ज़टिल रोगो की अंतिम अवस्था मे डुढुम और वनस्पतियो का पारम्परिक प्रयोग

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-39
- पंकज अवधिया

ज़टिल रोगो की अंतिम अवस्था मे डुढुम और वनस्पतियो का पारम्परिक प्रयोग


हम जंगल के लिये निकले ही थे कि एक फोन आ गया।“आप तुरंत चले आइये, तालाब की सफाई के दौरान जो अनोखी मछली निकली थी वह फिर से मिल गयी है। यह बहुत महत्वपूर्ण है। जल्दी आये, नही तो वह हाथो-हाथ बिक जायेगी। तालाब के बाहर चार-पाँच सौ रुपये नकद देकर लोग इसे ले जाने को तैयार है।“ मैने गाडी मोडी और चल पडा उस ओर। राजधानी के धोबी तालाब मे इन दिनो सफाई चल रही है। अवैध कब्जो की मार से यह तालाब पूरी तरह खत्म हो चुका था। इसमे मानव बस्तियाँ बस गयी थी और शेष भाग मे जलीय खरपतवारो का आधिपत्य हो गया था। अब जब इसकी सफाई चल रही है तो न केवल नाना प्रकार की जलीय वनस्पतियाँ मिल रही है बल्कि मछलियाँ और बडे जलीय खरप्तवारो पर घोसला बनाकर रहने वाले पंछी भी मिल रहे है। यहाँ यदि जीव-विज्ञान के शोधकर्ता डेरा लगाकर बैठ जाये तो इतनी नयी जानकारियाँ मिल जायेंगी कि वे इस पर दर्जनो शोध-पत्र प्रकाशित कर सकते है। पर अफसोस यहाँ अभी तक कोई नही पहुँच पाया है।

तालाब की तीन चौथाई सफाई हो चुकी है। मै हर चार दिन मे वहाँ जाने की कोशिश करता हूँ। पिछली बार मुझे इस मछली मे बारे मे बताया गया था। मेरे पहुँचने से पहले वह बिक गयी थी। इतने सारे मोबाइल होने के बावजूद किसी ने उसकी तस्वीर नही खीची थी। इस बार मै मौका नही चूकना चाहता था।

मै जब तालाब पहुँचा तो मछली फिर से बेची जा चुकी थी। इस बार यह मछली साढे पाँच सौ मे बिकी। यह मेरा सौभाग्य था कि इस बार इसकी तस्वीर ले ली गयी थी। मुझे बताया गया कि इस मछली का सामने का हिस्सा सर्प की तरह है। इसे देखने से सर्प का भ्रम हो जाता है। जब तक इस इसकी मछली जैसी पूँछ न देखो इसके सर्प होने का भ्रम बना रहता है। आमतौर पर यह जाल मे नही फँसती है। जब कभी गल्ती से फँस जाती तो हाथो हाथ बिक जाती है। तस्वीर देखने से साफ पता चल रहा था कि इसकी संरचना इसे साधारण जाल मे फँसने नही देती है।

मुझे याद आता है कि विद्यार्थी जीवन मे जब गाँव जाना होता था तब मछली पकडने के लिये गरी डालकर नदी मे बैठे बच्चो को कभी-कभार यह मिल जाती थी। नये लोग घबराकर इसे छोड देते थे। रुके पानी मे यह मुश्किल से मिलती है जबकि बहती नदी-नालो मे ये अधिक संख्या मे होती है। रायपुर शहर के मध्य तालाब मे इसका मिलना दुर्लभ घटना थी। मेरे लिये भी और मछुआरो के लिये भी।

जंगल यात्रा के दौरान नाना प्रकार की मछलियो के बारे मे रोचक जानकारियाँ मिलती ही रहती है पर शाकाहारी होने के कारण उतने ध्यान से मै इन्हे एकत्र नही कर पाता हूँ जितने ध्यान से इन्हे खाने वाले इन जानकारियो मे रुचि लेते है। मेरे पिछले ड्रायवर का मछली पकडना पुश्तैनी व्यवसाय था। उसके पिता उसके लिये एक से बढकर एक मछली लेकर आते थे। जब दिन के अंत मे मै उसे कुछ पैसे देना चाहता तो वह तुरंत बाजार जाकर मछली ले आता था। उसके साथ के कारण मैने मछलियो के विषय मे बहुत सी जानकारियाँ एकत्र की। पारम्परिक चिकित्सा मे मछलियो का प्रयोग होता है और इस विषय मे पारम्परिक चिकित्सको के पास ज्ञान का भंडार है।

