अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -56

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -56 - पंकज अवधिया

‘बघवा हावे जंगल मा’- घने जंगल से गुजरते हुये एक छोटे से गाँव मे रुककर यूँ ही मैने गाँव वालो से पूछ लिया। यह छत्तीसगढ-उडीसा की सीमा पर बसा गाँव था जहाँ पहुँचने के लिये हमे बडी मशक्कत करनी पडी। सडक नही थी। जंगल से होते हुये हम लोग वहाँ पहुँचे थे। जंगल इतना घना था कि शायद अकेला होता तो बीच से नही गुजरता, दिन मे भी। यह परसो अर्थात रविवार की बात है। मुझे पक्का यकीन था कि इस जंगल मे अब भी खूंखार जानवर होंगे। मै औषधीय धान और पारम्परिक फसलो पर जानकारी एकत्र करने गया था पर ऐसे दौरो मे बहुत सी दूसरी जानकारियाँ भी मिल जाती है। बाघ तो अब नही मिलते (या कहे दिखते) पर इस क्षेत्र मे बून्दी बाघ अक्सर दिख जाता है। तेन्दुए को बून्दी बाघ कहा जाता है। गाँव के एक बुजुर्ग किसान शोभाराम से मैने देर तक बात की।

मैने फिर पूछा, बघवा हावे जंगल मा। उन्होने पास की पहाडी की ओर इशारा किया और कहा कि वहाँ रहता है। क्या गाँव मे आता है? हाँ, कभी-कभी जब गाँव बिगड जाता है। और पाप बहुत बढ जाता है। अभी कुछ दिनो पहले गाँव के मवेशियो को उसने मार डाला। यह कहते हुये उन्होने हमे वह जगह भी दिखाने की बात की जहाँ यह घटना हुयी थी। कुछ देर चलने के बाद हम लोग वहाँ पहुँच गये। दृश्य भयावह था। गाँव के किशोरो ने बताया कि हम लोग अक्सर जंगल मे तेन्दुए को देखते है पर वह हमे नुकसान नही पहुँचाता है। जब हमने पाप ही नही किया तो वह हमे क्यो पकडेगा? तेन्दुए से जुडे इस विश्वास को बार-बार अलग-अलग लोगो से सुनकर मै अभिभूत हो गया। भले बाकी जानवरो का शिकार होता हो पर गाँव वाले इस जानवर को भगवान के दूत के रुप मे देखते है और पापियो को सजा देने की उसकी ताकत के कारण उसे आदर देते है। बुजुर्ग शोभाराम ने बताया कि पास के गाँव मे अचानक बहुत से मवेशियो को दीपावली के दिन तेन्दुए ने मार दिया। वह गाँव के अन्दर घुस गया था। तुरंत ही पूजा-पाठ करवाया गया। फिर उसके बाद से वह नही आया। हमने रात रुककर इसके दर्शन करने का मन बनाया। हमे बताया गया कि रात को वह एक निश्चित स्थान पर आता ही है। वहाँ एक किसान का खेत था और एक झोपडी भी बनी थी। रात उसमे गुजारी जा सकती थी।

शोभाराम जी के साथ हम लोग आस-पास घूमते रहे। उन्होने बताया कि पहले और अधिक घना जंगल था। जानवर बहुत सारे थे। उस समय कडाके की ठंड पडती थी। सुबह बर्फ की सी मोटी चादर जमीन पर जम जाती थी। ऐसा लगता था जैसे पसिया (चावल का माढ) फैला हुआ है। जब उसमे नंगे पैर जाते थे तो तलवे फट जाते थे। सुबह-सुबह खेत पर जाना सम्भव नही होता था। अब तो न ठंड है और न ही वर्षा। लोग बढ रहे है। जंगल मे खेत मे बढ रहे है। मानव और जानवरो मे मुठभेड भी। इस विनाश से पारम्परिक फसलो से स्वाद छिनता जा रहा है और जडी-बूटियो का चमत्कारी प्रभाव घटता जा रहा है। बाजार और विकास ने गाँव और जंगल से हर वो चीज छीन ली है जिसकी शहरो मे कीमत है। शोभाराम हमे बताते जा रहे थे और हम सुन रहे थे। गाँव वालो ने पारम्परिक धान के विषय मे खुलकर बताया। इनमे औषधीय धान भी थे। पर मुश्किल ये थी कि इनमे से एक की भी खेती नही की जा रही है। ये नाम के रुप मे बुजुर्गो के दिमाग मे है। बीज का अता-पता नही है। युवा किसान तो बीच चर्चा मे ही बोर होकर उठ कर चले गये।

