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Showing posts from October, 2008

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -48

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -48 - पंकज अवधिया हमारे एक फिल्मकार मित्र है जो जंगलो मे मोर को देखते ही ग़ाडी रुकवा देते है। तस्वीरे उतारने के लिये नही बल्कि उसकी आवाज सुनने के लिये। साथ मे चल रहा कोई स्थानीय व्यक्ति यदि आवाज लगाकर मोर को आवाज लगाने के लिये उकसाता है तो वे उसे घूरकर ऐसे देखते है कि उसकी आवाज निकलनी बन्द हो जाती है। मोर की आवाज सुनने के लिये वे घंटो गुजार देते है। कई बार तो उनको गाडी मे ही छोडकर हम लोग पैदल जंगल मे चले जाते है। एक बार मोर बोले तो वे अगली बार का इंतजार करते है। तीन बार उसकी आवाज सुनते ही उस स्थान से तेजी से दूर चले जाते है। तेजी का कारण होता है कि कही चौथी आवाज न सुनायी पड जाये। मै उनके इस मोर प्रेम से काफी समय से अभिभूत था। छत्तीसगढ के बारनवापारा अभ्यारण्य मे जहाँ पर्यटको की निगाहे तेन्दुए और बायसन को खोजती रहती है वहाँ हमे मोर के पास घंटो डटा देखकर दूसरे पर्यटक हमारा मजाक बनाते रहते है। अभ्यारण्य का गाइड भी सिर फोडते बैठा रहता है। फिल्मकार मित्र कैमरा साथ लिये होते है पर मोर की तस्वीरे नही उतारते है। बस आवाज सुन

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -47

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -47 - पंकज अवधिया ढेरो आधुनिक यंत्रो के बावजूद आज का मौसम विभाग मौसम की सही भविष्य़वाणी नही कर पाता है और आम लोगो के मजाक का शिकार होता रहता है। मैने इस लेखमाला मे पहले लिखा है कि कैसे आज भी ग्रामीण भारत अपने पारम्परिक ज्ञान के आधार पर सटीक भविष्यवाणी करता है। इसी क्रम मे मुझे याद आता है कि बचपन मे गाँव के बडे-बुजुर्ग प्रवासी पक्षियो की हलचल को देखकर वर्षा की भविष्यवाणी किया करते थे। वे बाजो के चिल्लाने से भी वर्षा के होने और न होने का अनुमान लगाते थे। हमारे गाँव मे जंगली कबूतर बडी संख्या मे है। लोग इन्हे छेडते नही है और इनकी सुविधा के लिये काली मटकी लटका देते है ताकि वे इसमे अंडे दे सके। बचपन मे पहले दादाजी को और फिर पिताजी को ऐसी मटकी लटकाते मैने देखा है। बचपन मे यह भी सुना था कि जितने तरह के पक्षी गाँव मे रहेंगे उतना ही कम फसलो को नुकसान होगा। बाद मे यही बात कृषि की शिक्षा के दौरान देशी-विदेशी किताबो मे पढी। बचपन से लेकर अब तक देखते ही देखते पक्षियो की विविधता मे कमी दिखने लगी है। वे संख्या मे भी कम होने लगे है।

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -46

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -46 - पंकज अवधिया अन्ध-विश्वास के खिलाफ जंग पर आधारित यह लेखमाला देश भर मे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ के माध्यम से छप रही है। मै खेती-किसानी पर नियमित लिखता हूँ इसलिये कोटा से प्रकाशित होने वाली पाक्षिक पत्रिका कृषि अमृत मे भी इसका नियमित प्रकाशन हो रहा है। ग्रामीण भारत से आ रहे पत्र इस बात का आभास करा रहे है कि इस लेखमाला को मन लगाकर पढा जा रहा है। गुजरात के एक स्कूल से पत्र आया है कि वे हर सप्ताह छात्रो के बीच इस लेखमाला पर आधारित परिचर्चा करवा रहे है। पाठक के पत्रो मे शुभकामनाओ के साथ ढेरो प्रश्न आ रहे है। प्रश्न विस्तार से है। वे मुझसे लिखित उत्तर चाहते है ताकि अपने क्षेत्र मे इसे बतौर सबूत दिखाकर वे अन्ध-विश्वास के खिलाफ लडाई लड सके। उनके प्रश्नो के जवाब मै इंटरनेट पर प्रकाशित हो रही इस लेखमाला मे दे रहा हूँ। पत्र-पत्रिकाए एक-एक करके लेखो को प्रकाशित कर रही है। ऐसे मे नये लेख पाठको तक पहुँचने मे एक-दो साल लग जायेंगे। कल ही राजस्थान से एक विचित्र प्रश्न प्राप्त हुआ। यह किसी तांत्रिक के दावे पर आधारित है। पाठक इस पर

