सब मर्जो की दवा चेपटी कन्द और उसके जानकार से मुलाकात

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-32

- पंकज अवधिया

सब मर्जो की दवा चेपटी कन्द और उसके जानकार से मुलाकात


जंगल मे बडी मात्रा मे कन्द-मूलो को एकत्र कर रहे कुछ लोगो को देखकर मैने गाडी रुकवायी। पास गया तो पता चला कि सभी चेपटी कन्द की तलाश मे थे। मैने सोचा कि किसी व्यापारी के कहने पर इतनी बडी मात्रा मे चेपटी कन्द एकत्र किये जा रहे होंगे पर लोगो ने बताया कि पास के गाँव के एक पारम्परिक चिकित्सक के लिये इन्हे एकत्र किया जा रहा था। जिस गाँव का नाम उन्होने लिया वहाँ मै पहले गया तो था पर इस पारम्परिक चिकित्सक के बारे मे नही सुना था। मैने पता पूछकर उस ओर कूच किया। मै गाडी ठीक से खडा कर ही रहा था कि साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सक ने गाँव के पारम्परिक चिकित्सक के घर मे प्रवेश किया फिर स्थानीय भाषा मे अपना परिचय देकर उनसे मित्रता कर ली। गाँव के पारम्परिक चिकित्सक जिनका नाम दशरथ था स्नान और ध्यान कर रहे थे। उनकी पत्नी से हमारे पारम्परिक चिकित्सक ने परिचय प्राप्त किया और फिर उन्हे दाई अर्थात माँ से सम्बोधित किया। दशरथ की पत्नी प्रसन्न हो गयी और हमारा स्वागत किया।


हम दशरथ के घर का मुआयना करने लगे। सरई यानि साल की लकडी से घर का पटाव बना हुआ था। झोपडी मे बाहर की ओर गेरु लगा हुआ था। प्रवेश द्वार के चारो ओर लकडी की ग्रामीण नक्काशी युक्त बीजा की लकडी थी। छानी मे सूपे ही सूपे थे और इन सूपो मे चेपटी कान्दा सूख रहा था। कुछ सूपो मे कोआ यानि महुआ का फल सूख रहा था। ग्रामीण इसके तेल का प्रयोग रोजमर्रा के जीवन मे करते है। इसके औषधीय उपयोग भी है। दशरथ के घर मे एक पिन्जरे मे कुछ पक्षी भी थे। उन्हे दीमक का नाश्ता कराया जा रहा था। ये तीतुर या तीतर थे जो कि बहुत शोर मचाते है। इनके शोर से ग्रामीण लाभ उठाते है। इनके शोर को सुनकर दूसरे तीतर आँगन मे आ जाते है। ग्रामीण आने वाले पक्षियो को पकडकर खा जाते है। पिंजरे वाले पक्षी वैसे ही बन्द रहते है। दूसरे दिन फिर वे आवाज निकालते है तो फिर दूसरे तीतर आ जाते है। इस तरह पीढीयो से हर दिन तीतर जाल मे फँसने के लिये अभिशप्त है। ग्रामीणो को बैठे-बिठाये भोजन मिलता रहता है। मैने पिंजरे मे बन्द तीतर के चित्र लिये। आँगन मे तुलसी का पौधा भी था। देसी गुलाब फूलो से लदा हुआ था। पास मे एक खाट पडी थी और सागौन की मजबूत लकडी से बना एक तख्त भी आगंतुको का भार सहने बेसब्र था। दाई ने मुझे बैठने के लिये कहा पर मै तो आस-पास फैली चीजो पर ध्यान केन्द्रित किये हुये था। इस बीच दशरथ आ गये और हम शहरियो को देखकर आश्चर्य मे डूबने लगे।


दशरथ ने बताया कि न केवल छत्तीसगढ के बडे नगरो से बल्कि दिल्ली, कोलकाता से भी उनके पास रोगी आते है। उन्हे कार मे बिठाकर शहर ले जाते है। कोई गठिया की दवा माँगता है तो कोई ह्रदय रोगो की। ज्यादातर शहरी लोग बडी रकम देकर औषधि मिश्रण के बारे मे पूछते है। पर दूसरे पारम्परिक चिकित्सको की तरह दशरथ भी किसी को अपना पारम्परिक ज्ञान नही बताते है। उन्हे डर है कि कही इसका व्यवसायिक दुरुपयोग न हो जाये। वे बडी मात्रा मे चेपटी कन्द एकत्र करवाते है। यह बात सभी लोग जानते है। शहरी रोगी यह सब देख-सुनकर अपनी बुद्धि के अनुसार आस-पास के जंगलो से बडी मात्रा मे कन्द ले जाते है और मानने लगते है कि इसे खाने से रोग ठीक हो जायेगा। पर ऐसा नही होता है। दशरथ ने हमे कुछ सूखे हुये चेपटी कन्द खाने को दिये और कहा कि इसे आधार बनाकर मै साढे चार सौ से अधिक औषधीय मिश्रण बनाता हूँ। इनसे से ही रोगो की चिकित्सा की जाती है। ज्यादातर वनस्पतियाँ वे पास के जंगलो से एकत्र करते है जबकि कुछ के लिये वे साल मे कई बार दूर जंगलो की यात्रा करते है। वे अफसोस जताते हुये कहते है कि उनके दादा के पास चेपटी कन्द मे हजारो नुस्खे थे पर उन्होने जाते-जाते ये किसी को नही बताये। उनका ज्ञान उनके साथ ही समाप्त हो गया।


