अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -64

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -64 - पंकज अवधिया

‘किसान जब खेत मे प्रवेश करे तो उत्तर दिशा से प्रवेश करे। प्रवेश करते ही जोर से हाथो मे पकडी घंटी बजाये। फिर यूकिलिप्टस के पौधे पर वृद्धि हारमोन डाले। उसके बाद एक विशेष टोपी पहनकर खेती का कार्य शुरु करे। यदि किसान हमारे द्वारा बताये उपायो को अपनाता है तो फसल दोगुनी होगी और जो उसने जिन्दगी भर मे नही कमाया होगा वह एक साल मे कमा लेगा।‘ ऐसा दावा करता एक पत्र मुझे एक किसान ने दिखाया। पत्र के नीचे जिन महानुभाव का नाम लिखा था वे मेरे सहपाठी निकले कृषि महाविद्यालय के। मैने झट से उसे फोन लगाया। उसके फोन उठाते ही प्रश्नो की झडी लगा दी। वह बोला कि यह विज्ञान मेरे द्वारा विकसित किया गया है और यदि इसे समझाना है तो मेरी दुकान आना होगा। दुकान? कौन-सी दुकान? उसने कहा, कृषि सेवा केन्द्र खोला है। वही आ जाना। मै दूसरे दिन पहुँच गया। नौकर दुकान मे था। महाश्य नदारद थे। मुझे बताया गया कि बस आते ही है, आप बैठिये। मैने दुकान का मुआयना करना शुरु किया। कृषि केन्द्र मे तो सबसे पहले एक पुस्तक मिली जिसे सहपाठी ने लिखा था। इसमे उसके तथाकथित विज्ञान को समझाया गया था। फिर एक आलमारी मे घंटियाँ दिखी। उसके बाद साइन बोर्ड मे पढा कि हम यूकिलिप्टस के पौधे बेचते है। नौकर से पूछा तो उसने वृद्धि हारमोन का डिब्बा दिखा दिया। इतने मे सहपाठी आ गया। आरम्भिक बातचीत के बाद उसने आँखे चौडी करके बताया कि यह कृषि वास्तु है। मैने प्राचीन ग्रंथो के हिसाब से इसे आज के किसानो के लिये विकसित किया है। प्राचीन ग्रंथ??? मैने पूछा, यूकिलिप्टस कहाँ से आ गया प्राचीन ग्रंथो मे? यह आस्ट्रेलियाई पौधा है और कुछ दशको पहले भारत आया है। फिर ये बहुराष्ट्रीय कम्पनी का हारमोन? क्या इसके बारे मे भी लिखा है प्राचीन ग्रंथो मे??? वह समझ गया कि उसकी दाल नही गलने वाली। मेरा सहपाठी ही तो था फिर कैसी शर्म। उसने बता दिया कि अपनी दुकान की बिक्री बढाने के लिये उसने यह सब किया है। जो इन सामानो को बेचते है उन्हे मोटा कमीशन देता हूँ। किसान फँस रहे है और पैसे दे रहे है। जैसे वास्तु वाले लोगो को डराकर पैसे लूटते है वैसे ही मै भी कर रहा हूँ। आखिर व्यापार व्यापार है। ईमानदारी से तो पेट भरेगा नही। मै उसके तर्क सुनता रहा। मुझे याद आया कि हास्टल मे पढाई के दौरान वह मेस चलाया करता था। और इतने पैसे बचा लिया करता था कि उसने उस जमाने मे मोटरसाइकिल खरीद ली थी। पूत के पाँव पालने मे दिख जाते है। मैने उसे चेताया कि अन्नदाता को वैसे ही सभी लूट रहे है। तू तो उनको बख्श दे। जिस देश के कर्मठ किसान आत्महत्या करने को विवश हो रहे है, उनसे तू कुछ पैसे लूट भी लेगा तो कौन अमीर हो जायेगा? फिर इसके एवज मे जो “आह” लगेगी वो तो सारा चैन छीन लेगी। उस पर कुछ असर नही दिखा। मैने वापस आकर स्थानीय अखबारो मे एक लेख लिखा पर उसका नाम नही लिखा। किसानो को चेताया कि ऐसी ठगी हो रही है। कुछ दिनो बाद किसान पहुँच गये उसके पास और जब तक उसने पैसे नही लौटाये तब तक उसे घेरे बैठे रहे। यह खरपतवार तो उगने से पहले ही नष्ट कर दिया गया पर अपने देश मे किसानो को छलने वालो की कमी नही है।