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -45

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -45 - पंकज अवधिया कुछ वर्षो पहले एक हर्बल कम्पनी मे बतौर सलाहकार सप्ताह मे एक बार जाना होता था। वहाँ एच.आर. नाम से एक मैनेजर थे। उनका पूरा नाम उस कम्पनी मे शायद ही कोई जानता हो। सभी उन्हे एच.आर. कहते थे। मै भी उन्हे इसी नाम से जानता था। एक बार मैने बातो ही बातो मे उनसे पूरा नाम पूछा तो वे टाल गये। उनके टालने के ढंग मे कुछ रहस्य था इसलिये मै समय-समय पर पूछता रहा। इस कम्पनी का काम खत्म होने के आखिरी दिन एच. आर. मुझे छोडने एयरपोर्ट आये। वही प्रश्न मेरे मन मे था। पता नही वो कैसे ताड गये और बोले, सर बडा ही अटपटा नाम है। गाँव से हूँ और वही से यह नाम मिला है। एच. आर. मतलब हगरु राम। इतना बोलने के बाद वे यह सोच कर बचाव की मुद्रा मे आ गये कि मै अब जमकर मजाक उडाऊँगा। पर मुझे हँसी नही आयी। हाँ, बचपन के बहुत से ऐसे मित्रो की याद आ गयी जिनके साथ गाँव मे मै खेला करता था। ये अटपटे नाम वाले सहपाठी थे। ये अटपटे नाम हम लोगो ने नही रखे थे बल्कि उनके आपने पालको ने रखे थे। ऐसे सहपाठियो को बचपन मे बहुत अपमान सहना होता था पर वे कुछ कर नह

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -44

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -44 - पंकज अवधिया तो आजकल आप गठिया के लिये क्या उपाय कर रहे है? क्या पर्याप्त जल का सेवन जारी है? योग कैसा चल रहा है? मैने एक साथ कई प्रश्न अपने मित्र के पिताजी से कर दिये। वे काफी दिनो से गठिया के मरीज है। उन्हे जो भी नया उपाय मिलता है बिना देर किये उसे आजमा लेते है। चाहे इसके लिये कितने भी पैसे खर्चने पडे। उन्होने जवाब दिया कि जब से यह चमत्कारी अंगूठी मिली है तब से सभी उपाय बन्द है। अब इसी अंगूठी से गठिया जड से ठीक हो जायेगा। मैने सोचा कि किसी ने रत्नो वाली अंगूठी थमा दी होगी और मोटी रकम वसूल ली होगी पर जब उन्होने अपना हाथ बढाया तो बडी सस्ती सी अंगूठी दिखायी दी जिस पर मटमैली प्लेटनुमा वस्तु लगी हुयी थी। अरे अंकल, ऐसे तो कुछ समझ नही आ रहा है। जरा विस्तार से बताये। मैने कहा। उन्होने बताया कि एक देहाती मेले से यह अंगूठी लाये है ग्यारह हजार रुपये देकर। इसमे डायनोसोर की हड्डी लगी है। मुझसे रहा नही गया। मैने पूछा, डायनोसोर? वह भी इस जमाने मे? क्या अंकल आप भी मजाक करते है? डायनोसोर की हड्डी किसे मिल गयी जो इतनी सारी अं

