मनहर, गुडरिया, कर्रा और मछलियाँ
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-4
- पंकज अवधिया
चार जून, 2009
मनहर, गुडरिया, कर्रा और मछलियाँ
नाश्ता करने की गरज से गाँव के एक जलपान गृह मे रुके ही थे कि बहुत से हष्ट-पुष्ट बदन वाले लोग आ गये। उनके पीछे पालकीनुमा कोई चीज थी। मैने कैमरा निकाल लिया। पास आने पर पता चला कि वे पीछे तालाब से मछली पकड आ रहे थे। दो लम्बे बाँसो के बीच पालकीनुमा चीज दरअसल उनके बडे भारी जाल थे। जलपान गृह मे वे चाय पीने के लिये रुके थे। फिर उनका इरादा खस्ता खा लेने का हुआ जो चाय से भी सस्ते यानि सिर्फ पचास पैसे मे आता है। वे मुझे रुचि से देखने लगे। ड्रायवर ने पहल की और पूछा कि ढीमर हो क्या? उन्होने कहा कि नही, गोंड है। मैने जंगलो की ओर इशारा करते हुये कहा कि इस खजाने के रहते भी जाल से मछली पकडते हो? मछली पकडने के लिये उपयोगी वनस्पतियो के बारे नही जानते हो क्या? उनमे से कुछ ने अनिभिज्ञता दिखायी जबकि कुछ ने कहा कि मनहर नाम की वनस्पति से हम मछली पकडते है पर यह साल भर नही मिलती। मैने कहा कि यह काम तो कर्रा से भी कर सकते है। वे सब एक स्वर मे बोल पडे, अरे साहब, कर्रा से मछली नही पकडी जाती। आप कुछ भूल कर रहे है। कर्रा जहरीला पौधा है। जब धान के खेत मे बंकी नामक कीट का प्रकोप होता है और सभी उपलब्ध कीटनाशक असफल हो जाते है तब हम कर्रा का उपयोग करते है। कर्रा युक्त पानी से धान का रंग ही बदल जाता है। कीटो से मुक्ति मिल जाती है। पर मछली नही पकडी जाती। मैने जोर दिया पर वे मानने को तैयार नही हुये। “चलो ठीक है, आस-पास पानी की डबरी हो तो मै यह कमाल दिखा सकता हूँ।“ मैने कहा और वे तैयार हो गये।
आनन-फानन मे कर्रा के फल एकत्र कर लिये गये। डबरी के थोडे से पानी मे इन फलो को पीसकर मिलाया गया। बस कुछ समय मे ही मछलियाँ बेसुध होकर तैरने लगी। उनके आश्चर्य का ठिकाना नही रहा। सारी मछलियाँ एक बार मे ही बटोर ली गयी। इस बीच उनके बुजुर्ग भी आ गये। किसी युवा ने जब मछली को मुँह मे डालने की कोशिश की तो वे चिल्ला पडे। मैने बुजुर्गो का समर्थन किया। अभी मछलियाँ खाने लायक नही थी। कर्रा के जहर से मनुष्यो को नुकसान न हो इसके लिये शोधन की जरुरत थी। मैने उन्हे विधि बतायी। बुजुर्गो ने सहमति जतायी।
“फिश-पायजन” के रुप मे बहुत सी वनस्पतियाँ देश भर मे प्रयोग की जाती है। मैने उत्तरी बंगाल के गाँवो मे ऐसे बहुत से प्रयोग देखे है। एक बार मुझे बतौर जडी-बूटी सलाहकार एक प्लाइवुड कम्पनी ने आमंत्रित किया। खाली समय मे जब मै उनकी सा मिले मे घूम रहा था तब मुझे ग्रामीणो की भीड दिखायी दी। वे मिल के सामने एक खास लकडी की छीलन बटोरने खडे हुये थे। मिल से उन्हे यह मुफ्त मे मिल जाती थी। वे इस छीलन को किसी भी जल स्त्रोत मे डाल देते थे। कुछ ही मिनटो मे मछलियाँ बेसुध होकर सतह पर आ जाती थी। फिर बिना श्रम के उन्हे एकत्र कर वे ले आते थे। मैने वहाँ के साप्ताहिक बाजार मे मछली बिकती नही देखी तो बडा ही आश्चर्य हुआ। मुझे बताया गया कि सभी इतनी आसानी से मछली पकडना जानते है तो भला बाजार से पैसे देकर मछली कौन खरीदेगा? मैने आस-पास के जलस्त्रोतो को मछली विहीन पाया।
