रुको, मत मारो, मुझे तेन्दुए से बात तो कर लेने दो
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-21
- पंकज अवधिया
रुको, मत मारो, मुझे तेन्दुए से बात तो कर लेने दो
“सिट, टेक फुड, सिट-सिट, गुड ब्वाय, ओह नो, यू ब्लडी बास्ट*-----।“ जंगल के एक अधिकारी शहर के बाहरी हिस्से से पकडे गये एक तेन्दुए को यह सब कह रहे थे। तेन्दुआ एक छोटे से पिंजरे मे बन्द था। पिंजरा इतना छोटा था कि वह ठीक से घूम भी नही सकता था। खडा होता तो सिर लोहे की जाली से टकरा जाता। उसे खाना दिया जा रहा था पर वह कैसे भी बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था। उसके चारो ओर लोगो का हुजूम लगा हुआ था। वे चिल्ला रहे थे। ऐसी आवाजे निकाल रहे थे जिससे तेन्दुआ आवेश मे आकर जोर से आवाज निकाले। इससे भीड का मनोरंजन होता। अधिकारी थोडा हटते तो लोग कंकड भी पिंजरे के अन्दर फेकते। अधिकारी की अंग्रेजी मे बडबड सुनकर बाजू मे खडे एक अदने से कर्मचारी ने कहा कि साहब, इससे छत्तीसगढी मे बोलिय्रे। यह अंग्रेजी नही समझेगा। इस पर अधिकारी ने घूर कर उस कर्मचारी को देखा और फिर कहा कि साहब, तुम हो कि मै? तेन्दुआ क्या आदमियो का भाषा समझता है?
बात आयी-गयी हो गयी। साहब शान से क्लब मे यह किस्सा सुनाते और उनके साथी घंटो तक अदने से कर्मचारी की बात पर हँसते रहते। मैने यह किस्सा कर्मचारी नही बल्कि उस अधिकारी से सुना था। पर मुझे हँसी नही आयी। आज समाचार पत्रो मे छपी एक खबर की ओर मैने उनका ध्यान दिलाया तो उनकी भी हँसी रुक गयी।
खबर थी कि मुम्बई के चिडियाघर के किसी उच्च अधिकारी को कन्नड सीखनी पड रही है जिससे वे बाघ से बात कर सके। दरअसल यह बाघ बंगलुरु से लाया गया है और यह केवल कन्नड मे दिये गये निर्देशो को समझ पाता है। इस खबर से कर्मचारी की खिल्ली उडा रहे अधिकारी के होश उड गये। उन्होने उस कर्मचारी को बुलवाकर उससे माफी माँग ली। चलिये उन्होने देर से ही सही पर अपना साहबपना तो छोडा। मुझे मालूम है कि आपमे से बहुतो के लिये यह आश्चर्य का विषय होगा कि जंगली जानवर स्थानीय भाषा को कुछ-कुछ समझते है। भले ही वे सटीक अर्थ न जाने पर बोलने के ढंग से काफी कुछ समझ जाते है।
जंगल यात्रा के दौरान चाहे-अनचाहे जंगली जानवरो से मुलाकात हो जाती है। साथ चल रहे लोग बहुत बार अंग्रेजी या हिन्दी का प्रयोग करते है, ऐसे मे स्थानीय लोग छत्तीसगढी या दूसरी स्थानीय भाषाओ के कडे प्रयोग की बात करते है। मैने अपने लेखो मे यह बार-बार लिखा है कि कैसे पारम्परिक चिकित्सक सरल स्थानीय भाषा के प्रयोग से जंगली जानवरो से होने वाली सम्भावित मुठभेड को टाल देते है।
