लाल पानी वाला ग्लास और महिनो से ज्वर से जूझता रोगी
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-16
- पंकज अवधिया
बारह जून, 2009
लाल पानी वाला ग्लास और महिनो से ज्वर से जूझता रोगी
कुछ दूर चलने के बाद हम एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ भुईनीम के बहुत से छोटे-छोटे पौधे उग रहे थे। पारम्परिक चिकित्सक ने रोगी से कहा कि मैने घेरा बना दिया है। आप उन पौधो पर मूत्र विसर्जन कर दे। रोगी ने ऐसा ही किया। इसके बार उसे लकडी के ग्लास मे पानी पीने को दिया गया। पानी का रंग लकडी के कारण लाल हो चुका था। पारम्परिक चिकित्सक ने कहा कि आप सब बरगद के इस पुराने वृक्ष के साये मे बैठे और जब रोगी को अगली बार मूत्र विसर्जन की इच्छा हो तो भुईनीम के दूसरे घेरे पर करे। इसबीच मै अपने दूसरे रोगियो को देख लेता हूँ। अलग-अलग तरह के लकडी के ग्लास मे पानी पीने के बाद पाँच घेरो मे मूत्र विसर्जन करना होगा। उसके कुछ समय बाद मै रोग का कारण बता पाऊँगा। रोगी और उसके परिजन पूरी तत्परता से यह कार्य करने लगे।
इस जंगल यात्रा मे निकलने के कुछ दिनो पहले ही से एक पारिवारिक मित्र मुझसे लगातार सम्पर्क कर रहे थे। उनकी पत्नी पिछले तीन महिनो से परेशान थी। दिन भर हल्का ज्वर रहता था। उन्होने चिकित्सक बदले और फिर दवाईयाँ बदली पर ज्वर का आना बन्द नही हुआ। किसी ने मलेरिया कहा, किसी से टायफाइड तो किसी ने लू लगना बताया। तीन महिनो तक नाना प्रकार की एंटी-बायटिक खा-खा कर उनकी हालत खराब हो गयी। मरता क्या न करता। उन्होने किसी तांत्रिक की शरण ली। मजेदार बात यह रही कि तांत्रिक ने मेडीकल रपट की माँग की। रपट को उलटने और पलटने के बाद उसने फरमान जारी किया कि यह एक तरह का ब्लड कैंसर है। उसने दावा किया कि अभी मशीने इसे नही पकड पायेंगी। पर मैने पकड लिया है। आप मुम्बई मे अमुक गाडी से अमुक लाज मे जाइये और अमुक कैंसर विशेषज्ञ से मिलिये। इतने रुपये का पैकेज है। मेरा नाम लेंगे तो कुछ कम हो जायेगा। उसके फरमान देखकर लगा मानो वह कमीशन पर काम करने वाला ट्रेवल एजेंट हो।
मित्र ने तांत्रिक का रंग देखकर फिर किसी नये चिकित्सक से मदद ली। चिकित्सक ने कहा कि यह किसी तरह का कैंसर नही है। पर उसने फिर से लैब टेस्ट करवाये। उसके बाद फिर ज्वर की दवा और एंटीबायटिक का पुराना कोर्स शुरु हो गया। इतने लम्बे समय के बाद मित्र को पारम्परिक चिकित्सको की याद आयी। मुझे घेर लिया गया। थकहार कर मैने एक बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक के पास जाने को कहा। मित्र ने पूछा कि रपटो की एक प्रति रख लूँ। मैने उस पुस्तकनुमा फाइल देखकर विनम्रतापूर्वक कहा कि पारम्परिक चिकित्सक के लिये ये किसी काम की नही। उनका रोग के निदान और समाधान का अपना तरीका है। उन पर विश्वास हो तो ही जाओ। वह तैयार हो गया।
हमारे साथ जाने की बजाय उसने पारम्परिक चिकित्सक के गाँव मे ही मिलने की बात कही। जैसा कि आपने पहले पढा है कि परलोक वाहन ने कैसे मेरी गाडी को ठोकर मारी थी जिसके कारण मुझे पारम्परिक चिकित्सक तक पहुँचने मे देरी हो गयी थी। मेरे पहुँचने से पहले ही पारम्परिक चिकित्सक से उनकी मुलाकात हो चुकी थी।
