अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -44

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -44 - पंकज अवधिया


तो आजकल आप गठिया के लिये क्या उपाय कर रहे है? क्या पर्याप्त जल का सेवन जारी है? योग कैसा चल रहा है? मैने एक साथ कई प्रश्न अपने मित्र के पिताजी से कर दिये। वे काफी दिनो से गठिया के मरीज है। उन्हे जो भी नया उपाय मिलता है बिना देर किये उसे आजमा लेते है। चाहे इसके लिये कितने भी पैसे खर्चने पडे। उन्होने जवाब दिया कि जब से यह चमत्कारी अंगूठी मिली है तब से सभी उपाय बन्द है। अब इसी अंगूठी से गठिया जड से ठीक हो जायेगा। मैने सोचा कि किसी ने रत्नो वाली अंगूठी थमा दी होगी और मोटी रकम वसूल ली होगी पर जब उन्होने अपना हाथ बढाया तो बडी सस्ती सी अंगूठी दिखायी दी जिस पर मटमैली प्लेटनुमा वस्तु लगी हुयी थी। अरे अंकल, ऐसे तो कुछ समझ नही आ रहा है। जरा विस्तार से बताये। मैने कहा। उन्होने बताया कि एक देहाती मेले से यह अंगूठी लाये है ग्यारह हजार रुपये देकर। इसमे डायनोसोर की हड्डी लगी है। मुझसे रहा नही गया। मैने पूछा, डायनोसोर? वह भी इस जमाने मे? क्या अंकल आप भी मजाक करते है? डायनोसोर की हड्डी किसे मिल गयी जो इतनी सारी अंगूठियाँ बनाकर बेच रहा है? उन्होने अंगूठी बेचने वाले का अता-पता बता दिया। अंकल अपने जीवन मे एक सफल व्यापारी है। उन्हे अंगूठी की शक्ति पर इतना अधिक विश्वास करते देखना आश्चर्य का विषय था। उनको ठगना आसान नही है। बातचीत के बाद मै बाहर निकला तो आँटी ने कहा कि इन्हे समझाओ। सब कुछ छोड दिया है इस चमत्कारिक अंगूठी के चक्कर मे। इस लापरवाही से पुरानी समस्याए फिर से उभर रही है।

अंगूठी वाले की तलाश मे जब मैने उस गाँव का रुख किया तो रास्ते मे रुक-रुक कर चमत्कारिक अंगूठी के बारे मे राह चलते लोगो से पूछताछ करता रहा। न केवल वैसी अंगूठी मिली बल्कि लाकेट भी दिख गये। किसी ने कहा कि इसे पहनने से भूत-प्रेत दूर रहते है। किसी ने कहा कि इससे वात की बीमारी ठीक होती है। बहुत से युवा शरमाकर बोले कि इसे तकिये मे रखकर सोने से स्वप्नदोष दूर होता है। इसे कामोत्तेजक भी बताया गया। इसका कोई एक मूल्य नही था। किसी को कुछ सौ मे बेचा गया था तो किसी ने हजारो लिये गये थे। सब इसका उपयोग कर रहे थे पर इसके असर के बारे मे कोई कुछ नही कह रहा था। जब अंगूठी वाले के पास पहुँचा तो उसके पास भीड लगी थी। वह बाहर से आया था और किराये पर एक झोपडी ले रखी थी। झोपडी के बाहरी हिस्से मे चमत्कारिक अंगूठी मे जडा जाने वाला कच्चा माल पडा था। तेज बदबू आ रही थी और ढेर के रुप मे प्लेटनुमा टुकडे बिखरे थे। लगता था कि किसी जानवर को मारा गया है। क्या यही डायनोसोर था जिसकी बात अंकल कर रहे थे? जानवर के बारे मे अंगूठी बेचने वाले से चर्चा की तो मेरा माथा ठनका। मैने एक अंगूठी ली और पास के पारम्परिक चिकित्सको के पास पहुँचा। मेरा शक सही निकला।