कुछ वर्षो पहले आपने पढा होगा कि कोला पेय खेतो मे डालने से फसलो के कीडे मर रहे है। यह खबर मध्यप्रदेश से आयी और बिना किसी जाँच के सुर्खियाँ बन गयी। खबरे अपने आप ही बढने लगी। मूल खबर थी कि कुछ किसान इसे डाल रहे है। फिर खबर बढी कि इससे लाभ हो रहा है। फिर इसमे जुड गया कि उपज बढ रही है, कीडे मर रहे है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी कूद पडा। मैने बीबीसी हिन्दी मे यह खबर पढी। उसमे तो एक कृषि वैज्ञानिक का बयान भी था। इस खबर मे वैज्ञानिक के हवाले से कहा गया था कि हाँ, कोला पेयो से कीडे मर सकते है। क्योकि इसमे शक्कर की मात्रा होती है और यह चीटीयो को आकर्षित करती है। ये चीटीयाँ हानिकरक कीडो को नियंत्रित करती है। कितना अच्छा लगता है न यह सब पढने मे। पर हकीकत मे इन तथाकथित प्रबुद्ध लोगो की बातो मे आकर जब किसानो ने इसे आजमाया तो नतीजा सिफर रहा। उन्हे ठगी का अहसास हुआ। कोला पेयो की माँग अचानक से बढ गयी। इस अफवाह, इस अन्ध-विश्वास को फैलाने वाले हमारे ही बीच के पढे-लिखे लोग थे। कोला पेयो से चीटीयो के आकर्षित होने की जो परिकल्पना की गयी थी, उसका कोई वैज्ञानिक आधार नही था। ऐसी अफवाहे समय-समय पर फैलायी जाती है ताकि उत्पादो की बिक्री बढ सके। कुछ दिनो बाद जब हकीकत सामने आने लगी तो उन खबरचियो ने इससे पर्दा कर लिया जिन्होने यह बात फैलायी थी।

हाल ही मे कनाडा से संचालित होने वाले कीट विशेषज्ञो के एक ई-ग्रुप मे अमेरिका से किसी ने प्रश्न रखा कि दाँतो और मसूडो की सफाई के लिये उपयोग होने वाले लिस्टरीन माउथवाश के बारे मे अफवाह फैल रही है। यह प्रचारित किया जा रहा है यदि घर के सामने जमीन पर इसे छिडक दिया जाये तो घर को मच्छरो से मुक्ति मिल सकती है। अफवाह फैलने की देर थी। अचानक ही इसकी बिक्री बढने लगी। ई-ग्रुप मे कीट विशेषज्ञो से सुझाव माँगे गये। विशेषज्ञो ने एक स्वर मे कहा कि यह सरासर ठगी है। इससे मच्छर नही मरते है। वर्ष 2001 मे भी ऐसी अफवाह फैली थी। ई-ग्रुप मे कुछ लोग मानने को तैयार नही थे। वे बार-बार दोहरा रहे थे कि इससे मच्छर मरते है। तब एक वरिष्ठ विशेषज्ञ ने कहा कि हाँ, मरते है पर उसके लिये एक शर्त है। मच्छर को पकडकर उसमे डुबोना होगा, तब निश्चित ही वह मर जायेगा। इस करारे जवाब के बाद फिर अफवाह फैलाने वालो का सन्देश नही आया।