इस बीच रोगी के मूत्र विसर्जन के दौर के बीच मैने यह निर्णय लिया कि मै जंगल जाऊँगा और फिर वापस लौटते हुये मित्र की गाडी के साथ हो लूंगा। मित्र ने मेरी बात मान ली और हम आगे बढ गये। हल्की बारिश के बाद जंगल मे सुनहरी धूप फैल चुकी थी। सूखी वनस्पतियो मे हल्की फुहार से कुछ ताजगी आ रही थी। कुररु (कुल्लु नही) की गोन्द डंठलो के सिरो से बाहर निकल रही थी। जब उस पर सूरज की किरणे पडती तो वह सोने के समान दिखायी देती थी। बारिश के बाद तितलियाँ तेजी से इधर-उधर उड रही थी। गर्मी के दिनो मे जमीन मे जहाँ भी लवण मिलता है नर तितलियाँ उन्हे एकत्र करने बैठ जाती है। इसे वैज्ञानिक भाषा मे “मड-पडलिंग” कहा जाता है। जब बारिश होती है तो लवण बह जाते है और सारा ताना-बाना अस्त-व्यस्त हो जाता है। नर तितलियो को नये लवण स्त्रोत के लिये फिर से मशक्कत करनी पडती है। नर तितलियाँ इन लवणो को प्रणय उपहार के रुप मे मादा तितलियो को देती है। तब ही उनका प्रणय निवेदन स्वीकार किया जाता है। ये लवण मादा तितलियाँ अंडो के विकास मे प्रयोग करती है। कुछ तितलियाँ गाडी के शीशे से आकर टकराने लगी। मैने कुछ देर रुकने का मन बनाया।
हमारा रुकना बेकार नही गया। हमे एक मोर के दर्शन हो गये। ड्रायवर ने उसके जख्मी बदन की ओर इशारा करते हुये अनुमान लगाया कि किसी शिकारी जीव से इसकी हाल ही मे मुठभेड हुयी है। मोर के जाने के बाद उस मार्ग से एक साही गुजरा। साही के काँटे पूरी तरह सलामत थे। उस पर किसी शिकारी की नजर नही पडी थी वरना जिस वन क्षेत्र मे हम उस समय थे वहाँ हर साप्ताहिक बाजार मे तांत्रिको की एक दुकान लगती है जहाँ साही के काँटे खुलेआम बिकते है। इतने सारे काँटे कि जंगलो मे साही पर हो रहे जुल्म को बताने के लिये पर्याप्त होते है।
मित्र की पत्नी जंगल मे पारम्परिक चिकित्सक के परीक्षणो के बीच तरोताजा महसूस कर रही थी। जंगल की हवा होती ही ऐसी है। शाम को पारम्परिक चिकित्सक ने किसी भी तरह की औषधि देने से इंकार कर दिया। उन्होने कहा कि यदि मेरे ज्ञान पर विश्वास है तो सारी दवाए बन्द करके लाल पानी वाले ग्लास का पानी रोज सुबह-शाम पीओ। लाभ होगा। मित्र को यह हजम नही हुआ। वह तो ढेरो दवाओ की उम्मीद कर रहा था। फिर जब उसने फीस देनी चाही तो पारम्परिक चिकित्सक ने हाथ जोड लिये। उन्होने गाँव के एक युवक को बुलाया और पूछा कि ग्लास के कितने पैसे हुये? युवक ही ग्लास बनाकर पारम्परिक चिकित्सक को दिया करता था।“चौबीस रुपये” युवक ने कहा। मित्र को एकाएक विश्वास नही हुआ। उसने चिल्हर न होने के कारण तीस रुपये देने चाहे तो उन्होने मना कर दिया। मित्र ने कोने मे ले जाकर मुझसे कहा कि यह आदमी ठीक नही जान पडता है। पैसे ही नही लेता मतलब इसकी दवा मे दम नही है। मित्र की बात भी सही थी। वह ऐसे शहर मे जीता था जहाँ बिना महंगी फीस के कुछ काम नही होता। जो व्यक्ति तीन महिनो मे लाखो गँवा चुका हो उससे यदि कोई कहे कि दिन भर के चौबीस रुपये हुये तो भला उसे अविश्वास तो होगा ही। पर कुछ समय बाद उसे बात समझ मे आ गयी। पारम्परिक चिकित्सको को चिकित्सा के लिये पैसे लेने की मनाही है। यह उनके पूर्वजो की शपथ है।