छत्तीसगढ के कई भागो मे गुडरिया नामक शीतकालीन वनस्पति के प्रयोग से इस तरह मछलियाँ पकडी जाती है। अब तक अपने सर्वेक्षणो के माध्यम से मैने सैकडो ऐसी वनस्पतियो के विषय मे जानकारी एकत्र की है। इन वनस्पतियो के प्रयोग की अनगिनत विधियाँ है पर सभी की अपनी सीमाए है। मसलन कर्रा का ही उदाहरण ले। आपने पढा कि कैसे कर्रा से उपचारित जल से एकत्र की गयी मछलियो को खाने से पहले शोधन जरुरी है। फिर कर्रा का प्रयोग छोटे जल स्त्रोतो मे किया जा सकता है। बडे तालाबो जिनका प्रयोग ग्रामीण और उनके पशु करते है, मे कर्रा के प्रयोग की बात सोची भी नही जा सकती। इसी तरह मनहर के फल साल भर नही उगते। गुडरिया से गर्मियो मे यह काम नही लिया जा सकता। सभी के साथ ऐसी सीमाए क्यो है? इस पर पारम्परिक चिकित्सक कहते है कि यदि ऐसी कोई आदर्श वनस्पति मिल गयी तो मनुष्य़ कुछ ही समय मे इस दुनिया से मछलियो का अस्तित्व मिटा देगा। माँ प्रकृति इस बात को जानती है। उनके लिये तो मनुष्य़ और मछलियाँ एक समान है। इसलिये ऐसी व्यवस्था है। पर माँ प्रकृति हर बार सफल नही हो पाती है।
बहुत कम लोग यह जानते है कि बायोडीजल के लिये लगाये जा रहे रतनजोत (जैट्रोफा) मे भी फिश पायजन के गुण होते है। आधुनिक शोधो द्वारा रतनजोत के इस प्रयोग को मान्यता मिल चुकी है। पर ये शोध साफ चेताते है कि रतनजोत के जहर से मरी मछलियाँ किसी भी रुप मे मनुष्यो के सेवन के योग्य नही है। शोधन के बाद भी। जब कोई बडी योजना लम्बे समय के लिये बनायी जाती है तो सभी से सलाह मशविरा की जरुरत नही समझी जाती है। कुछ लोग ही इस तरह की योजनाओ को क्रियांवित कर देते है। छत्तीसगढ मे जब रतनजोत का ज्वर चढा तो सभी जगह रतनजोत लगाया जाने लगा। राजनेताओ को खुश करने के लिये अफसरो ने बडे बाँध से जल आपूर्ति करने वाली बडी नहरो के दोनो ओर सैकडो किलोमीटर तक रतनजोत रोप दिया। टारगेट पूरा हो गया। अब पचास साल से अधिक वर्षो तक रतनजोत इसी जगह पर जमे हुये फलता-फूलता रहेगा। इसके असंख्य जहरीले बीज पानी मे गिरते रहेंगे। दशको तक अंजाने ही मछलियाँ मरती रहेंगी। इन नहरो के पानी का उपयोग पीने के लिये होता है। अंजाने रुप से रतनजोत का जहर शरीर मे पहुँचता रहेगा। हजारो लोग इस पानी मे स्नान करते है इन नहरो के किनारो पर। उनकी त्वचा के सम्पर्क मे जहरीला पानी आयेगा। कैंसर विशेषज्ञ तो पहले ही सिद्ध कर चुके है कि रतनजोत के पौध भाग विशेषकर तेल के सम्पर्क से त्वचा का कैंसर होता है। इसका मतलब अगली कई पीढीयो तक रोग और अकाल मौत का प्रबन्ध कर दिया गया है। जब विकराल रुप मे यह समस्या सामने आयेगी तो न राजनेता रहेंगे और न ही अफसर।
राजनेता और अफसर कह सकते है कि उन्हे इसके बारे मे बिल्कुल भी जानकारी नही थी। वे सही हो सकते है पर यदि उन्होने राजनीतिक द्वेषो को बगल मे रखकर खुलेमन से सबसे राय लेकर योजना बनायी होती तो ऐसे आत्मघाती कदम कभी नही उठते। (क्रमश:)
कर्रा के फल
गुडरिया की तस्वीर
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
