चवन्नी दुकाल, कैंसर रोगियो के लिये औषधीय धान और देशी खेती
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-24
- पंकज अवधिया
चवन्नी दुकाल, कैंसर रोगियो के लिये औषधीय धान और देशी खेती
“पहले यहाँ बहुत घना जंगल हुआ करता था। सभी तरह के जानवर थे। मुझे याद है कि तब सामने वाली गली से बाघ ने हमारे “मोसी” (मवेशी) को मार दिया था। सामने वाले घर के अन्दर घुसकर एक बच्चे को उठा लिया था। जब बच्चे का पिता पीछे दौडा तो बाघ ने बच्चे को चीर कर मार डाला। अब बाघ नही है पर तेन्दुए है। तेन्दुए हमे नुकसान नही पहुँचाते। कभी-कभार दिख जाते है। खेती मे बरहा (जंगली सूअर) का आक्रमण होता रहता है। हम रात भर जागकर खेत की रखवाली करते है। आदमी होने के अहसास से बरहा दूर रहते है। हम बजरबट्टू का भी सहारा लेते है। गाँव मे कुछ लोगो के पास भरमार बन्दूके है, लाइसेंसी। उसके प्रयोग से हम बरहा को भगाते है। इस बन्दूक के प्रयोग से उन्हे मारना मना है। जब फल पकते है तो गाँव मे भालू आ जाते है। पीपल के फल जिसे स्थानीय भाषा मे पिकरी कहा जाता है, भालूओ को बहुत पसन्द आते है। भालू शैतान प्राणी है। वह न केवल जिज्ञासु होता है बल्कि आपके पीछे-पीछे चला आता है। उसे मालूम है कि आदमी उसकी तुलना मे कम शक्तिशाली है।“ सुदूर गाँव मे श्री बालकराम अपने गाँव का हाल बता रहे थे। अपनी जंगल यात्रा के बीच पहाडो की गोद मे बसे इस गाँव मे रुकना सुखद लग रहा था। शाम का वक्त था और घटाओ ने गाँव को घेरना शुरु कर दिया था। मानसून के विलम्ब से सभी चिंतित है। गाँव वालो को लग रहा था कि आज पानी जरुर गिरेगा। काफी देर तक काले-काले बादल जस के तस रहे तो एक बुजुर्ग ने कह ही दिया कि लम्बा बाँस लेकर थोडा सा छेद करना होगा तभी पानी गिरना शुरु होगा। सभी हँस पडे।
रास्ते भर खेत की पूरी तैयारी कर मानसून की प्रतीक्षा मे बैठे किसान दिखे। उन्होने स्थानीय भाषा मे “चवन्नी दुकाल” की आशंका व्यक्त की यानि मानसून मे देरी ऐसे ही जारी रही तो चवन्नी से ज्यादा नही मिलेगा। “चवन्नी दुकाल” सुनने मे साधारण शब्द लगे पर किसानो के लिये यह रोंगटे खडे कर देने वाला शब्द है। छत्तीसगढ मे धान की नयी किस्मे अधिक अवधि की है। जितनी लम्बी अवधि उतनी अधिक उपज पर यह भी कडवा सत्य है कि जितनी लम्बी अवधि उतनी ही अधिक वर्षा पर निर्भरता। राज्य मे ज्यादातर वर्षा आधारित खेती होती है। फसल की हर महत्वपूर्ण अवस्था मे पानी का संकट रहता है। जरा भी देरी यानि बडा नुकसान। सिंचित खेती कम भागो तक सीमित है। यात्रा के दौरान मैने देखा कि खेतो मे खाट बिछाये किसान लेटे हुये थे। आसमान की ओर टकटकी लगाये थे। वे बताते है कि इस उमस मे घर गरमता है। इसलिये बाहर खेतो मे रहना ही ठीक लगता है। वे रात को भी वही सो जाते है। ऐसे ही किसानो के एक समूह के पास मैने गाडी रुकवायी। वे बुजुर्ग किसान थे। उनसे चर्चा का दौर चल पडा।
उन्होने बताया कि पहले अल्प अवधि जिसे स्थानीय तौर पर हरुना कहा जाता है, की किस्मे लगायी जाती थी। ये जल्दी पकती थी और मानसून पर निर्भरता के आधार पर चुनी गयी थी। उत्पादन इतना हो जाता था कि साल भर अन्न की जरुरत नही होती थी। जब से लम्बी अवधि की सरकारी खाद और दवा माँगने वाली किस्मे आयी है किसानो का सिरदर्द बढ गया है। मानसून मे पिछले कुछ सालो से बडी देरी हो रही है। देरी से बुआई मतलब कीटो और रोगो का प्रकोप। किसान जैविक खेती करे तो पडोस के किसानो से कीटनाशको के कारण भागे कीडे बडी संख्या मे आ जाते है। ऐसे मे जैविक खेती कर रहे किसानो को मजबूरन एक-दो बार कीटनाशको का प्रयोग करना ही पडता है। वे बताते है कि जैविक खेती तभी सफल होगी जब बडे इलाके मे सब किसान मिलजुल कर यह खेती करे। चर्चा के दौरान एक युवा किसान ने कृषि अधिकारी का यह फरमान सुनाया कि किसानो को मानसून मे देरी के कारण अल्प अवधि के किस्मो को प्राथमिकता देनी चाहिये। ऐसी सलाहे देना आसान है पर लम्बी अवधि की किस्मो के बीजो का इंतजाम करके बैठे किसान अब अल्प अवधि के बीज लाये कहाँ से? क्या सम्बन्धित विभाग उनके लिये कोई व्यवस्था कर रहा है? नही ना, फिर जबानी सलाह से क्या लाभ?