कुछ दिनो से रायपुर के बाहरी क्षेत्र मे एक तेन्दुए के दिखने की खबर है। आज सुबह ही अखबार मे छपा है कि वैगन रिपेयर वर्कशाप परिसर मे किसी रेल्वे अधिकारी के ऊपर उसने उस समय हमला कर दिया जब वे सुबह टहल रहे थे। उन्होने शोर मचाया तो दूसरे कर्मचारी आ गये। इस बीच तेन्दुआ भाग गया। अब जोर-शोर से तेन्दुए को घेरने की तैयारियाँ चल रही है। कुछ दिनो पहले ऐसी ही शिकायत आयी थी तब वन विभाग की गश्त बढा दी गयी थी। उस समय एक लकडबग्घा दिखा था। विभाग ने यह मान लिया कि इसी ने आक्रमण किया होगा। रात को मशाल जलाकर तेन्दुए की खोज की जा रही है। मैने पहले लिखा है कि रायपुर के आस-पास किसी जंगल तक पहुँचने मे डेढ-दो घंटो से कम का समय नही लगता है। रायपुर जंगल से सटा हुआ नही है। पर जिस भाग मे जंगली जानवर आजकल मिल रहे है वह दो सौ एकड की खाली जमीन है जहाँ झाडियाँ उग आयी है। पहले वहाँ भारतीय सेना की छावनी थी। जंगली जानवर वहाँ कैसे पहुँच रहे है, यह पहेली ही है। वन विभाग वाले जैसे सब जानते है। वे कहते है कि जंगलो से गुजरने वाली मालगाडी पर वे सवार हो जाते है और फिर यहाँ उतर जाते है। ऐसे यात्री जंगली जानवरो के बारे मे पहले कभी नही सुना गया है। वन विभाग इसी थ्योरी पर अटका हुआ है।
तेन्दुए ने रेल्वे के अधिकारी पर हमला किया, ये बात कुछ हजम नही हो रही है। ज्यादातर मामलो मे परेशान नही किये जाने पर तेन्दुए आदमियो से उलझते नही है। यदि जंगली जानवरो के साथ बच्चे हो या आप उनके क्षेत्र मे दखल करे तो ही वे आक्रमण करते है। जंगल मे माँद मे बैठे तेन्दुए की ओर पीठ करके हमने घंटो की कडी मेहनत से पातालकुम्हडा के कन्द एकत्र किये है। न हमने तेन्दुए मे रुचि, ली न ही उसने हममे। फिर इस शहर मे आकर उसे क्या हो गया?
शहरी हो या ग्रामीण सभी जानते है कि जंगल कम हो रहे है इसलिये जानवर मानव बस्ती की ओर आ रहे है। इस बार तो मानसून मे हो रही देरी ने वन्य प्राणियो को बेहाल कर दिया है। वे बडी संख्या मे जंगल से बाहर निकलकर पानी की तलाश कर रहे है। हो सकता है ऐसे ही पानी की तलाश मे यह तेन्दुआ रायपुर के पास आ गया हो। किसी क्षेत्र मे तेन्दुआ है कि नही, यह जानना मुश्किल काम नही है। वन विभाग के लिये और भी मुश्किल नही। फिर तेन्दुए वाले क्षेत्र मे बडी संख्या मे जाकर शोर मचाना, मशाले जलाकर चकाचौन्ध करने की जरुरत क्या है? इससे तो तेन्दुआ अपने आप को प्रभावित महसूस करेगा और इंसानो को दुश्मन मान बैठेगा। उस क्षेत्र मे उसकी उपस्थित जानने के लिये इंसानो को जंगली व्यवहार करना जरुरी नही है। खबरे कहती है कि तेन्दुए को पकडने के लिये बकरा बाँधा जा रहा है। पर अनुभव बताता है कि यह विधि बहुत समय और धैर्य दोनो माँगती है। इस बीच हो सकता है कि फिर तेन्दुए और इंसानो की झडप हो जाये। ऐसे मे तेन्दुए से कैसे निपटा जाये? इसका जवाब उन्ही जंगलो के लोग देते है जहाँ तेन्दुए रहते है। अभी तो कही भी पानी की व्यवस्था कर दी जाये तो झट से उस क्षेत्र के जंगली जानवर वहाँ आ जायेंगे। किसी सूखी पडी डबरी मे टैकर से पानी डालकर भी यह काम किया जा सकता है। पास मे वाच टावर या गाडी खडी करके निगरानी रखिये, आपको कितने जानवर है, यह पता लग जायेगा। एक बार उसका अता-पता जानने के बाद फिर उससे निपटा जा सकता है।