- पंकज अवधिया
चार जून, 2009
मनहर, गुडरिया, कर्रा और मछलियाँ
नाश्ता करने की गरज से गाँव के एक जलपान गृह मे रुके ही थे कि बहुत से हष्ट-पुष्ट बदन वाले लोग आ गये। उनके पीछे पालकीनुमा कोई चीज थी। मैने कैमरा निकाल लिया। पास आने पर पता चला कि वे पीछे तालाब से मछली पकड आ रहे थे। दो लम्बे बाँसो के बीच पालकीनुमा चीज दरअसल उनके बडे भारी जाल थे। जलपान गृह मे वे चाय पीने के लिये रुके थे। फिर उनका इरादा खस्ता खा लेने का हुआ जो चाय से भी सस्ते यानि सिर्फ पचास पैसे मे आता है। वे मुझे रुचि से देखने लगे। ड्रायवर ने पहल की और पूछा कि ढीमर हो क्या? उन्होने कहा कि नही, गोंड है। मैने जंगलो की ओर इशारा करते हुये कहा कि इस खजाने के रहते भी जाल से मछली पकडते हो? मछली पकडने के लिये उपयोगी वनस्पतियो के बारे नही जानते हो क्या? उनमे से कुछ ने अनिभिज्ञता दिखायी जबकि कुछ ने कहा कि मनहर नाम की वनस्पति से हम मछली पकडते है पर यह साल भर नही मिलती। मैने कहा कि यह काम तो कर्रा से भी कर सकते है। वे सब एक स्वर मे बोल पडे, अरे साहब, कर्रा से मछली नही पकडी जाती। आप कुछ भूल कर रहे है। कर्रा जहरीला पौधा है। जब धान के खेत मे बंकी नामक कीट का प्रकोप होता है और सभी उपलब्ध कीटनाशक असफल हो जाते है तब हम कर्रा का उपयोग करते है। कर्रा युक्त पानी से धान का रंग ही बदल जाता है। कीटो से मुक्ति मिल जाती है। पर मछली नही पकडी जाती। मैने जोर दिया पर वे मानने को तैयार नही हुये। “चलो ठीक है, आस-पास पानी की डबरी हो तो मै यह कमाल दिखा सकता हूँ।“ मैने कहा और वे तैयार हो गये।
आनन-फानन मे कर्रा के फल एकत्र कर लिये गये। डबरी के थोडे से पानी मे इन फलो को पीसकर मिलाया गया। बस कुछ समय मे ही मछलियाँ बेसुध होकर तैरने लगी। उनके आश्चर्य का ठिकाना नही रहा। सारी मछलियाँ एक बार मे ही बटोर ली गयी। इस बीच उनके बुजुर्ग भी आ गये। किसी युवा ने जब मछली को मुँह मे डालने की कोशिश की तो वे चिल्ला पडे। मैने बुजुर्गो का समर्थन किया। अभी मछलियाँ खाने लायक नही थी। कर्रा के जहर से मनुष्यो को नुकसान न हो इसके लिये शोधन की जरुरत थी। मैने उन्हे विधि बतायी। बुजुर्गो ने सहमति जतायी।
“फिश-पायजन” के रुप मे बहुत सी वनस्पतियाँ देश भर मे प्रयोग की जाती है। मैने उत्तरी बंगाल के गाँवो मे ऐसे बहुत से प्रयोग देखे है। एक बार मुझे बतौर जडी-बूटी सलाहकार एक प्लाइवुड कम्पनी ने आमंत्रित किया। खाली समय मे जब मै उनकी सा मिले मे घूम रहा था तब मुझे ग्रामीणो की भीड दिखायी दी। वे मिल के सामने एक खास लकडी की छीलन बटोरने खडे हुये थे। मिल से उन्हे यह मुफ्त मे मिल जाती थी। वे इस छीलन को किसी भी जल स्त्रोत मे डाल देते थे। कुछ ही मिनटो मे मछलियाँ बेसुध होकर सतह पर आ जाती थी। फिर बिना श्रम के उन्हे एकत्र कर वे ले आते थे। मैने वहाँ के साप्ताहिक बाजार मे मछली बिकती नही देखी तो बडा ही आश्चर्य हुआ। मुझे बताया गया कि सभी इतनी आसानी से मछली पकडना जानते है तो भला बाजार से पैसे देकर मछली कौन खरीदेगा? मैने आस-पास के जलस्त्रोतो को मछली विहीन पाया।