रात को लौटते समय आखिर काले-काले बादलो ने बरसना शुरु कर दिया। राजधानी से आ रहे फोन बता रहे थे कि उडीसा मे कुछ हलचल हुयी है इसलिये पानी गिरने की सम्भावना है। तेज वर्षा के बीच आई.ए.एन.एस. के स्थानीय संवाददाता का फोन आ गया। वे मानसून मे हो रही देरी के कारण धान पर पडने वाले प्रभावो के विषय मे पूछ रहे थे। मैने उन्हे किसानो के हवाले से “चवन्नी दुकाल” की बात बतायी और यह भी बताया कि कैसे बुजुर्ग किसान अल्प अवधि की पारम्परिक किस्मो की खेती को छोडने पर पछता रहे है? बारिश की आवाज सुनकर संवाददाता ने इस बारे मे पूछा तो मैने कहा कि हम “बारिशकर” की तरह बारिश ले कर आ रहे है। बारिश होती रही। पर जैसे ही हम राजधानी के पास पहुँचे बारिश बन्द हो गयी। पूरा इलाका वैसा ही गर्म और सूखा लगने लगा। आद्रा नक्षत्र के लगने के समय मृग नक्षत्र वाले समय की तरह बादलो का व्यवहार समझ से परे है। मृग की तरह कुलाँचे भरकर बादल कही-कही पर बरस रहे है। मानसून का इंतजार सभी को है।
इस जंगल यात्रा की एक बडी उपलब्धि यह रही कि मुझे इस बार पारम्परिक और औषधीय धान के पाँच नये प्रकारो के विषय मे न केवल जानकारी मिली बल्कि बीज भी मिल गये। इन औषधीय धानो को किसान अभी तक बो रहे है। वे जानते है कि सरकारी दवाए और खाद से इनकी गुणवत्ता कम हो जायेगी इसलिये वे पारम्परिक खेती कर रहे है। इस देशी खेती मे वे कीडो से लडने के लिये न केवल देशी बल्कि विदेशी वनस्पतियो का ही प्रयोग कर रहे है। किसानो ने बताया कि धान के प्रमुख कीडे फुडहर, कर्रा और बेशरम नामक वनस्पतियो के सरल पर प्रभावी प्रयोग से नियंत्रण मे आ जाते है। उन्होने माहो नामक कीट के लिये बेशरम और बंकी के लिये कर्रा को बडा ही उपयोगी पाया है। वे विस्तार से बताते है कि कीटनाशक के रुप मे प्रयोग के लिये देशी वनस्पतियो को एक निश्चित समय पर एकत्र किया जाता है। इस समय विधि-विधान का ध्यान रखा जाता है। एक बुजुर्ग किसान ने एक विशेष प्रकार के बीज देते हुये मुझे बताया कि कैंसर के रोगी को इस औषधीय धान को खिलाना चाहिये। मै उस प्रकार के बारे मे जानता था। उनको कैंसर मे इसके उपयोग के अलावा इस औषधीय धान के दूसरे उपयोगो के विषय मे जानकारी नही थी। मैने उन्हे विस्तार से कोदो, कुटकी, रागी, साँवा आदि पारम्परिक फसलो के बीजो के साथ इसके सरल प्रयोग को बताया। यह औषधीय धान दूसरी औषधीय वनस्पतियो के साथ वात रोगो और ह्र्दय रोगो मे उपयोगी है। सिकल सेल एनीमिया से प्रभावित रोगियो को भी इसे दिया जाता है। मैने इन बीजो की तस्वीरे ली। किसानो से बातचीत कर एक फिल्म तैयार की। मुझे उम्मीद है कि जिस दिन इन किसानो के सराहनीय कार्यो की कीमत योजनाकार जान और मान लेंगे उस दिन धान के कटोरे इस छत्तीसगढ की कायापलट होने मे जरा भी देर नही लगेगी। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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badhaai !