इस गाँव और आस-पास के क्षेत्रो मे कोदो की खेती इन दिनो बडे जोर-शोर से हो रही है। उन्हे पता है कि मधुमेह की चिकित्सा मे कोदो को आहार के रुप मे खाने से लाभ मिलता है। शहर के लोग हाथो-हाथ इसे खरीद लेते है। यही कारण है कि इस पारम्परिक फसल को किसान फिर से लगा रहे है। मैने नयी फसल का कोदो खरीदने की इच्छा जाहिर की। पर यह जानकर बडा आश्चर्य लगा कि बहुत से लोगो ने इसे बेचने से मना कर दिया। वे बोले कि यह गुणकारक है इसलिये हम पहले इसे खायेंगे और यदि बचेगा तभी इसे बेचेंगे। आखिर हमे भी तो रोगो से बचना है। कोदो और अन्य लघु धान्यो से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के विषय मे मैने बहुत लिखा है और अभी भी लिख रहा हूँ। मुझे अक्सर मधुमेह के रोगियो से प्रश्न आते है कि कोदो को हम अपना रहे है पर उतना फायदा नही हो रहा है जितना हमसे कहा गया। इन रोगियो की बात सही है। आप तो वनस्पतियो और मधुमेह के रोगियो के बारे मे तो जानते ही है। रोगी जिस वनस्पति का नाम सुनते है बस बिना किसी से कुछ पूछे खाने लगते है। करेला से शुरुआत होती है फिर नीम, गिलोय, गुडमार से होते हुये व्यवसायिक मिश्रणो मे उतर आते है। किसी ने कोदो कहा तो कोदो को भी खाने लगते है। किसी भी वनस्प्ति से सही लाभ पाने के लिये उसका विधिपूर्ण प्रयोग जरुरी है। कोदो को चावल की तरह ही पका लिया जाता है। पर आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि औषधी के रुप मे इसके प्रयोग के लिये इसे 50 से अधिक अलग-अलग विधियो से पकाया जाता है। मधुमेह के लिये 18,000 से अधिक फार्मूलो मे कोदो का उपयोग होता है। मैने इस विषय मे हिन्दी मे लिखने का मन बनाया है ताकि आम लोग कोदो जैसी वनस्पतियो का सही उपयोग कर सके और मधुमेह जैसे जटिल रोगो से मुक्ति पा सके। पर मेरी चिंता यही है कि क्या आज का हडबडी पसन्द रोगी शांति से यह सब पढेगा या उसका अन्ध-प्रयोग यूँ ही चलता रहेगा।

कोदो की माँग बढी है इसलिये अब ज्यादा उत्पादन आवश्यक है। किसानो से रासायनिक खेती आरम्भ कर दी है। कोदो की परम्परागत खेती मे तो जैविक आदानो का ही प्रयोग होता है। आफ्रीका मे धान के खेतो मे कोदो खरपतवार की तरह उग़ता है। किसान वैज्ञानिको के लाख कहने पर भी इसे नही उखाडते। जब सूखा पडता है और धान की फसल नही होती है तो खरप्तवार की तरह उग रहा यही कोदो उनके जीवन की रक्षा करता है। छत्तीसगढ और उडीसा मे कोदो की रासायनिक खेती बढने से आम लोग आने वाले दिनो मे औषधीय गुण युक्त कोदो शायद ही पा सके। गाँव वालो से बातचीत के दौरान मैने अपनी ये चिंता जाहिर की। वे बोले कि वे जैविक खेती करना चाहते है पर कीडो से कैसे निपटे? मैने अपना वैज्ञानिक धर्म निभाया और आस-पास के उपयोगी पेडो से प्राकृतिक कीटनाशक बनाने की छोटी-सी ट्रेनिंग उन्हे दे दी। कर्रा नामक पेड की तलाश मे हम कुछ दूर निकल गये। गाँव वालो ने हमे रोका और दूर पेड की ओट मे खडे देवदूत तेन्दुए की ओर इशारा किया। दर्शन हो गये। उसकी अच्छी सेहत देखकर मुझे अच्छा लगा। लोगो के विश्वास को याद कर तसल्ली हुयी कि जब तक ये देवदूत के रुप मे स्थापित रहेगा तब तक कोई भी इसका बाल-बाँका नही कर सकता। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

बहुत जान् कारी भरा लेख है।आभार।
आप के आलेख नयी जानकारियों और ज्ञान से तो भरे ही होते हैं। उन मे एक रहस्य रोमांच भी भरा होता है।
"बघुवा हबे" बहुत सालों के बाद सुन रहा हूँ. अच्छा लगा. ज्ञान दुत्त जी के ब्लॉग पर भी हमने आपके लेख पढ़े थे. बने रहीस. आभार.
महुवा said…
जानकारी तो आपने काफी अच्छी दी है....और इसके अलावा जिन आदिवासियों की बात आप कर रहें हैं....कभी-कभी तो उनका भोलापन अच्छा लगता है....और कभी-कभी मन करता है कि काश ऐसा होता इन सभी को भी अच्छे-बुरे,अन्धविश्वास-विज्ञान और बाकी दुनियावी चीज़ों की भी जानकारी देने वाला कोई हो...
आपके पास ऐसी कोई इंटीरियर की जानकारी हो कि उनका समाज कैसे चलता है तो ज़रुर पोस्ट करिएगा....
आभा said…
विश्वाश पर ही निश्चितता है यह सोच गाँव वालों के लिए सुखद है । सावा के साथ एकऔर नाम कोदो का भी जानती हूँ पर यह कर्रा क्या है बताए ।.
बहुत ही जानपूर्ण आलेख.

Popular posts from this blog

अच्छे-बुरे भालू, लिंग से बना कामोत्तेजक तेल और निराधार दावे

World Literature on Medicinal Plants from Pankaj Oudhia’s Medicinal Plant Database -719

स्त्री रोग, रोहिना और “ट्री शेड थेरेपी”