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -43

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -43 - पंकज अवधिया एक बार हम शाम के वक्त घने जंगल मे रात को कैप लगाने के उद्देश्य से जगह खोज रहे थे। मै आगे चल रहा था। पारम्परिक चिकित्सक और सहायक पीछे। एक खुली जगह नजर आयी तो मैने वही कैम्प लगाने का निश्चय किया। पारम्परिक चिकित्सको ने निर्णय लेने से पहले कुछ रुकने को कहा। फिर आस-पास घूमने के बाद बोले कि यह जगह खतरो से भरी है। आगे बढना होगा। साथ चल रहे दिल्ली से आये एक मित्र ने असहमति जतायी। वे ट्रेकिंग पर अक्सर जाया करते थे। उन्हे लगा कि समतल और खुली जगह ही उपयुक्त है। हम रुककर बहस करने लगे। पारम्परिक चिकित्सको ने जगह के अनुपयुक्त होने की वजह बतायी। उन्होने काली मूसली नामक वनस्पति की ओर इशारा किया और बोले कि इसके कन्द भालूओ और जंगली सुअरो को बहुत पसन्द है। वे रात को इसे खाने अवश्य आते होंगे। ऐसे मे कैम्प लगाकर जबरदस्ती खतरा मोल लेना ठीक नही है। मित्र ने कहा कि हम आग जलायेंगे। देखते है फिर कौन पास आता है। पारम्परिक चिकित्सको ने कहा कि भालू बहुत ही जिज्ञासु और शरारती होते है। यदि उन्हे कैम्प दिख गया तो पास जरुर आयें

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -42

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -42 - पंकज अवधिया तुम्हारा जीवन खतरे मे है। तुम अभी गाँव छोडकर चले जाओ। तुम्हारी बहू के कारण घर मे कलह हो रही है। बुरी आत्मा से व्यापार मे लगातार घाटा हो रहा है। एक हजार रुपये चढाने पर सभी समस्या का निवारण हो जायेगा। ऐसे सन्देशो से भरी पर्चियाँ जब दूर गाँव से आये एक व्यक्ति ने हमे दिखानी आरम्भ की तो हमारे होश उड गये। ये सन्देश किसी ऐसे-वैसे ने नही लिखा है बल्कि ये देवी के सन्देश है। वही देवी जो चाहे तो पल मे जीवन आनन्दमय बना दे और चाहे तो पल मे विनाश कर दे। यह दावा था गाँव मे पहुँचे एक तांत्रिक था। जब कोई व्यक्ति उसके पास पहुँचता अपनी समस्या लेकर तो वह विशेष तरीका अपनाता था। उसके पास नारियल के बहुत से ढेर लगे होते थे। व्यक्ति की समस्या के अनुसार विशेष ढेर से नारियल उठाने को कहा जाता था। जैसे घर की समस्या है तो दाया वाला ढेर, व्यापार मे परेशानी है तो पीछे वाला ढेर –इस तरह से। फिर व्यक्ति के सामने नारियल फोडा जाता था। उसके अन्दर से एक पर्ची निकलती थी जिसमे सन्देश लिखा होता था। तांत्रिक उसे पढ देता था। ये सन्देश उसी

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -41

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -41 - पंकज अवधिया हमारे एक मित्र देहाती बाजारो का अक्सर जिक्र करते है। उनका बचपन सागर क्षेत्र मे बीता। वे एक देहाती मिठाई बेचने वाले का किस्सा सुनाते है। बाजार के शुरु होते ही वह सिर के बल शीर्षासन पर तन जाता था। फिर पेट को घुमाकर योग की नौली प्रक्रिया का प्रदर्शन करने लगता था। यह सब देखकर जब उसके पास भीड जुट जाती थी तो फिर वह अपना पिटारा खोलता और मिठाई बेचने लगता। उसकी मेहनत रंग लाती और दर्शक मिठाई खरीदने लगते थे। भीड को एकत्र करने के लिये या फिर भीड मे अपना प्रभाव स्थापित करने के लिये इस तरह के उपाय अपनाये जाते है। चमत्कार को नमस्कार है वाली बात इस तरह के लोग अच्छे से जानते है। अब भारतीय योग का ही उदाहरण ले। इसके विषय मे जानकारी देने वाली ढेरो संस्थाए देश मे थी पर नयी पीढी ने इसकी सुध नही ली। जैसे ही एक योगी ने रुचिकर प्रक्रियाओ का सार्वजनिक प्रदर्शन किया झट से देहाती बाजार के मिठाई बेचने वाले की तरह उसके सामने भीड लग गयी और वह स्थापित हो गया। अन्ध-विश्वास के विरुद्ध अभियानो मे चमत्कारियो से पग-पग मे मुठभेड