आमतौर पर कहा जाता है कि चिकित्सक को अपनी दवा नही लगती। दशरथ खाट मे बैठे थे और मै जमीन पर। मुझे ऐसा लगा जैसे उनके दाहिने हाथ मे कुछ तकलीफ है। मेरा अनुमान सही था। उन्हे लकवा हो चुका था। उन्होने अपनी औषधीयाँ अपनायी पर नतीजा सिफर ही रहा। मैने उनसे नेगुर और दूसरी वनस्पतियो के बारे मे पूछा। उन्होने बताया कि पास के डोंगर मे यह मिल जायेगा। मैने साथ चल रहे एक पारम्परिक चिकित्सक के साथ एक स्थानीय व्यक्ति को बिना देर इन वनस्पतियो के एकत्रण के लिये भेज दिया। दशरथ को खटिया मे लिटाकर नीचे खौलता पानी रखा और फिर जंगल से लायी जडी-बूटियो को डाल दिया। भाप निकलने लगी। भाप को प्रभावित अंगो की ओर भेजा तो दशरथ की आह निकल गयी। उन्हे शरीर मे दर्द भी था। उसमे इस भाप से कुछ राहत मिली। आह की ध्वनि इसलिये आयी थी। आधे घंटे बाद यह उपचार पूरा हुआ। मैने उनसे कहा कि आप प्रतिदिन यह करे तो आपको इस समस्या से छुटकारा मिल जायेगा। दशरथ चकित थे क्योकि उन्होने माँगने वाले शहरी बहुत देखे थे पर मोटर मे चढकर देने आये शहरी को शायद पहली बार देख रहे थे। मैने उनसे कहा कि चेपटी कन्द के नुस्खो को आप किसी को न बताये, मुझे भी नही। बस इन्हे सम्भालकर नयी पीढी को देकर जाये ताकि आपके दादा जी की तरह यह दुर्लभ ज्ञान समाप्त न हो जाये। मैने अपने वानस्पतिक सर्वेक्षणो से दूसरे पारम्परिक चिकित्सको से चेपटी कन्द के सैकडो नुस्खो पर जानकारियाँ एकत्र की है। अगली यात्रा के दौरान यदि दशरथ चाहेंगे तो मै ये नुस्खे उन्हे बतौर उपहार दे दूंगा।


मेरा ड्रायवर इस बीच गाडी मे रखा प्रसाद ले आया। राजिम का यह प्रसाद अभनपुर के स्वादिष्ट पेडे के रुप मे था। दाई ने इसे प्राप्त किया। चलते-चलते मैने उन लोगो को एक सरल उपाय बताया जो चेपटी कन्द एकत्र करने जाते थे। उनसे कहा कि एक साथ से जब कन्द एकत्र करे तो उसका चौथाई हिस्सा जमीन मे ही रहने दे। इससे ये कन्द बढकर अगले साल काम आयेंगे। साथ ही इन कन्दो पर आश्रित रहने वाले वन्य जीवो को भटकने की जरुरत नही पडेगी। एक दिशा से कन्द एकत्र करने के बाद कुछ समय के लिये दूसरी दिशा से कन्द एकत्र किये गये। आप चाहे तो ऐसा एक साल के लिये भी कर सकते है। यानि पहले साल उत्तर से कन्द एकत्र किये तो दूसरे साल पूर्व से और फिर तीसरे साल दक्षिण से, चौथे साल फिर उत्तर से। इस चक्रिय एकत्रण से शेष तीन दिशाओ के कन्दो को बढने का अवसर प्राप्त हो जायेगा। इससे जंगल मे संतुलन बना रहेगा। मेरी बात सुनकर दशरथ बोले कि दादा के समय ऐसा होता था। अब हम फिर से इसे अपनाने की कोशिश करेंगे।


दशरथ से विदा ले लेकर चेपटी कन्द खाते हुये हमने विदा ली। मुझे लगा कि मेरी आज की जंगल यात्रा सार्थक रही। पर अभी तो बहुत कुछ आगे होना शेष था---- (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वधिकार सुरक्षित

Comments

जानकारी के लिए शुक्रिया। अच्‍छा होता, यदि इस कन्‍द की फोटो भी दी होती।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
Gyan Darpan said…
जानकारी के लिए शुक्रिया।

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