तेन्दुए को कैद करके उसे तंग पिंजरे मे रखना और कुछ समय बाद उसे फिर जंगल मे छोड देना, यह प्रक्रिया जंगल और इंसानो दोनो के लिये सही नही जान पडती है। पर वन विभाग तो जैसे लकीर का फकीर है। वह इसी राह पर चलता है। अपनी जंगल यात्रा के दौरान बहुत बार मैने साथ चल रहे लोगो को तेन्दुए को देखकर ये कहते हुये सुना है कि ये पिंजरे से छूटा हुआ तेन्दुआ है। ऐसे तेन्दुए अपने आपको इंसानो से बचाते फिरते है और यदि कोई इंसान गल्ती से सामने आ जाये तो अपने पूर्व अनुभव के चलते आक्रमण करने मे देरी नही करते है। यह गौर करने वाली बात है कि उनके आक्रमण का उद्देश्य जान लेना नही होता है। वे घायल करके इंसानो को अक्षम कर देते है। फिर उन्हे वैसा ही छोड कर चले जाते है।
बहुत से मामलो मे एक बार पकडे जाने के बाद वन विभाग उन्हे चिडियाघर भेज देता है। वहाँ पिंजरे मे वे गोल चक्कर लगाते रहते है दिन-रात। आपको वे सामान्य लगे पर वे वास्तव मे अपना मानसिक संतुलन खो चुके होते है। यदि उन्हे फिर से बाहर छोड दिया जाये तो भी वे वैसे ही गोल चक्कर लगाते रहेंगे।
आज मैने बहुत कोशिश की कि उस क्षेत्र मे जा सकूँ जहाँ तेन्दुआ दिखा है। वन विभाग के साथ रात की गश्त कर सकूँ। मै एक बार तेन्दुए से रुबरु होना चाहता हूँ ताकि मै अपने अनुभव से यह जान सकूँ कि आखिर उसे परेशानी क्या है? उसे अभिव्यक्ति का अवसर दिये बिना ही बर्बरता से कब्जे मे ले लेना मुझे सही नही जान पडता है। तेन्दुए और दूसरे जंगली जानवर इस क्षेत्र मे लगातार आ रहे है। समस्या की जड जानना जरुरी है। यदि जड पता लग गयी तो हम बिना इन्सानो और जानवरो को नुकसान पहुँचाये बीच का रास्ता निकाल सकते है। अभी रात के एक बज रहे है। बारह बजे मुझे उस इलाके मे जाना था। मै फोन का इंतजार कर रहा हूँ। सुबह चार तक भी फोन आ जाये तो मै अपनी गाडी मे निकल जाऊँगा। यदि ऐसा नही हुआ तो मै कल सुबह दस बजे वहाँ जाने की कोशिश करुंगा। इतना बडा राज्य है पर कोई भी प्राणी विशेषज्ञ तेन्दुए की सुध लेने इच्छुक नही दिखता। आखिर किसी को तो जाना ही होगा तेन्दुए से बात करने----- (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
- पंकज अवधिया
रुको, मत मारो, मुझे तेन्दुए से बात तो कर लेने दो
“सिट, टेक फुड, सिट-सिट, गुड ब्वाय, ओह नो, यू ब्लडी बास्ट*-----।“ जंगल के एक अधिकारी शहर के बाहरी हिस्से से पकडे गये एक तेन्दुए को यह सब कह रहे थे। तेन्दुआ एक छोटे से पिंजरे मे बन्द था। पिंजरा इतना छोटा था कि वह ठीक से घूम भी नही सकता था। खडा होता तो सिर लोहे की जाली से टकरा जाता। उसे खाना दिया जा रहा था पर वह कैसे भी बाहर निकलने की कोशिश कर रहा था। उसके चारो ओर लोगो का हुजूम लगा हुआ था। वे चिल्ला रहे थे। ऐसी आवाजे निकाल रहे थे जिससे तेन्दुआ आवेश मे आकर जोर से आवाज निकाले। इससे भीड का मनोरंजन होता। अधिकारी थोडा हटते तो लोग कंकड भी पिंजरे के अन्दर फेकते। अधिकारी की अंग्रेजी मे बडबड सुनकर बाजू मे खडे एक अदने से कर्मचारी ने कहा कि साहब, इससे छत्तीसगढी मे बोलिय्रे। यह अंग्रेजी नही समझेगा। इस पर अधिकारी ने घूर कर उस कर्मचारी को देखा और फिर कहा कि साहब, तुम हो कि मै? तेन्दुआ क्या आदमियो का भाषा समझता है?