छत्तीसगढ के कई भागो मे गुडरिया नामक शीतकालीन वनस्पति के प्रयोग से इस तरह मछलियाँ पकडी जाती है। अब तक अपने सर्वेक्षणो के माध्यम से मैने सैकडो ऐसी वनस्पतियो के विषय मे जानकारी एकत्र की है। इन वनस्पतियो के प्रयोग की अनगिनत विधियाँ है पर सभी की अपनी सीमाए है। मसलन कर्रा का ही उदाहरण ले। आपने पढा कि कैसे कर्रा से उपचारित जल से एकत्र की गयी मछलियो को खाने से पहले शोधन जरुरी है। फिर कर्रा का प्रयोग छोटे जल स्त्रोतो मे किया जा सकता है। बडे तालाबो जिनका प्रयोग ग्रामीण और उनके पशु करते है, मे कर्रा के प्रयोग की बात सोची भी नही जा सकती। इसी तरह मनहर के फल साल भर नही उगते। गुडरिया से गर्मियो मे यह काम नही लिया जा सकता। सभी के साथ ऐसी सीमाए क्यो है? इस पर पारम्परिक चिकित्सक कहते है कि यदि ऐसी कोई आदर्श वनस्पति मिल गयी तो मनुष्य़ कुछ ही समय मे इस दुनिया से मछलियो का अस्तित्व मिटा देगा। माँ प्रकृति इस बात को जानती है। उनके लिये तो मनुष्य़ और मछलियाँ एक समान है। इसलिये ऐसी व्यवस्था है। पर माँ प्रकृति हर बार सफल नही हो पाती है।
बहुत कम लोग यह जानते है कि बायोडीजल के लिये लगाये जा रहे रतनजोत (जैट्रोफा) मे भी फिश पायजन के गुण होते है। आधुनिक शोधो द्वारा रतनजोत के इस प्रयोग को मान्यता मिल चुकी है। पर ये शोध साफ चेताते है कि रतनजोत के जहर से मरी मछलियाँ किसी भी रुप मे मनुष्यो के सेवन के योग्य नही है। शोधन के बाद भी। जब कोई बडी योजना लम्बे समय के लिये बनायी जाती है तो सभी से सलाह मशविरा की जरुरत नही समझी जाती है। कुछ लोग ही इस तरह की योजनाओ को क्रियांवित कर देते है। छत्तीसगढ मे जब रतनजोत का ज्वर चढा तो सभी जगह रतनजोत लगाया जाने लगा। राजनेताओ को खुश करने के लिये अफसरो ने बडे बाँध से जल आपूर्ति करने वाली बडी नहरो के दोनो ओर सैकडो किलोमीटर तक रतनजोत रोप दिया। टारगेट पूरा हो गया। अब पचास साल से अधिक वर्षो तक रतनजोत इसी जगह पर जमे हुये फलता-फूलता रहेगा। इसके असंख्य जहरीले बीज पानी मे गिरते रहेंगे। दशको तक अंजाने ही मछलियाँ मरती रहेंगी। इन नहरो के पानी का उपयोग पीने के लिये होता है। अंजाने रुप से रतनजोत का जहर शरीर मे पहुँचता रहेगा। हजारो लोग इस पानी मे स्नान करते है इन नहरो के किनारो पर। उनकी त्वचा के सम्पर्क मे जहरीला पानी आयेगा। कैंसर विशेषज्ञ तो पहले ही सिद्ध कर चुके है कि रतनजोत के पौध भाग विशेषकर तेल के सम्पर्क से त्वचा का कैंसर होता है। इसका मतलब अगली कई पीढीयो तक रोग और अकाल मौत का प्रबन्ध कर दिया गया है। जब विकराल रुप मे यह समस्या सामने आयेगी तो न राजनेता रहेंगे और न ही अफसर।
राजनेता और अफसर कह सकते है कि उन्हे इसके बारे मे बिल्कुल भी जानकारी नही थी। वे सही हो सकते है पर यदि उन्होने राजनीतिक द्वेषो को बगल मे रखकर खुलेमन से सबसे राय लेकर योजना बनायी होती तो ऐसे आत्मघाती कदम कभी नही उठते। (क्रमश:)
कर्रा के फल
गुडरिया की तस्वीर
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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