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -40

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -40 - पंकज अवधिया पर मै पहचानूंगा कैसे कि शहद असली है या नकली? जंगली इलाके से आये एक शहद बेचने वाले से मैने पूछा। वैसे तो शहद की शुद्धता की पहचान के बहुत से तरीके है पर मुझे इस वनवासी से नये तरीके की जानकारी मिली। उसने जेब से पाँच सौ रुपये का नोट निकाला और उसे शहद मे डुबोया फिर उसमे आग लगानी चाही। यह नोट नही जला। उसका दावा था कि यदि शहद नकली होगी तो नोट पलक झपकते ही जल जायेगा। उसने यह भी कहा कि नोट शहद बेचने वाले से लिया जाये। इससे यदि शहद बेचने वाले ने मिलावट की होगी तो वह बहानेबाजी शुरु कर देगा और इस तरह आप सब कुछ बिन जाँचे ही जान जायेंगे। पाँच सौ का नोट इसलिये क्योकि यह बडी रकम है। चाहे तो सौ के नोट पर भी यह प्रयोग किया जा सकता है। वनवासियो के पास पाँच सौ के नोट भला कैसे मिलेंगे? आपकी बात सही है पर जंगली क्षेत्रो से आये बहुत से शहद बेचने वाले आपको रायपुर शहर मे दिख जायेंगे। वे घर-घर जाकर शहद बेचते है और लोग बडी मात्रा मे इसे खरीदते भी है। बहुत से आयुर्वेदिक डाक्टरो ने भी इन वनवासियो से कमीशन के आधार पर सम्बन्ध

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -39

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -39 - पंकज अवधिया साँपो से जुडी वनस्पतियो मे सदा ही से मेरी रुचि रही है। एक बार मुझे पता चला कि पास के गाँव मे कोई तांत्रिक ऐसी दवा बेच रहा है जिससे सर्प दंश की चिकित्सा हो सकती है। मै वहाँ पहुँचा तो मुझे लाल रंग का एक पाउडर दिया गया और बताया गया कि इसे दंश वाले स्थान पर लगा देने से तुरंत ही यह जहर खीच लेता है। उसका यह भी दावा था कि इस पावडर को घर के उन स्थानो मे भी रखा जा सकता है जहाँ से साँप के भीतर आने की सम्भावना हो। इस पावडर के प्रभाव से साँप दूर ही रहेगा। पावडर एक छोटे से डब्बे मे बन्द था और उसकी कीमत थी 251 रुपये। मैने डब्बा खोला तो तेज बदबू से मेरा सिर घूम गया। यह बदबू एंटीबायटिक दवाओ से मिलती-जुलती थी पर उनसे कुछ अलग भी थी। मेरा दिमाग इसे सही रुप से पहचान नही पाया। मैने डब्बा खरीद लिया। उसे लेकर जब सर्प विष चिकित्सा मे दक्ष पारम्परिक चिकित्सक के पास गया तो उसने पावडर को पहचान लिया। उसका मत था कि सर्प दंश वाले स्थान पर इसे लगाने से फायदे की जगह नुकसान हो सकता है पर हाँ, घर मे रखने से शायद साँप न आये। यह वन