आप यदि क्लबो और सामाजिक व धार्मिक संगठनो से जुडे होंगे तो जरुर आप ‘नोनी’ के चक्कर मे आये होंगे। मोरिंडा सिट्रीफोलिया नामक वनस्पति से बनाया गया उत्पाद नोनी के नाम से बेचा जाता है। पहले इसे टानिक के रुप मे बेचा जाता था पर धीरे-धीरे ज्वर, सर्दी-खाँसी से लेकर लाइलाज समझे जाने वाले रोगो कैसर और सिकल सेल एनीमिया की कारगर दवा के नाम से बेचा जाने लगा। सारा खेल नेटवर्क मार्केटिंग के जरीये होता है। तगडा कमीशन दिया जाता है। लोग पहले नोनी पीते है और ठगी के शिकार होते है फिर दूसरो को बेचकर उन्हे ठगते है। यही तो होता है नेटवर्क मार्केटिंग मे। नोनी रामबाण तो है नही जो अकेले सभी रोगो को ठीक कर दे। पर कमीशन के नाम पर न केवल नीम-हकीम बल्कि आधुनिक चिकित्सक भी इसे लेने की सलाह देते है। मैने अपने लेखो मे लिखा है कि नोनी जैसे महंगे और सन्देहास्पद उत्पादो की बजाय यदि आम आदमी सत्तू खाना शुरु कर दे तो इससे ज्यादा शक्ति उसे मिल सकती है। छत्तीसगढ मे तो सिकल सेल एनीमिया से प्रभावित बहुत से मरीजो को नोनी दिया जा रहा है। लोग अपनी जमीन-जायदाद गिरवी रखकर नोनी पी रहे है। किसान भी नोनी से नही बच पा रहे है। एक ओर उन्हे नोनी की खेती के लिये दिवास्वप्न दिखाये जा रहे है तो दूसरी ओर कुछ लोग नोनी को कोला पेयो की तरह इस्तमाल करने की सलाह किसानो को दे रहे है। जाहिर है खेती मे इसका उपयोग होगा तो खपत दसो गुना बढ जायेगी। नोनी से खेती मे कोई लाभ होता है-इस पर एक भी प्रयोग नही हुआ है। फिर भी खुलेआम दावे किये जा रहे है।

किसानो की शिकायत मेरे पास आयी तो मैने देश भर की कृषि पत्रिकाओ को सचेत करने वाले लेख भेजे पर विज्ञापन खो देने के डर से केवल राजस्थान की एक किसान पत्रिका ‘कृषि अमृत’ ने ही इसे छापा। इस पर व्यापक प्रतिक्रिया हुयी। जिसका डर था, वही हुआ। हमारे एक पुराने कुलपति जो जाने-माने कृषि वैज्ञानिक है, का फोन आ गया। उन्होने इन्दौर मे मेरे सम्मान मे एक कार्यक्रम आयोजित करवाने का प्रस्ताव रखा। फिर बताया कि रिटायरमेंट के बाद नोनी वाली कम्पनी ज्वाइन कर ली है। मै ही किसानो से नोनी खेतो मे डालने को कह रहा हूँ। मैने उनसे कहा कि क्या आप किसी शोध के आधार पर यह कह रहे है? तो उन्होने कहा कि जब यह मनुष्य की सब बीमारी ठीक करता है तो पौधे की भी करेगा। लो जी, ये कोई बात हुयी। मैने रुख कडा किया तो वे बोले. बी प्रेक्टिकल, व्यव्हारिक बनो। नही तो जिन्दगी भर ऐसे ही रह जाओगे। मैने उनकी बातो पर आधारित एक और लेख प्रकाशित करवाया। फिर फोन आने बन्द हो गये। सैकडो धन्यवाद पत्र आये किसानो के पर करोडो के इस देश मे इस ठगी को पूरी तरह से रोक पाना मेरे अकेले के बूते से बाहर है।

