साँपो के आगे बेबस जडी-बूटियाँ और घायल साँप के आगे बेबस हम

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-47
- पंकज अवधिया

साँपो के आगे बेबस जडी-बूटियाँ और घायल साँप के आगे बेबस हम


“ये बीस जडी-बूटियाँ है। आप इन्हे घर ले जाइये और निश्चिंत हो जाइये। एक भी साँप नही आयेगा। आप पन्द्रह हजार रुपये दे दे। मै अभी इसे पालीथीन मे बाँध देता हूँ।“ उडीसा के एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल पर मै कल ही एक जडी-बूटी विक्रेता से चर्चा करने के लिये रुका था। बीस जडी-बूटियो के लिये पन्द्रह हजार कुछ ज्यादा नही है-मेरे प्रश्न पर विक्रेता थोडा नाराज हो गया और बोला कि आप तो किस्मत वाले हो जो इतने सस्ते यह मिल रही है। आप इतनी दूर से आये हो इसलिये सस्ता किया है। मैने कहा कि इतने सारे पैसे तो मेरे पास नही है। फिर उसने मोल-भाव शुरु कर दिया। इस बीच पास की बस्ती से कुछ शोर सुनायी दिया। धीरे-धीरे शोर हमारी ओर आने लगा। “साँप, साँप” की आवाज सुनकर हम चौकन्ने हो गये। देखा तो एक काला सा बडा साँप आया और जडी-बूटियो के बोरे के नीचे छुप गया। हम हडबडा गये। जब कुछ हल्ला शांत हुआ तो देखा कि विक्रेता दूर मे खडा है। जान मे जान आने के बाद याद आयी कि पन्द्रह हजार की बीस जडी-बूटियो के रहते भला कैसे साँप घुस गया? हम विक्रेता पर टूट पडे। वह घबरा कर बोला कि इस साँप पर असर नही होता बाकि सब साँप पर असर होता है।

पास मे एक मन्दिर था जहाँ काँवडिये बडी संख्या मे जल अभिषेक के लिये आ रहे थे। इन काँवडियो मे से कुछ के पास नाग साँप थे। वे साँप को दूध के पात्र मे कुछ समय तक डुबो देते थे और फिर दूध प्रसाद के रुप मे वितरीत कर दिया जाता था। मेरे कैमरे को देखते ही कुछ साँप वाले सक्रिय हो गये। उन्होने साँप पर चोट की और साँप गुस्से मे फन काढकर डसने की मुद्रा मे खडा हो गया। मैने इस मुद्रा मे साँप की अनगिनत तस्वीरे ली है पर फिर भी मन रखने के लिये मैने फ्लैश चमका दिया। नाग को देखकर मन मे आया कि फिर से जडी-बूटी विक्रेता के पास लौटा जाये और उसकी जडी-बूटियो को इस पर आजमाया जाये। हमे फिर से आता देख विक्रेता दुकान समेटने लगा। हमने नाग उसकी दुकान मे छोड दिया। वह बडे मजे से घूमता रहा। सभी जडी-बूटियाँ उस पर रखी एक-एक करके पर किसी ने भी असर नही दिखाया। विक्रेता के पास अभी भी इसका कारण था। उसने बेशर्मी से कहा कि नाग पर इनका असर नही होता है, बाकि सब पर होता है। लो कर लो बात। यह तो सरासर बेशर्मी है। हमने कडाई बरती तो वह जमीन पर आ गया और कहने लगा कि क्यो गरीब आदमी के पेट पर लात मारते हो?

आज रायपुर के अखबार दैनिक छत्तीसगढ ने उस जडी-बूटी की बडी सी तस्वीर प्रकाशित की जिसके बारे मे मैने पिछले लेखो मे लिखा है। अखबार ने प्रमुखता से यह प्रकाशित किया कि इससे साँप नही भागते है इसलिये आम नागरिक इसे न खरीदकर पर्यावरण के प्रति अपनी जागरुकता का परिचय दे। इस पर राजधानी मे व्यापक प्रतिक्रिया हुयी है। बहुत से फोन आये। कुछ फोन उन लोगो के भी थे जो इस तरह की जडी-बूटियो के व्यापार मे लगे है। उनका कहना था कि क्यो गरीब के पेट मे लात मारते हो? हमे अपना धन्धा करने दो।

कल की जंगल यात्रा के दौरान एक बहुत ऊँची पहाडी पर जाना हुआ। चढते-चढते पैरो मे गाँठ पड गयी, दम फूल गया। मै जिस स्थानीय पारम्परिक चिकित्सक के साथ था वे मजे से चढ रहे थे। काफी चढाई के बाद हम समतल स्थान पर पहुँचे जहाँ घना जंगल था। हम सोनपाठा की तलाश मे आये थे। पारम्परिक चिकित्सक उम्र के अंतिम पडाव मे थे। हाल ही मे गर्मियो के दिनो मे वे इस पहाडी मे आये थे तो लू के कारण वे बेहोश हो गये थे। रात उन्होने जंगल मे काटी और दूसरे दिन बडी मुश्किल से लौटे। घर वालो के मना करने के बावजूद वे मेरे साथ चल पडे। स्थानीय लोगो ने बताया कि इस क्षेत्र मे जडी-बूटियो की प्रचुरता होने के कारण बहुत से पारम्परिक चिकित्सक है। वे अपने ज्ञान से रोगियो को आराम पहुँचाने की कोशिश करते है। यदि असफल हो जाते है तो रोगियो को इस बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक के पास भेजा जाता है। वे सोनपाठा के प्रयोग से उन्हे ठीक कर देते है। यह मेरे लिये आश्चर्य का विषय था कि क्या सभी रोगो की जटिल अवस्था मे सोनपाठा का विवेकपूर्ण प्रयोग इतना उपयोगी है?

बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक ने बताया कि वे सोनपाठा के सैकडो नुस्खे जानते है। इन नुस्खो की सहायता से वे सभी रोगो की चिकित्सा कर रहे है कई दशको से। वे बोले कि पहले सोनपाठा के बहुत से वृक्ष थे जंगल मे पर धीरे-धीरे वे समाप्त होते गये। पता नही किसने यह अफवाह फैला दी है कि इससे साँप भागते है। अब सबके सब साँप के लिये इसे एकत्र करते है। यहाँ से व्यापारी बडी मात्रा मे इसे ले जाते है और फिर शहरो मे बेच देते है। शहरो मे लोग इसे अपने घरो मे रख देते है और पडे-पडे इसके फल सड जाते है। पहले पहाडी के नीचे ही यह मिल जाता था पर अब जंगल मे बहुत दूर जाना पडता है।

पहाडी पर कुछ जडी-बूटी संग्रहकर्ता मिले तो बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक ने उनके हाथो मे सोनपाठा के फल देखकर उन्हे खूब खरी-खोटी सुनायी। फिर मुझे कहने लगे कि यदि यह सब जारी रहा तो मै रोगियो के लिये कुछ नही कर पाऊँगा। मेरे अनगिनत नुस्खे बेकार चले जायेंगे। मैने दशको से हजारो सोनपाठा के वृक्षो की सेवा की है। उन्हे जडी-बूटियो के घोल से सींचा है ताकि वे दीर्घायु हो। भरी बरसात मे उन्हे देखने गया पर मै अपने ही (मानव) समाज से उनकी रक्षा नही कर पाया। उनकी आँखो मे अफसोस के भाव थे जबकि इसमे उनकी कोई गल्ती नही थी।

बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक की इन बातो ने स्थिति साफ कर दी थी। मुझे यह आभास हो गया था कि असंख्य रोगियो की रक्षा के लिये सोनपाठा जैसी वनस्पतियो की रक्षा जरुरी है। इसके गलत व्यापार को रोकने की जरुरत है चाहे इसके लिये कठोर से कठोर कदम क्यो न उठाने पडे। मैने सोनपाठा पर लिखे लेखो को अपने एक उडीया मित्र को भेजा है। वे इसका उडीया मे अनुवाद कर देंगे और उडीसा मे प्रकाशित करवा देंगे। मुझे उम्मीद है कि इससे कुछ जागरुकता अवश्य आयेगी।

रात को लौटते समय हमे लम्बी सी छडीनुमा कोई चीज सडक पर दिखायी दी। हम सब अनुमान लगाते रहे। फिर सबने मान लिया कि यह किसी वृक्ष की शाखा होगी। हम चलते रहे। पास आने पर ड्रायवर को कुछ शक हुआ। उसने जबरदस्त ब्रेक लगाया। वह साँप था। ऐसा लम्बा साँप मैने अपने जीवन मे पहले कभी नही देखा था। वह किसी गाडी के नीचे आकर घायल हो चुका था। हम कुछ देर रुके रहे। ड्रायवर ने कौतुहलवश नीचे उतरकर उसे पास से देखना चाहा। वह कुछ आगे ही बढा था कि साँप उस पर झपटा। अब भला साँप को क्या पता कि उसे कुचलने वाले हम नही थे। ड्रायवर बाल-बाल बचा। हमने गाडी पीछे मोडी और पास के गाँव मे इसकी खबर दी।

गाँव के कुछ मनचले युवक नशे मे धुत ताश खेल रहे थे। वे हम पर खूब हँसे और बोले कि गाडी निकाल दो उसके ऊपर से। पर गाँव के सरपंच ने कुछ बैगाओ को बुलाया और फिर हम सब उस दिशा मे चल पडे। उनके चेहरे के हाव-भाव से यह साफ था कि उन्होने भी ऐसा साँप पहले पहल देखा था। एक बुजुर्ग ने बताया कि उन्होने इसके बारे मे पुरानी कथाओ मे सुना था। साँप को एक डंडे से उठाकर किनारे कर दिया गया। कुछ पत्थर रख दिये गये। सरपंच ने हमे रात रुककर सुबह इस साँप के अंतिम संस्कार मे भाग लेने का अनुरोध किया। हमारे लिये रुकना सम्भव नही था। उन्होने हमे और हमने उन्हे धन्यवाद दिया।

मुझे मालूम है कि आज उस साँप का विधि-विधान से अंतिम संस्कार हुआ होगा। शायद भोज भी हुआ हो पर मेरी इच्छा थी कि हम उस घायल साँप की जान बचाने के लिये कुछ करते। शायद मै विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त साँप विशेषज्ञ होता तो यह कर पाता। रात भर नीन्द नही आयी। बस यही सोचता रहा कि काश मेरा ज्ञान उस असहाय जीव के लिये कुछ कर पाता। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

Arvind Mishra said…
चलिए एक भ्रान्ति का निवारण तो हुआ -बैगा लोगों ने उस सांप को भून भान के दावत भी उडाई होगी !
Gyan Darpan said…
अपनी ही मानव जाति के क्रियाकलापों पर रोना आता है कि हमारी मानव जाति ही अपने काम की वनोषधियों को नष्ट करने पर तुली है |

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