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -38

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -38 - पंकज अवधिया हमारे देश मे बहुत सी ऐसी वनस्पतियाँ किसानो और आम जनो के लिये सिरदर्द बनी हुयी है जिन्हे सजावटी पौधे के रुप मे विदेशो से लाया गया। विदेशो से लाने से पहले इनके गुणो को तो देखा गया पर दोषो को अनदेखा कर दिया। परिणामस्वरुप बहुत सी वनस्पतियो को लोगो ने अपने बागीचे से उखाड फेका। कुछ वनस्पतियाँ बागीचे से भाग निकली। उन्होने अपने बीज हवा और पानी के माध्यम से दूर-दूर तक फैला दिये और इस तरह जगह-जगह पर उनका साम्राज्य कायम हो गया। कुछ ने किसानो के खेतो को घर बनाया तो कुछ ने जंगल मे डेरा डाल लिया। इन विदेशी वनस्पतियो के दुश्मन अर्थात इन्हे खाने वाले कीडे और रोग विदेश मे ही छूट गये। केवल इन्हे ही लाया गया। यहाँ इन कीटो और रोगो के न होने के कारण वे मजे से उग रहे है और दिन दूनी-रात चौगुनी की दर से अपना साम्राज्य बढा रहे है। जाने-अनजाने इनसे देश को हर साल अरबो रुपयो का नुकसान हो रहा है। लेंटाना का ही उदाहरण ले। सजावटी फूलो के कारण इसे पसन्द किया गया और विदेश से ले आया गया। पर इसकी पत्तियो की अजीब गन्ध और कंटीले तने

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -37

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -37 - पंकज अवधिया वानस्पतिक सर्वेक्षण के दौरान जब जंगलो मे जाना होता है तो पारम्परिक चिकित्सको के साथ स्थानीय लोगो को भी साथ मे रख लेता हूँ एक दल के रुप मे। इस बार ऐसे लोगो की तलाश मे जब हम गाँव पहुँचे तो लोग नही मिले। पता चला कि जडी-बूटियो के एकत्रण के लिये जंगल गये है। हम उनके बिना ही जंगल चल पडे। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको ने बताया कि इस बार सभी लोग भुईनीम नामक वनस्पति को उखाडने मे लगे है। धमतरी के व्यापारियो ने इस बार बडी मात्रा मे इसके एकत्रण का लक्ष्य रखा है। इसकी बढी हुयी माँग को देखते हुये उन्होने ऐसे स्थानो को भी चुना है जहाँ से पहले कभी इसे एकत्र नही किया गया। इस वनस्पति की देश-विदेश मे बहुत माँग है। देश के दूसरे भागो से भी इसकी आपूर्ति होती है। जिस साल एक भाग मे वर्षा कम होती है उस साल दूसरे भागो मे इसकी माँग बढ जाती है। छत्तीसगढ के व्यापारी दशको से इसका व्यापार कर रहे है। रास्ते मे हमे बहुत से लोग मिले जो बडी बेदर्दी से इसे उखाड रहे थे। मैने बेदर्दी शब्द इसलिये इस्तमाल किया क्योकि स्थानीय लोग बताते

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -36

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -36 - पंकज अवधिया रात बारह तक फोन आना मेरे लिये आश्चर्य का विषय नही है पर कुछ सप्ताह पूर्व रात को दो बजे जंगली इलाको से दो फोन आये। पहला फोन उसी सर्प विशेषज्ञ का था जिसके विषय मे पहले मैने लिखा है। कैसे फोन किये गणेश? मैने पूछा। उसने बताया कि एक ग्रामीण महिला रात को जब शौच के लिये उठी तो उसे जहरीले साँप ने काट लिया। उसके घरवाले आनन-फानन मे उसके पास आये है। इलाज शुरु ही होने वाला है। यदि सम्भव हो तो आप आ जाये। सामने-सामने देख लीजियेगा कैसे जहर उतारते है हम लोग। मुझे उसकी बात पर हँसी भी आयी और गुस्सा भी। रात को दो बजे फोन किया था। मै अभी घर से निकलता तो घंटो लगते उस तक पहुँचने मे। पहले मैने गणेश को लोगो की सेवा करते देखा है। अब फिर बार-बार फोन की क्या जरुरत? गणेश अभी भी फोन पर था। उसने कहा कि यदि आप आ रहे है तो हम रुक भी सकते है। मैने कडे शब्दो मे कहा कि इलाज मे देरी मत करो। मै अभी नही आ सकता पर अगले हफ्ते जरुर आऊँगा। ऋषिपंचमी के दिन ली गयी तस्वीरो को फ्रेम मे लगवाकर परसो मै गणेश के पास पहुँचा। उसने तस्वीरे तो रख ली