मित्र ने वापस आकर अपनी पत्नी को उसी ग्लास से पानी पिलाना आरम्भ किया। रात मे पानी भरकर ग्लास रख दिया जाता था और सुबह लाल पानी को पी लिया जाता था। ऐसी ही शाम को भी किया जाता था। दूसरे दिन से ही रोगी मे सुधार हुआ और तीन-चार दिनो मे सब कुछ सामान्य हो गया। पारम्परिक चिकित्सक ने पन्द्रह दिन के बाद आने को कहा था। रोगी ने ठीक होते ही ग्लास का उपयोग बन्द कर दिया। कल ही मित्र का फिर फोन आया कि फिर से ज्वर आने लगा है। ग्लास कही गुम हो गया है। किसी शहरी चिकित्सक के पास फिर से गये तो उसने कहा कि ग्लास के पानी के कारण ही ज्वर आ रहा है। चिकित्सक ने फिर टेस्ट कराये और एंटीबायटिक का दौर शुरु हो गया। ज्वर कम होने का नाम नही ले रहा है। क्षमा माँगते हुये उसने फिर से पारम्परिक चिकित्सक के पास ले चलने की बात कही।
मै असमंजस मे हूँ। मेरा मानना है कि जिस भी चिकित्सा प्रणाली मे पूरा विश्वास हो उसी मे आगे बढना चाहिये। डाँवाडोल की स्थिति गडबड होती है। क्या भरोसा कि एक बार ठीक होने के बाद फिर वह ग्लास से तौबा कर ले।
पारम्परिक चिकित्सक ने रोग का पता लगाने के लिये भुईनीम का प्रयोग किया था। उन्हे रोगी के जोडो की सूजन देखकर वात की समस्या का अहसास हुआ था। अलग-अलग औषधियो को खिलाने के बाद उन्होने पौधो पर मूत्र विसर्जन करने इसलिये कहा था ताकि पौधो पर इनके प्रभाव को देखकर रोग की पुष्टि की जा सके। आमतौर पर बीजा नामक वृक्ष की लकडी से ग्लास बनाये जाते है। उसमे रखा पानी मधुमेह के रोगियो के लिये वरदान माना जाता है। ऐसे ग्लास शहरो मे भी बिकते है। पर लकडी के लिये सही वृक्ष का चुनाव और ग्लास बनाने की पारम्परिक विधि अहम भूमिका निभाती है। शहरी ग्लास बनाने वाले इस बात को नही समझते है। वात रोगो के लिये बीजा की लकडी से बने ग्लास को जडी-बूटियो से बने घोल से लम्बे समय तक उपचारित किया जाता है। फिर इसे रोगियो को दिया जाता है। ऐसा नही है कि आधुनिक विज्ञान ने बीजा के लकडी को नही आजमाया है पर ज्यादातर शोधो मे वैसे प्रभाव नही देखने को मिलते है जैसे कि पारम्परिक चिकित्सको के पास उपलब्ध ग्लास से मिलते है। शोधकर्ता शहरी ग्लासो पर प्रयोग करते है। बहुत से विदेशी शोधकर्ताओ ने इस अंतर का स्पष्ट उल्लेख किया है। पारम्परिक चिकित्सक खुद पैसे नही कमाते। वे जानते है कि उनकी नकल से शहरी लोगो को ठग सकते है। यही कारण है कि मरते दम तक पूरी विधि वे किसी को नही बताते है। केवल अपने चेलो को ही सब बताते है, पूरी तरह से आश्वस्त होने पर।
बारह जून की जंगल यात्रा मे एक दिन मे जाने कितने अनुभव मिल गये और ज्ञान अर्जन हो गया। अभी भी इस यात्रा के बारे मे बहुत कुछ लिखना शेष है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
