अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -71

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -71 - पंकज अवधिया

‘अंकल मेरा हाथ देखिये, पहले मेरा हाथ।‘ यह चिल्लपौ मची थी एक बर्थ डे पार्टी मे जहाँ मै अपने एक मित्र के साथ गया हुआ था। किसी ने पार्टी मे लोगो को बता दिया था कि मित्र हस्त-रेखा विशेषज्ञ है। फिर क्या था सभी उस पर झपट पडे। बच्चो को आगे देखकर बडा विस्मय हुआ। मित्र को एक स्थान पर बिठा दिया गया और लोगो ने अपने हाथ फैला दिये। मित्र ज्यादा कुछ जानता नही था। दो-तीन लोग होते तो रटेरटाये कुछ वाक्यो से बात बन जाती पर यहाँ तो दसो लोग थे और भविष्य़वाणियाँ सार्वजनिक को जाने वाली थी। बच्चो के हाथ देखने से शुरुआत हुयी। सभी अपने कैरियर के बारे मे जानना चाहते थे। धन कितना रहेगा, इसकी जिज्ञासा भी कुछ के मन मे थी। बहुत से बच्चे अपने कार-प्रेम से प्रभावित होकर पूछ रहे थे कि क्या वे कार डिजाइनर बन पायेंगे? मित्र उनसे निपटता रहा। मै भी सामने फैले हाथो की ओर नजर घुमा लिया करता था। मुझे भी उनके हाथो मे बहुत कुछ दिख रहा था। ज्यादातर हाथो से गुलाबीपन गायब था। हथेली सूखी-सूखी थी। उनके नाखून भी अपनी दुख भरी कहानी कह रहे थे। ये आज के बच्चो के हाथ थे जिनका खान-पान बदला हुआ है। बहुत से ऐसे भी बच्चे मिले जिनकी हालत गंभीर लगती थी, हाथो को देखने से। मुझे पूछने की जरुरत नही पडी। वे आपस मे बतिया रहे थे कि मैने 7 किलो वजन कम किया, मैने पाँच किलो वजन कम किया। एक टाइम का नाश्ता बन्द कर दिया है। आदि-आदि। बिना खाये दुबला होने की होड जो हमारी नयी पौध मे लगी है उससे माता-पिता चिंतित नही है। पालको मे भी आपस मे गजब की प्रतिस्पर्धा है। वे खुशी से दूसरो को बता रहे है कि इस “बिन खाये दुबले हो” अभियान के बारे मे। पार्टी मे बुजुर्ग भी थे पर उनकी बोलती बन्द थी। यदि वे कहते भी तो बच्चो को यही कहते कि अभी तो खाने-पीने की उम्र है, मजे करो।

मित्र की एक तरह की बातो से थककर मैने घूमने का मन बनाया। उठा ही था कि मेरी नजर दूर बैठे एक बच्चे पर पडी। क्या उसे अपने भविष्य़ की चिंता नही? क्या उसे अपना हाथ नही दिखाना है? मेरे कदम उसकी ओर बढ चले। मुझे यह लग रहा था कि हो सकता है कि वह कहे, मै इन सब फालतू बातो मे विश्वास नही रखता। केवल कर्म को ही पूजा मानता हूँ। मै नजदीक पहुँचा तो वह बीमार लगा। अपने माँ-बाप के साथ बैठा यह बालक एक इनहेलर रखा हुआ था। बाजू मे दवाओ का बक्सा रखा हुआ था। मै उसके पास जाकर बैठ गया और पूछा कि क्यो क्या हुआ? उसकी माँ ने कहा कि एलर्जी है। जिस शहर मे यह पार्टी हो रही थी वहाँ हर बडे शहर की तरह वे सभी कारण मौजूद थे जिससे किसी को भी एलर्जी हो जाये। धूल थी, कारखानो का धुँआ था और गाजर घास भी थी। पर इस बच्चे के माता-पिता के अनुसार डाक्टर बता नही पा रहे है कि इनमे से किससे एलर्जी है। यह विकट स्थिति थी। विकट इसलिये कि रोग का कारण न पता हो पर फिर भी इलाज चल रहा हो। यानि खालिस प्रयोग पर प्रयोग हो रहे होंगे उस नन्ही सी जान पर। ये कम्बल ओढकर क्यो बैठा है? मैने पूछा। उसके पिता ने कम्बल हटाते हुये हाथ की ओर इशारा किया और कहा कि इसके कारण। ये पूरे शरीर मे है। मैने ध्यान से देखा तो लाल रंग के चकत्ते दिखायी दिये शरीर पर। एलर्जी मे तो ऐसा होता ही है पर चकत्ते कुछ और भी कह रहे थे। पर मैने उस समय चुप ही रहना ठीक समझा।

