जंगली सूअर को दौडाती गाये, बरहा मूसली और हलाकान अन्नदाता

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-33
- पंकज अवधिया

जंगली सूअर को दौडाती गाये, बरहा मूसली और हलाकान अन्नदाता


बुधवार यानि एक जुलाई की देर रात को हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ बरहा यानि जंगली सूअर के बडी संख्या मे आने की खबर मिली थी। मै इस बारे मे विस्तार से पिछले लेखो मे लिख चुका हूँ। अभी तक हमे जानकारी थी कि तीन झुंड मे 70 बरहा आये है पर ग्राम सिकोला मे रुकते ही वहाँ किराने की दुकान चलाने वाले श्री कृष्ण कुमार साहू ने बताया कि बरहा की संख्या सौ से ज्यादा है। ये पास के नाले और नदी मे रहते है। उसकी दुकान मे दूसरे युवा भी थे। पूरे गाँव मे सन्नाटा था। बरहा का खौफ था। कृष्ण ने बताया कि धान की नर्सरी को ये बरहा नुकसान पहुँचा रहे है। जैसे भैसे पानी मे लोटती है वैसे ही बरहा धान की नर्सरी मे लोट रहे है। इससे बहुत नुकसान हो रहा है। मैने पूछा कि क्या कोई और आकर इससे पहले इस बारे मे जानकारी लेकर गया है तो उसने कहा कि आप पहले हो। यह खबर अभी अखबारो मे भी नही छपी है। कृष्ण से विदा लेकर हम आगे बढे और तुलसी नामक उस गाँव मे पहुँचे जहाँ बरहा ने दो बच्चो को घायल किया था। ये चरवाहे के बच्चे थे। मै उनसे मिलने गया पर रात अधिक होने के कारण वे सो गये थे। उनके परिजनो से ही मुलाकात हो पायी।

ग्रामीणो ने बताया कि आस-पास जंगल नही है फिर भी जाने कहाँ से इतनी बडी संख्या मे बरहे आ गये है। इनमे मादाए और बच्चे बडी संख्या मे है। ये कहाँ से आये है, इसका पता थोडे से सर्वेक्षण के बाद पता चल सकता है। उन स्थानो, जहाँ अचानक ही बरहा का आना कम हो गया होगा, की सहायता से बरहा का मूल निवास जाना जा सकता है। गाँव के बुजुर्गो ने बताया कि ये जंगल के ही बरहा दिखते है जिन्हे मनुष्यो के आस-पास रहने की आदत नही है। जंगल मे सम्भवत: पानी की कमी के चलते इनका आगमन हुआ होगा। पर इस बात को जानकर सभी चिंतित थे कि अब ये यहाँ के स्थायी निवासी बन गये है। ग्राम खुडमुडी मे लोगो ने बताया कि आस-पास के गाँव के वे लोग जिनकी फसल को बरहा ने नुकसान पहुँचाया है, बडी संख्या मे बरहा को खदेडने गये थे। उन्होने दूर तक उन्हे खदेडा लेकिन बरहा की फिर से वापसी हो गयी। अब फिर से खदेडने की तैयारी है। मुझे अपने अनुभव से लगता है कि इससे कुछ भी लाभ नही होने वाला है। ये बरहा मनुष्यो की बस्तियो के बीच फँस गये है। एक बस्ती के लोग खदेडेंगे तो दूसरी बस्ती के पास बरहा चले जायेंगे। इस पर दूसरी बस्ती के लोग भी खदेडेंगे और बरहा फिर पहली बस्ती मे आ जायेंगे। यह क्रम कभी समाप्त नही होगा।

गाँव की गायो और दूसरे मवेशियो ने गाँव वालो की तरह बरहा को अपने जीवन मे कभी नही देखा है। बरहा ने अब तक इन्हे नुकसान नही पहुँचाया है। यही कारण है कि गाँव मे विचित्र दृश्य दिख रहे है। बरहा गायो के समूह के पास आ जाते है तो कुद्ध गाये दूर तक उन्हे दौडाती है। आम ग्रामीणो ने लाठी के सहारे के अलावा अब समूह मे खेत जाना आरम्भ किया है। एक के आवाज लगाने से दूसरे एकत्र हो जाते है और बरहा को भगाने लगते है। अभी फटाको का प्रयोग आरम्भ नही हुआ है पर इसकी बात चल रही है। फटाको की बात सुनकर मुझे उत्तरी बंगाल के जंगली हाथियो की याद आती है। हाथियो के आने पर रात को गाँव वाले फटाके फोडते है। हाथी खडे-खडे लुफ्त उठाते रहते है। उन्हे मालूम है कि यह आतिशबाजी ज्यादा नही टिकेगी। जब शो खत्म होता है तब वे गाँव मे प्रवेश करते है। फटाको के प्रयोग से कभी बन्दरो से भी निपटा जाता था पर तेज आवाजो के वे अब अभ्यस्त हो गये लगते है।