- पंकज अवधिया
बारह जून, 2009
लाल पानी वाला ग्लास और महिनो से ज्वर से जूझता रोगी
कुछ दूर चलने के बाद हम एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ भुईनीम के बहुत से छोटे-छोटे पौधे उग रहे थे। पारम्परिक चिकित्सक ने रोगी से कहा कि मैने घेरा बना दिया है। आप उन पौधो पर मूत्र विसर्जन कर दे। रोगी ने ऐसा ही किया। इसके बार उसे लकडी के ग्लास मे पानी पीने को दिया गया। पानी का रंग लकडी के कारण लाल हो चुका था। पारम्परिक चिकित्सक ने कहा कि आप सब बरगद के इस पुराने वृक्ष के साये मे बैठे और जब रोगी को अगली बार मूत्र विसर्जन की इच्छा हो तो भुईनीम के दूसरे घेरे पर करे। इसबीच मै अपने दूसरे रोगियो को देख लेता हूँ। अलग-अलग तरह के लकडी के ग्लास मे पानी पीने के बाद पाँच घेरो मे मूत्र विसर्जन करना होगा। उसके कुछ समय बाद मै रोग का कारण बता पाऊँगा। रोगी और उसके परिजन पूरी तत्परता से यह कार्य करने लगे।
इस जंगल यात्रा मे निकलने के कुछ दिनो पहले ही से एक पारिवारिक मित्र मुझसे लगातार सम्पर्क कर रहे थे। उनकी पत्नी पिछले तीन महिनो से परेशान थी। दिन भर हल्का ज्वर रहता था। उन्होने चिकित्सक बदले और फिर दवाईयाँ बदली पर ज्वर का आना बन्द नही हुआ। किसी ने मलेरिया कहा, किसी से टायफाइड तो किसी ने लू लगना बताया। तीन महिनो तक नाना प्रकार की एंटी-बायटिक खा-खा कर उनकी हालत खराब हो गयी। मरता क्या न करता। उन्होने किसी तांत्रिक की शरण ली। मजेदार बात यह रही कि तांत्रिक ने मेडीकल रपट की माँग की। रपट को उलटने और पलटने के बाद उसने फरमान जारी किया कि यह एक तरह का ब्लड कैंसर है। उसने दावा किया कि अभी मशीने इसे नही पकड पायेंगी। पर मैने पकड लिया है। आप मुम्बई मे अमुक गाडी से अमुक लाज मे जाइये और अमुक कैंसर विशेषज्ञ से मिलिये। इतने रुपये का पैकेज है। मेरा नाम लेंगे तो कुछ कम हो जायेगा। उसके फरमान देखकर लगा मानो वह कमीशन पर काम करने वाला ट्रेवल एजेंट हो।
मित्र ने तांत्रिक का रंग देखकर फिर किसी नये चिकित्सक से मदद ली। चिकित्सक ने कहा कि यह किसी तरह का कैंसर नही है। पर उसने फिर से लैब टेस्ट करवाये। उसके बाद फिर ज्वर की दवा और एंटीबायटिक का पुराना कोर्स शुरु हो गया। इतने लम्बे समय के बाद मित्र को पारम्परिक चिकित्सको की याद आयी। मुझे घेर लिया गया। थकहार कर मैने एक बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक के पास जाने को कहा। मित्र ने पूछा कि रपटो की एक प्रति रख लूँ। मैने उस पुस्तकनुमा फाइल देखकर विनम्रतापूर्वक कहा कि पारम्परिक चिकित्सक के लिये ये किसी काम की नही। उनका रोग के निदान और समाधान का अपना तरीका है। उन पर विश्वास हो तो ही जाओ। वह तैयार हो गया।
हमारे साथ जाने की बजाय उसने पारम्परिक चिकित्सक के गाँव मे ही मिलने की बात कही। जैसा कि आपने पहले पढा है कि परलोक वाहन ने कैसे मेरी गाडी को ठोकर मारी थी जिसके कारण मुझे पारम्परिक चिकित्सक तक पहुँचने मे देरी हो गयी थी। मेरे पहुँचने से पहले ही पारम्परिक चिकित्सक से उनकी मुलाकात हो चुकी थी।