उनसे बाते चलती रही। खान-पान पर बात पहुँची तो जंक फुड पर भी चर्चा हुयी। बच्चे के माता-पिता ने कहा कि जंक फुड से ये परहेज करता है और आयुर्वेदिक चीजे जैसे च्यवनप्राश खाता है। मेरे शक की पुष्टि हो रही थी पर फिर भी बिना पूरी छानबीन किये मै कुछ कहना नही चाहता था। मैने पूछ ही लिया कि आलू और बैगन कैसे लगते है इसे? जवाब मिला आलू शौक से खाता है पर बैगन कभी-कभी खाता है। मैने हिम्मत करके कह ही दिया कि च्यवनप्राश ही समस्या की जड लगता है। जैसी कि उम्मीद थी, वे बिफर पडे। इसी बीच मेजबान भी आ गये। उन्होने मेरा परिचय कराया। फिर भी बच्चे के पालक सहमत नही दिखे। मैने कहा कि कुछ समय तक च्यवनप्राश न खाये और फर्क अपने आप देख ले। वे इसके लिये तैयार दिखे। हम सब केक काटने और पार्टी मे मशगूल हो गये।

कुछ दिनो बाद उस बच्चे के घर से फोन आया। उन्हे यह महसूस हुआ कि च्यवनप्राश से ही यह गडबड हो रही थी। मैने उनसे कहा कि आप मुझसे मिलने आ जाये। उसी शाम मेजबान सहित वे आ गये। मैने कहा कि इसमे च्यवनप्राश की भूमिका है पर असली खलनायक इसमे उपस्थित एक वनस्पति है जिससे आपके बच्चे को एलर्जी हो रही है। यह वनस्पति है असगन्ध या अश्वगन्धा। यह निश्चित ही दुनिया की जानी-मानी वनस्पति है और दिव्य गुणो से सम्पन्न है पर कुछ लोगो को इससे समस्या भी हो सकती है। जिस भी दवा या टानिक मे इसकी थोडी भी मात्रा होगी, बच्चे पर इसका बुरा प्रभाव चकत्ते के रुप मे दिखेगा। यह बात आप बच्चे को समझा दे ताकि आजीवन वह इस रोग से बचा रहे। यह भी हो सकता है कि उम्र के साथ यह एलर्जी कम हो जाये और चालीस के बाद फिर से लौट आये। बच्चे को आलू और बैगन से परहेज करने को भी कहा। उन्होने मुझे धन्यवाद किया और वापस चले गये। उनके फोन अब भी आते रहते है। बच्चा एलर्जी से दूर है अब।

आधुनिक शोधकर्ताओ ने असगन्ध से होने वाली इस एलर्जी के विषय मे अपने शोध-पत्रो के माध्यम से बताया है। इसके बहुत कम मामले ही सामने आते है क्योकि औषधीय वनस्पतियो के विषय मे यह अन्ध-विश्वास है कि इनसे केवल लाभ होगा। किसी भी प्रकार से हानि हो ही नही सकती। इस अन्ध-विश्वास के चलते देशी वनस्पतियो पर कभी शक नही किया जाता है। दुर्भाग्य से कहे या सौभाग्य से, मैने असगन्ध से एलर्जी के बहुत से मामले देखे है। मुझे यकीन है कि सही मायने मे औषधीय वनस्पतियो को जानने वाले किसी चिकित्सक के पास यह बच्चा जाता तो उसे इस रोग के कारण का पता लग गया होता। हो सकता है कि उसे च्यवनप्राश खाने की सलाह ही नही दी जाती। पर जैसा कि मैने पहले भी लिखा है, हमारे देश मे आयुर्वेदिक दवाए ऐसे बेची जाती है विज्ञापनो के माध्यम से जैसे वे खाने-पीने की बाजारु चीजे हो। मुझे लोग अक्सर कहते है कि आयुर्वेदिक दवाओ के विरोध मे मत लिखो भले ही तुम्हारी बात सच हो। यह भी कहते है कि क्या इससे होने वाले नुकसानो के विषय मे प्राचीन ग्रंथो मे लिखा है?? मेरा उत्तर सीधा होता है। ज्यादातर बाते प्राचीन ग्रंथो मे लिखी है और कुछ नही भी लिखी है और नये शोधो के माध्यम से सामने आ रही है तो इनसे परहेज कैसा? अब दवा कम्पनी वाले कहाँ प्राचीन ग्रंथो के आधार पर उत्पाद बना रहे है। जिस तेजी से इनका प्रचलन आम लोगो मे बढ रहा है और चिकित्सकीय परामर्श के आधार पर दिये जाने वाले च्यवनप्राश जैसे उत्पाद किराना दुकानो मे बिक रहे है, उसी तेजी से नयी स्वास्थ्य समस्याए सामने आ रही है। जन-स्वास्थ्य से खिलवाड चाहे वह किसी भी तरीके से हो, के बारे मे जानकर भी चुप रहना भला कहाँ तक सही है?

