अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -68
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -68 - पंकज अवधिया मित्र के दादाजी नब्बे साल के हो गये। उनके जन्मदिन के अवसर पर पूजा-पाठ रखा गया। उनके पारिवारिक गुरु आये। मुझे भी इस कार्यक्रम मे आमंत्रित किया गया। मुझे बताया गया था कि पूजा-पाठ के बाद भी उसी स्थान मे बैठे रहना है। लोग उठ कर जाये तो उन्हे जाने दिया जाये। अंत मे जो “अपने” लोग बचेंगे उनके सामने गुरु जी एक तोहफा देंगे। वे हिमालय से लम्बी साधना के बाद इस तोहफे को लाये है। मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि मै भी मित्र के “अपनो” मे शामिल था। कार्यक्रम वाले दिन मै जानबूझकर कुछ देर से पहुँचा ताकि ज्यादा देर न बैठना पडे। मित्र मेरे पास आ गया। गुरु जी पर मेरी नजर पडी तो चेहरा जाना-पहचाना लगा। मै किसी निष्कर्ष तक पहुँचता उससे पहले मित्र बोल पडा कि अरे, ये फलाँ बाबा है जो रोज टीवी पर आते है। ओह, तभी यह चेहरा जाना-पहचाना लगा-मै बुदबुदाया। पर टीवी मे तो वे चमत्कारिक पुरुष लगते है। यहाँ सामने ऐसा लग रहा था जैसे किसी साधारण पुरुष को देख रहा हूँ। जो चीज उन्हे असाधारण बना रही थी वह थ...