इस बीच रोगी के मूत्र विसर्जन के दौर के बीच मैने यह निर्णय लिया कि मै जंगल जाऊँगा और फिर वापस लौटते हुये मित्र की गाडी के साथ हो लूंगा। मित्र ने मेरी बात मान ली और हम आगे बढ गये। हल्की बारिश के बाद जंगल मे सुनहरी धूप फैल चुकी थी। सूखी वनस्पतियो मे हल्की फुहार से कुछ ताजगी आ रही थी। कुररु (कुल्लु नही) की गोन्द डंठलो के सिरो से बाहर निकल रही थी। जब उस पर सूरज की किरणे पडती तो वह सोने के समान दिखायी देती थी। बारिश के बाद तितलियाँ तेजी से इधर-उधर उड रही थी। गर्मी के दिनो मे जमीन मे जहाँ भी लवण मिलता है नर तितलियाँ उन्हे एकत्र करने बैठ जाती है। इसे वैज्ञानिक भाषा मे “मड-पडलिंग” कहा जाता है। जब बारिश होती है तो लवण बह जाते है और सारा ताना-बाना अस्त-व्यस्त हो जाता है। नर तितलियो को नये लवण स्त्रोत के लिये फिर से मशक्कत करनी पडती है। नर तितलियाँ इन लवणो को प्रणय उपहार के रुप मे मादा तितलियो को देती है। तब ही उनका प्रणय निवेदन स्वीकार किया जाता है। ये लवण मादा तितलियाँ अंडो के विकास मे प्रयोग करती है। कुछ तितलियाँ गाडी के शीशे से आकर टकराने लगी। मैने कुछ देर रुकने का मन बनाया।
हमारा रुकना बेकार नही गया। हमे एक मोर के दर्शन हो गये। ड्रायवर ने उसके जख्मी बदन की ओर इशारा करते हुये अनुमान लगाया कि किसी शिकारी जीव से इसकी हाल ही मे मुठभेड हुयी है। मोर के जाने के बाद उस मार्ग से एक साही गुजरा। साही के काँटे पूरी तरह सलामत थे। उस पर किसी शिकारी की नजर नही पडी थी वरना जिस वन क्षेत्र मे हम उस समय थे वहाँ हर साप्ताहिक बाजार मे तांत्रिको की एक दुकान लगती है जहाँ साही के काँटे खुलेआम बिकते है। इतने सारे काँटे कि जंगलो मे साही पर हो रहे जुल्म को बताने के लिये पर्याप्त होते है।
मित्र की पत्नी जंगल मे पारम्परिक चिकित्सक के परीक्षणो के बीच तरोताजा महसूस कर रही थी। जंगल की हवा होती ही ऐसी है। शाम को पारम्परिक चिकित्सक ने किसी भी तरह की औषधि देने से इंकार कर दिया। उन्होने कहा कि यदि मेरे ज्ञान पर विश्वास है तो सारी दवाए बन्द करके लाल पानी वाले ग्लास का पानी रोज सुबह-शाम पीओ। लाभ होगा। मित्र को यह हजम नही हुआ। वह तो ढेरो दवाओ की उम्मीद कर रहा था। फिर जब उसने फीस देनी चाही तो पारम्परिक चिकित्सक ने हाथ जोड लिये। उन्होने गाँव के एक युवक को बुलाया और पूछा कि ग्लास के कितने पैसे हुये? युवक ही ग्लास बनाकर पारम्परिक चिकित्सक को दिया करता था।“चौबीस रुपये” युवक ने कहा। मित्र को एकाएक विश्वास नही हुआ। उसने चिल्हर न होने के कारण तीस रुपये देने चाहे तो उन्होने मना कर दिया। मित्र ने कोने मे ले जाकर मुझसे कहा कि यह आदमी ठीक नही जान पडता है। पैसे ही नही लेता मतलब इसकी दवा मे दम नही है। मित्र की बात भी सही थी। वह ऐसे शहर मे जीता था जहाँ बिना महंगी फीस के कुछ काम नही होता। जो व्यक्ति तीन महिनो मे लाखो गँवा चुका हो उससे यदि कोई कहे कि दिन भर के चौबीस रुपये हुये तो भला उसे अविश्वास तो होगा ही। पर कुछ समय बाद उसे बात समझ मे आ गयी। पारम्परिक चिकित्सको को चिकित्सा के लिये पैसे लेने की मनाही है। यह उनके पूर्वजो की शपथ है।