पारम्परिक चिकित्सको के साथ मै क्षेत्र के वन अधिकारी के पास पहुँचा और उन्हे अपना परिचय दिया। फिर उनकी ओर अंगूठी बढायी। उन्हे बताया कि कैसे इसे सभी रोगो की दवा बताकर बेचा रहा है। वन अधिकारी ने ध्यान से अंगूठी को देखा फिर अपनी श्रीमती को आवाज दी। तुम गाडी लेकर गाँव चले जाना और पिताजी के लिये एक अंगूठी खरीद लाना। उन्होने अपनी पत्नी से कहा और फिर मेरी ओर मुखातिब होकर बोले ये आपने अच्छा बताया। दरअसल मेरे पिताजी गठिया के मरीज है। अब मै अपने क्रोध पर काबू नही रखा सका। मैने उनसे अंगूठी मे उपयोग किये जा रहे पशु अंग को उन्हे दिखाया और कहा कि इसका शिकार अवैध है। आप उस व्यक्ति को पकडिये और पता कराइये कि आखिर इतनी बडी मात्रा मे अंगो के लिये कितने पशुओ को कब और कहाँ मारा गया? वन अधिकारी अभी भी असमंजस मे थे। बोले आप पुलिस मे शिकायत दर्ज कराये। यह मेरे क्षेत्र के बाहर है। इसका मतलब वे अभी तक इस अंग को पहचान नही पाये थे। हमने उन्हे बता ही दिया कि यह पेंगोलिन जिसे हिन्दी मे चीटीखोर भी कहा जाता है, के शल्क से तैयार की गयी अंगूठी है। शल्क के लिये बडी मात्रा मे इनका अवैध शिकार किया जाता है। यही कारण है कि पिछले कुछ दशको से इनकी संख्या मे बहुत कमी आयी है। इसके शल्क और माँस के व्यापार पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबन्ध लग चुका है। भारत मे भी इसके शिकार और व्यापार पर अंकुश लगाने का दावा सरकारी दस्तावेज करते तो है पर जब अधिकारी यह नही जानते कि इसकी पहचान क्या है तो जमीनी स्तर पर वे क्या कर पाते होंगे, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

जंगली क्षेत्रो मे पेंगोलिन का शिकार पीढीयो से किया जाता रहा है। यह शर्मीला जीव है। दीमक इसका भोजन है। माँ प्रकृति ने दीमक की आबादी पर नियंत्रण के लिये इसे धरती पर भेजा है। इसका माँस बहुत स्वादिष्ट कहा जाता है। यही कारण है कि इसके दिख जाने पर जी-जान लगाकर तुरंत की मार दिया जाता है। माँस खा लिया जाता है। वनवासी जानते है कि इसके शल्क बिकते है। वे इसे एकत्र कर लाते है और औने-पौने दाम पर बेच देते है। ज्यादातर मामलो मे अंगूठी बेचने वाले ही खुद जंगल जाकर पेंगोलिन को मार देते है। यहाँ बाघो की जान नही बच पा रही है तो पेंगोलिन जैसे निरीह प्राणी की कौन सुध लेगा? आम लोग इसके शल्क को भूत-प्रेत से रक्षा के लिये के पहनते है। पर इस शल्क मे इतनी शक्ति होती तो मानव रुपी भूत से पेंगोलिन के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग ही नही पाता। इस निरीह प्राणी से जुडा अन्ध-विश्वास इसके लिये अभिशाप बन गया है।