बात आयी-गयी हो गयी। साहब शान से क्लब मे यह किस्सा सुनाते और उनके साथी घंटो तक अदने से कर्मचारी की बात पर हँसते रहते। मैने यह किस्सा कर्मचारी नही बल्कि उस अधिकारी से सुना था। पर मुझे हँसी नही आयी। आज समाचार पत्रो मे छपी एक खबर की ओर मैने उनका ध्यान दिलाया तो उनकी भी हँसी रुक गयी।
खबर थी कि मुम्बई के चिडियाघर के किसी उच्च अधिकारी को कन्नड सीखनी पड रही है जिससे वे बाघ से बात कर सके। दरअसल यह बाघ बंगलुरु से लाया गया है और यह केवल कन्नड मे दिये गये निर्देशो को समझ पाता है। इस खबर से कर्मचारी की खिल्ली उडा रहे अधिकारी के होश उड गये। उन्होने उस कर्मचारी को बुलवाकर उससे माफी माँग ली। चलिये उन्होने देर से ही सही पर अपना साहबपना तो छोडा। मुझे मालूम है कि आपमे से बहुतो के लिये यह आश्चर्य का विषय होगा कि जंगली जानवर स्थानीय भाषा को कुछ-कुछ समझते है। भले ही वे सटीक अर्थ न जाने पर बोलने के ढंग से काफी कुछ समझ जाते है।
जंगल यात्रा के दौरान चाहे-अनचाहे जंगली जानवरो से मुलाकात हो जाती है। साथ चल रहे लोग बहुत बार अंग्रेजी या हिन्दी का प्रयोग करते है, ऐसे मे स्थानीय लोग छत्तीसगढी या दूसरी स्थानीय भाषाओ के कडे प्रयोग की बात करते है। मैने अपने लेखो मे यह बार-बार लिखा है कि कैसे पारम्परिक चिकित्सक सरल स्थानीय भाषा के प्रयोग से जंगली जानवरो से होने वाली सम्भावित मुठभेड को टाल देते है।
कुछ दिनो से रायपुर के बाहरी क्षेत्र मे एक तेन्दुए के दिखने की खबर है। आज सुबह ही अखबार मे छपा है कि वैगन रिपेयर वर्कशाप परिसर मे किसी रेल्वे अधिकारी के ऊपर उसने उस समय हमला कर दिया जब वे सुबह टहल रहे थे। उन्होने शोर मचाया तो दूसरे कर्मचारी आ गये। इस बीच तेन्दुआ भाग गया। अब जोर-शोर से तेन्दुए को घेरने की तैयारियाँ चल रही है। कुछ दिनो पहले ऐसी ही शिकायत आयी थी तब वन विभाग की गश्त बढा दी गयी थी। उस समय एक लकडबग्घा दिखा था। विभाग ने यह मान लिया कि इसी ने आक्रमण किया होगा। रात को मशाल जलाकर तेन्दुए की खोज की जा रही है। मैने पहले लिखा है कि रायपुर के आस-पास किसी जंगल तक पहुँचने मे डेढ-दो घंटो से कम का समय नही लगता है। रायपुर जंगल से सटा हुआ नही है। पर जिस भाग मे जंगली जानवर आजकल मिल रहे है वह दो सौ एकड की खाली जमीन है जहाँ झाडियाँ उग आयी है। पहले वहाँ भारतीय सेना की छावनी थी। जंगली जानवर वहाँ कैसे पहुँच रहे है, यह पहेली ही है। वन विभाग वाले जैसे सब जानते है। वे कहते है कि जंगलो से गुजरने वाली मालगाडी पर वे सवार हो जाते है और फिर यहाँ उतर जाते है। ऐसे यात्री जंगली जानवरो के बारे मे पहले कभी नही सुना गया है। वन विभाग इसी थ्योरी पर अटका हुआ है।
तेन्दुए ने रेल्वे के अधिकारी पर हमला किया, ये बात कुछ हजम नही हो रही है। ज्यादातर मामलो मे परेशान नही किये जाने पर तेन्दुए आदमियो से उलझते नही है। यदि जंगली जानवरो के साथ बच्चे हो या आप उनके क्षेत्र मे दखल करे तो ही वे आक्रमण करते है। जंगल मे माँद मे बैठे तेन्दुए की ओर पीठ करके हमने घंटो की कडी मेहनत से पातालकुम्हडा के कन्द एकत्र किये है। न हमने तेन्दुए मे रुचि, ली न ही उसने हममे। फिर इस शहर मे आकर उसे क्या हो गया?