मित्र ने वापस आकर अपनी पत्नी को उसी ग्लास से पानी पिलाना आरम्भ किया। रात मे पानी भरकर ग्लास रख दिया जाता था और सुबह लाल पानी को पी लिया जाता था। ऐसी ही शाम को भी किया जाता था। दूसरे दिन से ही रोगी मे सुधार हुआ और तीन-चार दिनो मे सब कुछ सामान्य हो गया। पारम्परिक चिकित्सक ने पन्द्रह दिन के बाद आने को कहा था। रोगी ने ठीक होते ही ग्लास का उपयोग बन्द कर दिया। कल ही मित्र का फिर फोन आया कि फिर से ज्वर आने लगा है। ग्लास कही गुम हो गया है। किसी शहरी चिकित्सक के पास फिर से गये तो उसने कहा कि ग्लास के पानी के कारण ही ज्वर आ रहा है। चिकित्सक ने फिर टेस्ट कराये और एंटीबायटिक का दौर शुरु हो गया। ज्वर कम होने का नाम नही ले रहा है। क्षमा माँगते हुये उसने फिर से पारम्परिक चिकित्सक के पास ले चलने की बात कही।
मै असमंजस मे हूँ। मेरा मानना है कि जिस भी चिकित्सा प्रणाली मे पूरा विश्वास हो उसी मे आगे बढना चाहिये। डाँवाडोल की स्थिति गडबड होती है। क्या भरोसा कि एक बार ठीक होने के बाद फिर वह ग्लास से तौबा कर ले।
पारम्परिक चिकित्सक ने रोग का पता लगाने के लिये भुईनीम का प्रयोग किया था। उन्हे रोगी के जोडो की सूजन देखकर वात की समस्या का अहसास हुआ था। अलग-अलग औषधियो को खिलाने के बाद उन्होने पौधो पर मूत्र विसर्जन करने इसलिये कहा था ताकि पौधो पर इनके प्रभाव को देखकर रोग की पुष्टि की जा सके। आमतौर पर बीजा नामक वृक्ष की लकडी से ग्लास बनाये जाते है। उसमे रखा पानी मधुमेह के रोगियो के लिये वरदान माना जाता है। ऐसे ग्लास शहरो मे भी बिकते है। पर लकडी के लिये सही वृक्ष का चुनाव और ग्लास बनाने की पारम्परिक विधि अहम भूमिका निभाती है। शहरी ग्लास बनाने वाले इस बात को नही समझते है। वात रोगो के लिये बीजा की लकडी से बने ग्लास को जडी-बूटियो से बने घोल से लम्बे समय तक उपचारित किया जाता है। फिर इसे रोगियो को दिया जाता है। ऐसा नही है कि आधुनिक विज्ञान ने बीजा के लकडी को नही आजमाया है पर ज्यादातर शोधो मे वैसे प्रभाव नही देखने को मिलते है जैसे कि पारम्परिक चिकित्सको के पास उपलब्ध ग्लास से मिलते है। शोधकर्ता शहरी ग्लासो पर प्रयोग करते है। बहुत से विदेशी शोधकर्ताओ ने इस अंतर का स्पष्ट उल्लेख किया है। पारम्परिक चिकित्सक खुद पैसे नही कमाते। वे जानते है कि उनकी नकल से शहरी लोगो को ठग सकते है। यही कारण है कि मरते दम तक पूरी विधि वे किसी को नही बताते है। केवल अपने चेलो को ही सब बताते है, पूरी तरह से आश्वस्त होने पर।
बारह जून की जंगल यात्रा मे एक दिन मे जाने कितने अनुभव मिल गये और ज्ञान अर्जन हो गया। अभी भी इस यात्रा के बारे मे बहुत कुछ लिखना शेष है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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शुभकामनायें.
भुवन वेणु
लूज़ शंटिंग