अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -48

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -48 - पंकज अवधिया


हमारे एक फिल्मकार मित्र है जो जंगलो मे मोर को देखते ही ग़ाडी रुकवा देते है। तस्वीरे उतारने के लिये नही बल्कि उसकी आवाज सुनने के लिये। साथ मे चल रहा कोई स्थानीय व्यक्ति यदि आवाज लगाकर मोर को आवाज लगाने के लिये उकसाता है तो वे उसे घूरकर ऐसे देखते है कि उसकी आवाज निकलनी बन्द हो जाती है। मोर की आवाज सुनने के लिये वे घंटो गुजार देते है। कई बार तो उनको गाडी मे ही छोडकर हम लोग पैदल जंगल मे चले जाते है। एक बार मोर बोले तो वे अगली बार का इंतजार करते है। तीन बार उसकी आवाज सुनते ही उस स्थान से तेजी से दूर चले जाते है। तेजी का कारण होता है कि कही चौथी आवाज न सुनायी पड जाये। मै उनके इस मोर प्रेम से काफी समय से अभिभूत था। छत्तीसगढ के बारनवापारा अभ्यारण्य मे जहाँ पर्यटको की निगाहे तेन्दुए और बायसन को खोजती रहती है वहाँ हमे मोर के पास घंटो डटा देखकर दूसरे पर्यटक हमारा मजाक बनाते रहते है। अभ्यारण्य का गाइड भी सिर फोडते बैठा रहता है। फिल्मकार मित्र कैमरा साथ लिये होते है पर मोर की तस्वीरे नही उतारते है। बस आवाज सुनने की जल्दी मे लगे होते है। इस मोर प्रेम के राज से पर्दा उनकी पत्नी ने उठाया।

उनकी पत्नी ने मुझसे शिकायत भरे लहजे मे कहा कि आप लोग हमे भी जंगल ले जाया करे। बस अकेले-अकेले पुण्य कमा लेते है। तब जाकर बात साफ हुयी। मोर जितनी बार आवाज निकालता था उससे ही उनका भविष्य़ तय होता था। एक बार आवाज सुनायी दे मतलब धन प्राप्ति, दो बार मतलब स्त्री सुख और तीन बार मतलब मनचाही मुराद पूरी। यदि चौथी बार सुनायी दे मतलब अनर्थ। इसलिये तीन बार सुनने के बाद मित्र वहाँ से भाग लेते थे। मुझे यह सब सुनकर विचित्र लगा। उन्हे उनके किसी गुरु ने यह बताया था और यह उनका विश्वास (अन्ध कहे तो ज्यादा सही होगा) था। मोर की आवाज से शुभ-अशुभ का अन्दाज लगाना देश के बहुत से भागो मे पहले प्रचलित था। अब यह प्रचलन मे नही है। लोगो मे जागरुकता बढने से ऐसा नही हुआ है बल्कि मोरो के खत्म हो जाने के कारण उनसे जुडे विश्वास और बाते भी बीते दिनो की बात हो गयी है। छत्तीसगढ के सिकासार क्षेत्र मे कुछ दशक पहले तक जंगली मोर बडी मात्रा मे थे। उस क्षेत्र के बुजुर्ग अभी भी मोरो से जुडी बातो को बताते है। अब एक भी मोर उस क्षेत्र मे नही दिखता और बुजुर्ग भी उम्र के अंतिम पडाव मे है।

मोर की आवाज से भविष्य़ तय करना मन को दिलासा देना है। ठीक उसी तरह जिस तरह हम अखबारो मे छपने वाले दैनिक राशिफल को सच मान बैठते है। मुझे याद आता है कि नेट की परीक्षा पास करने लेने के बाद मै दिल्ली के पूसा संस्थान मे ठहरा था। वहाँ तो कैम्पस मे दर्जनो मोर थे जो दिनभर बोलते रहते थे। निश्चित ही सुबह से तीन बार से ज्यादा आवाज कुछ ही मिनटो मे सुनायी दे देती थी। यदि फिल्मकार मित्र उस समय साथ होते और मै उनके विश्वास को सही मान बैठता तो अनर्थ से डरकर साक्षात्कार के लिये ही नही जाता और कभी इसमे सफल नही हो पाता।

आज भी मेरे मित्र साथ मे जंगल भ्रमण के लिये जाते है। मै खुलकर उनके इस विश्वास का विरोध नही करता पर उनके इसी विश्वास के बल पर उन्हे कहता रहता हूँ कि अब आपकी जिम्मेदारी है कि इस भविष्य़ निर्धारक पक्षी को आप बचाये। जिस तेजी से ये खत्म हो रहे है उससे चिंता होती है कि आप कल कैसे इन्हे जंगलो मे इतनी आसानी से खोज पायेंगे? मेरी बातो का कुछ असर उनपर दिख रहा है। वे अब मोर के चित्र लेकर एक प्रदर्शनी लगाने जा रहे है जिसका उद्देश्य मोर के महत्व को समझाना है और आम लोगो को उसके पंखो आदि के उपयोग को बन्द करने की अपील करना है। वेशायद जान चुके है कि इस प्राणी के भविष्य़ से ही उनका भविष्य़ जुडा है।