अपने व्याख्यानो मे जब मै पैगोलिन पर हो रहे इस अत्याचार पर अपना आक्रोश जताता हूँ तो बहुत से लोग विरोध मे खडे हो जाते है। उनमे से कई लोग आयुर्वेद के जानकार होते है। वे प्राचीन सन्दर्भ ग्रंथो का हवाला देते हुये कहते है कि गठिया मे इसके शल्क के प्रयोग की बात ग्रंथो मे वर्णित है। फिर आप कैसे इसे अन्ध-विश्वास कहते है? मै उन्हे समझाने की कोशिश करता हूँ। शल्क से भूत-प्रेत भगाने का दावा करना अन्ध-विश्वास है पर यह मै भी जानता हूँ कि पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियो मे इसके कई उपयोगो के बारे मे बताया गया है। आज भी देश के बहुत से भागो मे यह उपयोग किया जा रहा है। मैने इसके विषय मे पारम्परिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण भी किया है। पर इस विषय मे पेंगोलिन पर मंडराते खतरे से दुखी पारम्परिक चिकित्सको का तर्क मुझे सही जान पडता है। वे कहते है कि पहले मानब आबादी कम थी इसलिये पेंगोलिन की आबादी पर खतरा नही था। अब जब खतरा बढ गया है तो इस पर निर्भरता को खत्म करना होगा। आमतौर पर गठिया के लिये ही इसके शल्को का प्रयोग होता है। जितना इसका प्रभाव होता है उससे कही अधिक प्रभाव आस-पास खरपतवार की तरह उग रही वनस्पतियो के विवेकपूर्ण उपयोग से प्राप्त किया जा सकता है। इस बात का प्रचार-प्रसार कर इसका उपयोग कर रहे लोगो को शल्क के प्रयोग से रोका जा सकता है। पारम्परिक चिकित्सको की बात सही है। इस आधार पर हम मानव बहुत से पशुओ का जीवन बचा सकते है विशेषकर ऐसे पशु जिन्हे औषधी के स्त्रोत के नाम पर मारा जा रहा है।

कानून बनाकर यदि हम निश्चिंत हो जाये कि शिकार और व्यापार पर अन्कुश लग जायेगा तो यह हमारी भूल है। अन्ध-विश्वास, प्रकृति के असंतुलन आदि विषयो पर अलग-अलग काम करने की बजाय एक साथ मिलकर योजनाबद्ध तरीके से समंवित प्रयास आवश्यक है-ऐसा मेरा मानना है। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

इस लेखमाला को चित्रो से सुसज्जित करके और नयी जानकारियो के साथ इकोपोर्ट मे प्रकाशित करने की योजना है। इस विषय मे जानकारी जल्दी ही उपलब्ध होगी इसी ब्लाग पर।

Comments

Udan Tashtari said…
वाह रे भाई चमत्कारी अंगूठी!!! बढ़िया मजा आ रहा है आपके अनुभव पढ़कर.
Gyan Darpan said…
आपने सही लिखा है जब आस पास खडी वनस्पतियों से गठिया जेसे रोगों पर आसानी से काबू पाया जा सकता तो निरीह जानवरों को क्यों मारा जाय | आज अस्व्गंधा बूटी जगह जगह खड़ी मिल जाती है जिससे गठिया का आसानी से इलाज किया जा सकता है लेकिन कोई उसे पहचाने तब न | आज करीब ४ साल पहले बाबा रामदेव ने अस्व्ग्न्धा के बारे में लोगों कुछ निस्खे बताये तो दिल्ली की पौद्शालाओं में अस्व्गंधा के पौधे ही ख़त्म हो गए,एक कारखाने के मैनेजर ने तो ५०० रु देकर एक मजदुर को उसके गावं भेज कर अस्व्गंधा का पौधा मँगवाया जबकि जिस फार्म हाउस में उसका कारखाना लगा था वहां अस्व्गंधा का पुरा जंगल खड़ा था लेकिन पहचान किसी को नही थी |
अन्ध-विश्वास, प्रकृति के असंतुलन आदि विषयो पर अलग-अलग काम करने की बजाय एक साथ मिलकर योजनाबद्ध तरीके से समंवित प्रयास आवश्यक है.
Pankaj ji,
aple vicharo se sahamat hun . bahut umda aalekh.

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