मुझे आशा थी कि देश भर मे मछलियो पर इतने बडे-बडे शोध संस्थान होने के कारण मछलियो के औषधीय गुणो पर विस्तार से लिखा गया होगा पर सन्दर्भ साहित्यो मे इस विषय मे बहुत कम जानकारी मिलती है। कुछ शोधकर्ताओ ने यह लिखकर छोड दिया है कि फलाँ प्रजाति फलाँ रोग मे काम आती है पर इसकी प्रयोग विधि और प्रयोग के समय बरती जाने वाले सावधानियो के विषय मे कुछ भी नही लिखा। इस कमी ने मुझे प्रेरित किया कि मै मछलियो के विषय मे जितना सम्भव हो उतनी जानकारी एकत्र करुंगा। एक दशक से भी अधिक समय से मछलियो पर लिखने के कारण इस पर इतने अधिक सन्दर्भ दस्तावेज उपलब्ध हो गये है कि अब देशी-विदेशी संस्थानो मे शोधरत वैज्ञानिक मुझे “मछली विशेषज्ञ” भी मानने लगे है। पर मै इसे स्वीकार नही करता क्योकि बिना मछली खाये भला कैसा मछली विशेषज्ञ?

क्षय रोग की वह अवस्था जब मुँह से खून आने लगता है आम लोग डुढुम नामक मछली को खिचडी के साथ खाने की सलाह देते है। इससे लाभ तो होता ही होगा पर पारम्परिक चिकित्सक इस विषय मे अधिक जानकारी रखते है। वे भी डुढुम का ही प्रयोग करते है पर वनस्पतियो के साथ। खिचडी के स्थान पर औषधीय धान का प्रयोग किया जाता है। औषधीय धान को पकाते समय उसमे नाना प्रकार की औषधीयाँ डाली जाती है और पकाने के बाद पर परोसने से पहले भी वनस्पतियो का सत्व मिलाया जाता है। वे बताते है कि केवल डुढुम का प्रयोग सभी रोगियो को लाभ नही पहुँचाता है। इसलिये रोगी की दशा और जीवनी शक्ति के आधार पर नाना प्रकार की वनस्पतियो को मिलाया जाता है। इनमे से ज्यादातर वनस्पतियाँ डुढुम के औषधीय गुणो को बढाने का कार्य करती है।

आमतौर पर रोग की इस जटिल अवस्था मे रोगी के लिये 75 दिनो का उपचार निर्धारित किया जाता है। इन 75 दिनो मे 55 दिनो तक डुढुम रोगी के नियमित भोजन का हिस्सा रहती है। किसी भी दिन डुढुम को अकेले नही खिलाया जाता है। पहले दिन डुढुम को दो वनस्पतियो के साथ दिया जाता है, दूसरे दिन दो और वनस्पतियाँ जोड दी जाती है, तीसरे दिन दो और, इस तरह यह क्रम 15 दिनो तक चलता है। उसके बाद रोगी की दशा की समीक्षा की जाती है। इस आधार पर आगे के लिये डुढुम और अन्य वनस्पतियो का मिश्रण सुझाया जाता है।

देश भर मे डुढुम को अलग-अलग नामो से जाना जाता है। यह हमारा सौभाग्य है कि आज भी ऐसे पारम्परिक चिकित्सक हमारे बीच है जो डुढुम का प्रयोग क्षय रोगो की चिकित्सा मे सफलतापूर्वक कर रहे है। उन्होने समय के साथ अपने उपचार मे कुछ परिवर्तन किये है। औषधीय धान अब मुश्किल से मिलते है। साथ ही लम्बे समय तक डुढुम की प्राप्ति भी एक समस्या है। डुढुम के साथ प्रयोग होने वाली वनस्पतियाँ बहुतायत मे है पर फिर भी पारम्परिक चिकित्सक उपचार की मूल विधियो को कम ही अपनाते है। मुझे लगता है कि इस पारम्परिक उपचार विधि को फिर से पुनरजीवित करने की आवश्यक्ता है।

रायपुर के तालाब से पकडी गयी मछली डुढुम ही थी पर तस्वीर से यह साफ लगता था कि वह स्वस्थ्य नही है। प्रदूषित तालाब मे शायद उसे सही पोषण नही मिला होगा। चूँकि यह धोबी तालाब था इसलिये डिटरजेंट इसके पानी मे काफी मात्रा मे घुला हुआ था। बाद मे जब मैने यह तस्वीर पारम्परिक चिकित्सको को दिखायी तो उन्होने इस बात की पुष्टि की कि यह खाने योग्य नही है। जब उन्होने सुना कि किसी ने साढे पाँच सौ मे एक मछली खरीदी है तो वे बोले पडे कि इतने पैसे देकर वह कई बीमारियो को अपने घर ले गया है, अनजाने मे ही।

इस लेख को लिखने से पहले मै अपने डेटाबेस मे उन नुस्खो की गिनती कर रहा था जिनमे किसी न किसी रुप मे डुढुम को डाला जाता है। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि कुल नुस्खो की संख्या नौ हजार तीन सौ दस निकली। मुझे विश्वास है कि डुढुम पर आधारित हजारो नुस्खे आज भी दस्तावेजीकरण की बाट जोह रहे होंगे। इन नुस्खो से सम्बन्धित ज्ञान को विलुप्त होने से हमे ही बचाना होगा। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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