इस लेखमाला के पिछले लेख की तरह हम इस बार भी पक्षियो से जुडे अन्ध-विश्वासो की चर्चा कर रहे है। चमगादड और कबूतर के घर पर आ जमने को जिस तरह घर और उसके सदस्यो के विनाश का सूचक माना जाता है उसी तरह समाज मे बहुत से लोग चील के बारे मे भी ऐसी बाते करते है। मुझे याद आता है कि बचपन मे एक बाडी नुमा घर मे ऊँचे पेडो पर चील का बसेरा था। बसेरा कहना ठीक नही होगा क्योकि मैने चील को वहाँ आते-जाते ही देखा था। हम बच्चो को आस-पास के लोग उस उजडे हुये घर को दिखाकर बार-बार उसी बात को दोहराते थे। यदि गल्ती से कोई चील जमीन पर गिर पडती तो लोग पत्थर लेकर उसके पीछे लग जाते। बचने के लिये वह नालियो मे घुस जाती तो वहाँ भी पत्थर मारा जाता था। जब तक उसकी मौत नही हो जाती थी, लोगो का अत्याचार रुकने का नाम नही लेता था। चील को अपशकुन लाने वाला जीव माना जाता था। उस समय अक्ल नही थी पर आज जब उस घटना को मै याद करता हूँ तो आँखे नम हो जाती है और मन क्रोध से भर जाता है कि उस समय किसी ने सही रास्ता क्यो नही दिखाया।

कुछ वर्षो पहले अहमदाबाद से रायपुर आते वक्त अहमदाबाद एयरपोर्ट पर सुबह कुछ जल्दी ही पहुँच गया। एयरपोर्ट खाली था। कर्मचारी सुबह के काम मे लगे थे। तभी किसी ने मेरे कन्धे पर हाथ रखा। कहा, आप पंकज ही हो न, रायपुर वाले। मैने हामी भरी पर उन्हे पहचान नही पाया। वे एयरपोर्ट के सुरक्षा अधिकारी थे। उन्होने बताया कि बचपन मे उन्होने मुझे मोहल्ले मे देखा था। वहाँ उनका भी घर था। जब उन्होने उसी घर का जिक्र किया जिसके बारे मे कहा जाता था कि चील के बसने से घर उजड गया और सदस्यो का सर्वनाश हो गया तो मै चौक पडा। थोडी चर्चा के बाद मै अपने आपको रोक नही पाया। मैने पूछ ही लिया। वे नाराज नही हुये। उन्होने कहा कि पिताजी और चाचा जी मे जमीन को लेकर झगडा था। इस लिये चाचाजी ने चील वाली बात फैला दी थी। पहले भूत की बात कही गयी। जब हम लोगो ने घर छोडा और मुम्बई मे बस गये तो चील वाली बात भी फैला दी गयी। हम पर किसी भी कीमत मे जमीन बेच देने का दबाव बनाया गया पर घर बरसो तक वैसा ही पडा रहा। अफवाह फैलाने वाले अब इस दुनिया मे नही है पर अफवाह अभी तक जिन्दा है।

आज उस जमीन पर नया घर बन गया है। वहाँ रहने वाले इस बात को नही जानते पर मोहल्ले के एक बुजुर्ग की पुरानी यादो को मैने टटोलना चाहा था तो मुझे उनकी आँखो मे खौफ मे रुप मे अपने बचपन की घटना का आभास हो गया। आपसी झगडे ने चील से जुडे अन्ध-विश्वास को बेमतलब हवा दी और बहुत से मासूम प्राणियो को बेवजह जान गँवानी पडी।

इस लेख को समाप्त करने के पहले उस मजेदार विश्वास के विषय मे बताना चाहूंगा जिसके विषय मे चर्चा कर पिछले सप्ताह जंगल यात्रा की रात्रि मे हम देर तक हँसते रहे। यह टिटहरी पक्षी से जुडे विश्वास की बात थी। साथ चल रहे एक व्यक्ति ने बताया कि यदि बच्चे को जन्म देते समय कोई स्त्री टिटहरी की आवाज सुन ले तो लडका ही पैदा होता है। हमारा एक ही सवाल था कि यदि अजन्मा बच्चा कन्या हो तो भी क्या इस आवाज से वह बालक बन जायेगा। हम जितनी बार यह पूछते, उतनी ही बार वह भोलेपन से जवाब देता, हाँ साहब, ऐसा ही होता है। और हमारी हँसी नही थमती थी। देर रात तक यह सिलसिला जारी रहा। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

इस लेखमाला को चित्रो से सुसज्जित करके और नयी जानकारियो के साथ इकोपोर्ट मे प्रकाशित करने की योजना है। इस विषय मे जानकारी जल्दी ही उपलब्ध होगी इसी ब्लाग पर।

Comments

बहुत सही तर्क हैं आपके। आपको पढना अच्‍दा लग रहा है। लिखते रहें।
आपके वनस्पतियों से सबंधित लेख भी बड़ी रूचि से पढ़े जाते हैं, पर आजकल उस विषय पर नए लेख नहीं दिख रहे. आप पादप सम्पदा की जानकारी भी देते रहें तो लोग और भी जागरूक हो सकते हैं.

आपने एक पोस्ट में घर ठंडा रखने के लिए छत पर सफ़ेद पेंट की बात कही थी. कुछ लोग घनी बेलों का भी प्रयोग करते हैं, इस काम के लिए उपयुक्त कुछ भारतीय मूल की बेलें, और उनसे धूप रोकने की विधि बताने की कृपा करें तो शायद मध्यवर्गीय मकानों में एसी, कूलर, पंखे वगैरह का प्रचलन कुछ कम हो, जिससे कुछ पर्यावरण भी बचेगा और बिजली भी. अगर यह जानकारी इसी मौसम में मिल जाए तो लोग मार्च के मध्य तक घर की ठंडक का प्रबंध कर लेंगे. कुछ ऐसी भी बेलों के बारे में भी जानकारी दें जो mosquito repellent भी हो. शुभम्.

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