मुझे याद आते है वे दिन जब कुछ बडे किसान मेरे तकनीकी मार्गदर्शन मे असगन्ध की जैविक खेती कर रहे थे। उस समय एक सज्जन बोवाई के समय से ही हमसे विनती करते कि फसल तैयार होने पर उनके लिये असगन्ध रखा जाये। चाहे तो पूरे पैसे अभी से ले लिये जाये। एक बार मैने उनसे इस बेसब्री का कारण पूछा तो वे बोले कि बाजार मे मिलने वाले असगन्ध से उन्हे एलर्जी हो जाती है। इसलिये वे सीधे खेत से ले आते है। यह मेरे लिये आश्चर्य की बात थी क्योकि बाजार का असगन्ध भी किसानो से खरीदा हुआ असगन्ध होता है फिर खेत से ले जाने पर एलर्जी क्यो नही होती? बाद मे जब मै देश के दूसरे हिस्सो मे गया और वहाँ असगन्ध की व्यापक पैमाने पर रासायनिक खेती देखी तो सारा माजरा समझ आया। हम जैविक खेती कर रहे थे। सम्भवत: बडे पैमाने पर उगायी जा रही रसायनयुक्त असगन्ध की फसल से ऐसी एलर्जी हो रही हो। इस पर बिना विल्म्ब शोध होने चाहिये और यदि यह बात प्रमाणित होती है तो किसानो से जैविक खेती अपनाने की गुहार की जा सकती है।

आप पाठको से मै यह आशा रखता हूँ कि आप अपने और अपने परिवार को कभी इस तरह खतरे मे नही डालेंगे और हमेशा विशेषज्ञो से परामर्श के बाद ही किसी भी तरह की औषधी का प्रयोग करेंगे। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

Unknown said…
इस जानकारी पूर्ण लेख के लिए धन्यवाद. मुझे लगता है कि शायद इस का कारण रासायनिक खाद का इस्तेमाल है.
आप ने एलर्जी को ही अच्छी तरह समझा दिया है इस अनुभव से। इलाज बीमार को देख कर किया जाता है। बीमारी का कोई इलाज नहीं होता बीमार का होता है। एक ही बीमारी में दो लोग एक ही दवा से ठीक हो जाएं यह जरूरी नहीं। एक के लिए कोई पदार्थ अमृत हो सकता है दूसरे के लिए वही विष भी।
ghughutibasuti said…
बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने। दमा व एलर्जी का कष्ट कोई भुक्तभोगी या इसके परिवार वाले ही जान सकते हैं। क्या अश्वगंधा बैंगन या आलू परिवार का सदस्य है?
घुघूती बासूती
Gyan Darpan said…
बहुत अच्छी जानकारी !
आपने बहुत ही उपयोगी जानकारी प्रदान की.
वास्तव मे ब्लाग लिखने की यही सार्थकता है कि हम अपने अनुभवों एवं ज्ञान से चिट्ठाजगत को लाभान्वित कर सकें, न कि केवलमात्र इधर-उधर की बातों में समय नष्ट किया जाए.
आप बहुत अच्छा कार्य कर रहें है, धन्यवाद स्वीकार करें

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