शहरी हो या ग्रामीण सभी जानते है कि जंगल कम हो रहे है इसलिये जानवर मानव बस्ती की ओर आ रहे है। इस बार तो मानसून मे हो रही देरी ने वन्य प्राणियो को बेहाल कर दिया है। वे बडी संख्या मे जंगल से बाहर निकलकर पानी की तलाश कर रहे है। हो सकता है ऐसे ही पानी की तलाश मे यह तेन्दुआ रायपुर के पास आ गया हो। किसी क्षेत्र मे तेन्दुआ है कि नही, यह जानना मुश्किल काम नही है। वन विभाग के लिये और भी मुश्किल नही। फिर तेन्दुए वाले क्षेत्र मे बडी संख्या मे जाकर शोर मचाना, मशाले जलाकर चकाचौन्ध करने की जरुरत क्या है? इससे तो तेन्दुआ अपने आप को प्रभावित महसूस करेगा और इंसानो को दुश्मन मान बैठेगा। उस क्षेत्र मे उसकी उपस्थित जानने के लिये इंसानो को जंगली व्यवहार करना जरुरी नही है। खबरे कहती है कि तेन्दुए को पकडने के लिये बकरा बाँधा जा रहा है। पर अनुभव बताता है कि यह विधि बहुत समय और धैर्य दोनो माँगती है। इस बीच हो सकता है कि फिर तेन्दुए और इंसानो की झडप हो जाये। ऐसे मे तेन्दुए से कैसे निपटा जाये? इसका जवाब उन्ही जंगलो के लोग देते है जहाँ तेन्दुए रहते है। अभी तो कही भी पानी की व्यवस्था कर दी जाये तो झट से उस क्षेत्र के जंगली जानवर वहाँ आ जायेंगे। किसी सूखी पडी डबरी मे टैकर से पानी डालकर भी यह काम किया जा सकता है। पास मे वाच टावर या गाडी खडी करके निगरानी रखिये, आपको कितने जानवर है, यह पता लग जायेगा। एक बार उसका अता-पता जानने के बाद फिर उससे निपटा जा सकता है।
तेन्दुए को कैद करके उसे तंग पिंजरे मे रखना और कुछ समय बाद उसे फिर जंगल मे छोड देना, यह प्रक्रिया जंगल और इंसानो दोनो के लिये सही नही जान पडती है। पर वन विभाग तो जैसे लकीर का फकीर है। वह इसी राह पर चलता है। अपनी जंगल यात्रा के दौरान बहुत बार मैने साथ चल रहे लोगो को तेन्दुए को देखकर ये कहते हुये सुना है कि ये पिंजरे से छूटा हुआ तेन्दुआ है। ऐसे तेन्दुए अपने आपको इंसानो से बचाते फिरते है और यदि कोई इंसान गल्ती से सामने आ जाये तो अपने पूर्व अनुभव के चलते आक्रमण करने मे देरी नही करते है। यह गौर करने वाली बात है कि उनके आक्रमण का उद्देश्य जान लेना नही होता है। वे घायल करके इंसानो को अक्षम कर देते है। फिर उन्हे वैसा ही छोड कर चले जाते है।
बहुत से मामलो मे एक बार पकडे जाने के बाद वन विभाग उन्हे चिडियाघर भेज देता है। वहाँ पिंजरे मे वे गोल चक्कर लगाते रहते है दिन-रात। आपको वे सामान्य लगे पर वे वास्तव मे अपना मानसिक संतुलन खो चुके होते है। यदि उन्हे फिर से बाहर छोड दिया जाये तो भी वे वैसे ही गोल चक्कर लगाते रहेंगे।
आज मैने बहुत कोशिश की कि उस क्षेत्र मे जा सकूँ जहाँ तेन्दुआ दिखा है। वन विभाग के साथ रात की गश्त कर सकूँ। मै एक बार तेन्दुए से रुबरु होना चाहता हूँ ताकि मै अपने अनुभव से यह जान सकूँ कि आखिर उसे परेशानी क्या है? उसे अभिव्यक्ति का अवसर दिये बिना ही बर्बरता से कब्जे मे ले लेना मुझे सही नही जान पडता है। तेन्दुए और दूसरे जंगली जानवर इस क्षेत्र मे लगातार आ रहे है। समस्या की जड जानना जरुरी है। यदि जड पता लग गयी तो हम बिना इन्सानो और जानवरो को नुकसान पहुँचाये बीच का रास्ता निकाल सकते है। अभी रात के एक बज रहे है। बारह बजे मुझे उस इलाके मे जाना था। मै फोन का इंतजार कर रहा हूँ। सुबह चार तक भी फोन आ जाये तो मै अपनी गाडी मे निकल जाऊँगा। यदि ऐसा नही हुआ तो मै कल सुबह दस बजे वहाँ जाने की कोशिश करुंगा। इतना बडा राज्य है पर कोई भी प्राणी विशेषज्ञ तेन्दुए की सुध लेने इच्छुक नही दिखता। आखिर किसी को तो जाना ही होगा तेन्दुए से बात करने----- (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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