होम्योपैथी दुनिया भर मे जानी जाती है। मनुष्यो मे इसके प्रभाव पर तो बहुत काम हुआ है पर क्या पौधो मे भी इसका प्रयोग किया जा सकता है? होम्योपैथी दवाओ के कृषि मे उपयोग को एग्रोहोम्योपैथी कहा जाता है। मेरी इस क्षेत्र मे लम्बे समय से रुचि रही है। मैने 20 जीबी की रपट अपने शोध के आधार पर तैयार की है। पर इसे सार्वजनिक नही किया है। बहुत सी बातो पर अभी शोध जारी है। एग्रोहोम्योपैथी पर दुनिया मे मुठ्ठी भर लोग ही काम कर रहे है। यदि आप इंटरनेट पर यह शब्द खोजेंगे तो आपको ज्यादातर मेरे ही शोध कार्यो पर आधारित लिंक मिलेंगे। शोध अभी पूरा नही हुआ है पर किसानो पर गिद्ध दृष्टि गडाये विभिन्न कम्पनियो के लोग सक्रिय हो गये है। पश्चिम बंगाल मे एक विज्ञान सम्मेलन के दौरान कुछ ऐसे ही लोग उपहारो समेत मुझे घेरे रहे। एग्रोहोम्योपैथी पर बात हुयी तो मैने उनसे धीरज रखने को कहा। इस पर वे बोले, आपका नाम काफी है। आपकी साख है। आप कह बस देंगे तो किसान इसे अपना लेंगे। हम आपको उन दवाओ के नाम बता देते है जो कम बिकती है। आप कहे कि इससे फसलोत्पादन बढता है। हर बोरे पर आपका कमीशन होगा आदि-आदि। उनकी उम्मीद के विरुद्ध मैने इंकार कर दिया। बात नही बनी तो वे आवेश मे बोले कि आप नही कहेंगे तो क्या हुआ। हमको और भी लोग मिल जायेंगे। उनका कहना सही ही है। इस देश मे पैसे के नाम पर अमिताभ और शाहरुख जैसे महानायक कुछ भी बेच देते है, अपनी साख दाँव पर लगा देते है,, तो कम्पनी वालो को तो मुझ जैसे लोग मिल ही जायेंगे।

इस लेखमाला का यह लेख भारतीय किसानो का सब कुछ लूटने की बाट जोह रहे गिद्धो की कुछ झलक दिखाता है पर जमीनी स्तर पर हालत बहुत बुरी है। विदर्भ के किसानो की स्थिति हमेशा से आज की तरह नही थी। वे मजे से गाँधी जी वाली खेती कर रहे थे पर उन्हे बीटी कपास की खेती के लिये वैज्ञानिको ने प्रेरित किया फिर सब्जबाग दिखाकर लोन लेने को मजबूर किया। इस खेल मे वैज्ञानिको, बैको, बीज कम्पनियो, खाद निर्माताओ, कीटनाशक विक्रेताओ सभी ने कमाया। जब फसल बिगड गयी तो सब गायब हो गये। जिन लोगो ने किसानो को इस भ्रमजाल मे उलझाया वे आज बेधडक घूम रहे है। क्यो न किसानो की फसल के आधार पर वैज्ञानिको का वेतन तय हो। यदि फसल और किसान की हालत सुधरे तो वेतन के साथ बोनस मिले पर यदि बेतुकी सलाह से उल्टा हो तो वैज्ञानिक को वेतन कम मिले और गल्ती के लिये सजा भी दी जाये। यदि कुछ सालो के लिये किसानो की सेवा का दावा कर रही कृषि संस्थाए बन्द करके उन पर बहाया जा रहा अरबो रुपये सीधे ही किसानो को दिया जाये और उन्हे अपने मन से खेती करने दी जाये तो मुझे लगता है कि इस देश मे खेती की दशा और दिशा सुधरेगी ही। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

जो आप लिख रहें है अच्छा लगा परन्तु मुझे इस अवधिया सरनेम के बारे में ज्यादा उत्सुकता है
नई नई जानकारियाँ मिल रही हैं. लगता है आज आपने दो पोस्ट डाल दिए हैं. आभार.
आपके लेखो से अच्छी जानकारी मिलती है।आभार।
Unknown said…
accha likha hai.....andhviswaas ke khilaaf is jang main hum aapke saath hain.....
aise he hame nayi nayi jaankaari dete rahe...
Pankaj Oudhia said…
ज्ञान दत्त पांडेय जी की टिप्पणी :


बहुत बधाई पंकज जी!

Popular posts from this blog

अच्छे-बुरे भालू, लिंग से बना कामोत्तेजक तेल और निराधार दावे

World Literature on Medicinal Plants from Pankaj Oudhia’s Medicinal Plant Database -719

स्त्री रोग, रोहिना और “ट्री शेड थेरेपी”