफिया को जो लकडी मिली उसे काट लेते है। उनके औषधीय महत्व से उन्हे कुछ लेना-देना नही है। मैने रीठा से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान पर काफी कुछ लिखा है।

“क्या अब यह इकलौता वृक्ष बचा रहेगा?” मैने इस वृक्ष के मालिक से पूछा। उन्होने कहा कि बिल्कुल बचा रहेगा, अब शहर के लोग इतनी दूर से आकर तस्वीरे ले रहे है तो इसे बचाना ही होगा। अब तो अगले साल से मै इसे फैलाऊँगा भी। मुझे यह सुनकर तसल्ली हुयी। मैने साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको से कहा कि इन्हे रीठा के कुछ असाधारण प्रयोग बता दे ताकि यह रीठा साल दर साल पूरे गाँव की मदद कर सके। पारम्परिक चिकित्सको ने दस आम रोगो मे रीठा के सरल प्रयोगो के विषय़ मे बता दिया। भीड ने हमे घेर लिया। उन्हे लगा कि हम उनके सारे रोगो की चिकित्सा कर सकते है।

गाँव मे बहुत से लोगो के पैरो मे सडन वाला रोग दिखा। वे कहने लगे कि उन्होने रायपुर जाकर हजारो फूँक दिये है पर कुछ समय तक दबा रहने के बाद यह रोग फिर उभर जाता है। यह सडन रोग इतना भयावह था कि दूर से तेज बदबू आ रही थी। यह खेतो मे लगातार काम करने की वजह से नही हुआ था। पानी से हुये जख्म को तो साधारण देशी नुस्खो से ठीक किया जा सकता है। साथ मे पारम्परिक चिकित्सक थे पर भीड मुझे ज्यादा बडा जानकार मान रही थी। हमने कोने मे जाकर इस बारे मे विचार-विमर्श करने का मन बनाया।

रायपुर के प्रसिद्ध होम्योपैथ डाँ बी.आर.गुहा के साथ अनुभव लेते वक्त मैने सैकडो ऐसे रोगियो को देखा था। गुहा जी कहते थे कि इन्हे एक दवा से ठीक किया जा सकता है पर ऐसा करने से रोग दूसरे रुप मे कही और से निकल जायेगा। दूसरा रास्ता है आराम से सही तरीके से रोग का जड से इलाज। पर दूसरे रास्ते के लिये रोगी तैयार नही होते थे। उन्हे जरा भी धैर्य नही होता था। एक-दो दिन मे लाभ नही दिखने पर वे दूसरे डाक्टर के पास चले जाते थे। गुहा जी सिद्धांतवादी थे। चाहे कुछ भी हो जाये वे दूसरा रास्ता ही चुनते थे। बाद मे देश भर के पारम्परिक चिकित्सको को भी मैने इस रोग की चिकित्सा करते देखा। ज्यादातर पारम्परिक चिकित्सक त्वचा रोगो के लिये बाहरी उपचार के साथ आँतरिक उपचार की पैरवी करते है। बल्कि आँतरिक उपचार को अधिक महत्व देते है। वे कहते है कि पहले रोगी से विस्तार से पूछ लो कि उसका खान-पान क्या है? यदि गौर किया जाये तो इस खान-पान मे ही ऐसी भोज्य सामग्री मिल जायेगी जो रोग को बनाये रखने मे सक्षम है। इस भोज्य सामग्री पर रोक लगा कर रोगी को काफी आराम पहुँचाया जा सकता है। फिर रोगी को रोगानुसार भोजन सामग्री सुझा दी जाये ताकि औषधीय मिश्रणो का लाभ अधिक से अधिक हो। पारम्परिक चिकित्सको के पास भी तुरंत आराम पहुँचाने वाली वनस्पतियाँ होती है पर वे इनका प्रयोग कम ही करते है।

इसी आधार पर इस जंगल यात्रा के दौरान मैने साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको से चर्चा की। वे नयी पीढी के पारम्परिक चिकित्सक थे। वे चाहते थे कि रीठा और हर्रा के हरे फलो के लेप से रोगी को तुरंत आराम पहुँचाया जाये। काफी चर्चा के बाद मैने उनकी बाते स्वीकार कर ली और हमने तय किया कि रोगियो को वनस्पतियो के विषय मे बिना बताये हम लेप का बाहरी उपयोग करेंगे और फिर उनके खान-पान मे सुधार का सुझाव देंगे। रोगियो की कतार लग गयी। लेप तैयार हो गया तो प्रयोग भी आरम्भ हो गया। बीस से अधिक रोगियो का उपचार किया गया। लेप लगाने के बाद वे मेरे पास आते और मै उनके खान-पान मे गडबडी की पडताल करता। तीन घंटे इसी सब मे व्यतीत हो गये। जब हम अपना काम पूरा करके गाडी की ओर बढे तो लोगो ने संकोच से पूछा कि पैसा नही लेंगे? मै तो पैसे लेने से रहा। पारम्परिक चिकित्सको ने भी मना कर दिया। हाँ, उन्होने ग्रामीणो से शपथ लेने को कहा कि वे रीठा का प्रसार करेंगे। ग्रामीणो ने एक स्वर मे इसे स्वीकार कर लिया।

तीन घंटे के इस विलम्ब से दिन भर का सारा कार्यक्रम गडबडा गया। जहाँ कही भी हम जडी-बूटी की बात करते है वहाँ रोगियो की लम्बी कतार लग जाती है। लो-प्रोफाइल चलने मे ही भलाई है पर ज्ञान की झलक तो लोगो को मिल ही जाती है। इतने सारे लोगो का दुख-दर्द देखकर इंकार करते भी नही बनता। आजकल ग्रामीणो के खान-पान मे पारम्परिक भोज्य सामग्रियाँ कम हो गयी है। यही उनमे बढते रोगो का कारण भी है। जब उन्हे आस-पास उग रही वनस्पतियो के साधारण प्रयोग बताये जाते है तो उन्हे इस पर विश्वास नही होता है। पर जब वे इन्हे आजमाते है तो उन्हे स्थायी लाभ होता है। मसलन, वात रोगो के लिये उपयोगी चरोटा भाजी खेतो और मेडो मे बिखरी पडी है। पहले इसे चाव से खाया जाता था पर आज की पीढी जहरीली रसायनयुक्त सब्जियाँ खरीदकर खाती है। चरोटा का नाम सुनते ही वे नाक-भौ सिकोड लेते है। पारम्परिक चिकित्सक अपने अनुभव से बताते है कि साल के कुछ महिनो तक साग के रुप मे इसका नियमित प्रयोग साल भर वात रोगो से सुरक्षा प्रदान करता है।

मुझे लगता है गाँवो मे बाहर से स्वास्थ्य सुविधा पहुँचाने की बजाय गाँव मे ही उपस्थित वनस्पतियो के साधारण पर प्रभावी प्रयोगो के विषय मे जागरुकता लानी चाहिये। अभी कुछ दशक पहले तक इन वनस्पतियो का महत्व ग्रामीण भारत अच्छे से समझता था पर अचानक ही सब कुछ बदल गया और इसकी बहुत बडी कीमत उन्हे चुकानी पड रही है। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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