अपनो को खोने वाले बच्चो के मन मे किस रुप मे बसते है भालू दादा?
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-29 - पंकज अवधिया अपनो को खोने वाले बच्चो के मन मे किस रुप मे बसते है भालू दादा? मेरा बचपन ज्यादातर शहर मे बीता। बचपन मे भालू की जो छवि पराग, नन्दन जैसी बाल पत्रिकाओ ने बनायी वो भालू दादा या भालू मामा की थी। बाल कविताओ मे भालू इसी रुप मे मिलते थे। पुराने रिकार्डो के गीतो मे भी भालूओ को नाच दिखाकर मनोरंजन करने वाले जीव के रुप मे मन मे बसा लेता था। बचपन मे भालू सरकस मे साइकल चलाते हुये दिख जाता था। सरकस मे जब जानवरो की परेड होती थी तो भालू आकर्षण का केन्द्र होते थे। भालू को सरकस की मिनी ट्रेन मे बैठा देखकर मै कल्पना के अद्भुत संसार मे खो जाता था। भालू का यही रुप मेरे द्वारा रचित बाल कहानियो मे भी दिखा। कुछ बडा हुआ तो मदारी को भालू थामे देखा। वह बडी कुशलता से भालू को डुगडुगी बजाकर नचाया करता था। भालू को दादा और मामा की तरह आज भी पूरे देश मे बच्चो के सामने प्रस्तुत किया जाता है। पर सभी बच्चे इतने खुशकिस्मत नही होते कि वे भालू को दादा और मामा के रुप मे देख सके। जंगल यात्रा के दौरान जटियाटोरा गाँव के एक शिक्षक़ से यूँ ही चर्चा चल रही थी। उन्होने बताया कि वन्य जीवो ...