इस यात्रा के दौरान दिन मे काँकेर के पास एक ऊँची पहाडी पर बन्दरो से सामना हुआ। बन्दर मनुष्यो के उस पहाडी पर आने-जाने के अभ्यस्त हो चुके थे। मै आराम से उनकी तस्वीरे लेता रहा। इसी बीच नीचे बस्ती से बारात निकली। फटाके फूटे तो पहाडी की चट्टानो से टकराकर इतनी जोर की ध्वनि हुयी कि हम लोग चौक पडे। पर बन्दर पूरी तरह अप्रभावित दिखे। उन्होने उस ओर देखा भी नही। मुझे लगता है बरहा के लिये फटाको का प्रयोग गाँव वालो के लिये व्यर्थ खर्च ही होगा। कुछ ही दिनो मे बरहा इसके अभ्यस्त हो जायेंगे।

पंचायत कुछ क्यो नही कर रही है? इस प्रश्न के जवाब मे ग्रामीणो ने कहा कि अभी मानसून की देरी के कारण धान की बुआई नही हुयी है इसलिये बरहा द्वारा कम नुकसान हो रहा है। बुआई के बाद अब नुकसान का प्रतिशत बढेगा तब किसानो का आक्रोश भी बढेगा। उसके बाद फिर पंचायत बुलायी जायेगी। सबसे बडी समस्या यह है कि किसी को इससे निपटने का उपाय नही मालूम है। पंचायत बैठ भी गयी तो अधिकारियो को इस बाबत विज्ञप्ति भेजने के अलावा और कुछ नही किया जा सकता है। ग्रामीणो ने मुझसे वन अधिकारियो से बातचीत करने को कहा। वे कहते थे कि बरहा को गाडियो मे भरकर जंगल मे छुडवा दिया जाये। मैने अधिकारिक रुप से तो किसी से बात नही की पर अपने एक मित्र से बात की तो उन्होने कहा कि एक-दो जानवरो के लिये यह विधि कारगर है। पर सौ से ज्यादा बरहा को इस तरह दूसरी जगह ले जाना सम्भव नही जान पडता है। उन्होने यह भी कहा कि यदि गाँव वाले जबरदस्त ढंग से विरोध करे तो ही यह इस दिशा मे कुछ हो सकता है।

इस जंगल यात्रा के दौरान मै कुछ ऐसे पारम्परिक चिकित्सको से मिला जो कि बरहा को करीब से जानते है। वे बरहा का पीछा करते है जंगलो मे और बरहा द्वारा पसन्द किये जाने वाले कन्दो से औषधीयो का निर्माण करते है। उनसे अच्छा भला कौन बता पायेगा इन वन्य-जीवो के बारे मे? उन्होने समस्या को ध्यान से सुना और फिर बोले कि यदि उन गाँवो मे आये बरहा जंगली है तो कन्द-मूल उनके आहार के अहम भाग होंगे। ये नदियो और नालो के किनारे उगने वाले गोन्दला जैसे कन्दो पर भी आश्रित रह सकते है। यदि उन्हे कन्दो से वंचित कर दिया जाये तो आधुनिक फसलो पर वे ज्यादा आश्रित नही रह सकते। गाँव वालो को बरहा को खदेडने मे अपनी शक्ति जाया करने की बजाय मिल-जुल कर उनके निवास स्थान के आस-पास से कन्दो को नष्ट कर देना चाहिये। साथ ही कुछ सप्ताह तक रात-दिन किसी भी हालत मे उन्हे खेतो मे घुसने से रोकना चाहिये। इससे वे मजबूरी मे ही सही पर स्थान बदलने की कोशिश करेंगे। अब चूँकि बरसात शुरु हो गयी है इसलिये हो सकता है कि वे वापस उसी जंगल की ओर कूच करे। यह भी हो सकता है कि वे दूसरे गाँव की ओर जाये। आस-पास के बडे क्षेत्र मे मुनादी के द्वारा इस बारे मे जागरुकता फैलाना जरुरी है।

आमतौर पर बरहा रात को सक्रिय रहते है और दिन मे आराम करते है पर यहाँ के बरहा दिन मे खेतो मे घूम रहे है और रात को बेशरम की झुरमुट मे दुबक जा रहे है। इस जंगल यात्रा के दौरान मैने पहली बारिश के बाद काली मूसली के पौधे को उगते देखा। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सक ने कहा कि इसे स्थानीय भाषा मे “बरहा मूसली” भी कहते है। ये बरहा को बहुत पसन्द है और इसके बिना वह शक्तिहीन हो जाता है। प्रभावित गाँवो के विषय मे अच्छी बात यह है कि यहाँ दूर-दूर तक “बरहा मूसली” के पौधो का नामोनिशान नही है। हो सकता है कि इस वनस्पति की अनुपलब्धता ग्रामीणो के लिये वरदान बन जाये। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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