इंसानी काम-पिपासा बुझाता पथर्री टेटका और मनोकामनाए पूरी करता चीटीखोर

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-26
- पंकज अवधिया

इंसानी काम-पिपासा बुझाता पथर्री टेटका और मनोकामनाए पूरी करता चीटीखोर


“अरे, बचाओ, कोई तो बचाओ, गुफा मे छिपकली है। ये हमारी ओर ही आ रही है।“ एक सँकरी गुफा मे कुछ पल पहले ही पेट के बल घुसे कुछ लडको ने मदद के लिये पुकारा था। हम कुछ करते उससे पहले ही वे एक-एक करके गुफा के द्वार से वापस आ गये। ये पर्यटक थे। गुफा के पास मै पारम्परिक चिकित्सको के साथ वनस्पतियो की तस्वीरे ले रहा था। हम साल मे कई बार इस गुफा के पास आते है पर ठन्ड मे ही इसके अन्दर जाते है। स्थानीय लोगो की मान्यता है पेट के बल इस तंग गुफा मे सरकने से पेट की बहुत सी बीमारियो मे लाभ मिलता है। इसके लिये लोगो को खाली पेट आने को कहा जाता है। फिर गुफा से निकलने के बाद पास के झरने से भरपेट पानी पीने को कहा जाता है। गुफा तक पैदल आना और जाना होता। अब पर्यटक तो पूरे नियम-कायदो को मानते नही है। वे ऐसे ही गुफा मे घुस जाते है। कई बार लोग फँस भी जाते है। यह अच्छी बात है कि अब तक किसी की मौत गुफा मे फँसने से नही हुयी है।

गर्मियो और बरसात मे इस गुफा के अन्दर जाना सही नही होता है। गुफा ठंडी होती है इसलिये गर्मियो मे बहुत से छोटे जीव इसमे शरण लिये होते है। बरसात मे भी बिलो मे पानी भर जाने के कारण बहुत से साँप यहाँ डेरा जमाये रहते है। इस साल गर्मी का मौसम लम्बा खिच गया है। पानी बरस ही नही रहा। इस कारण हमने गुफा मे प्रवेश नही किया। हमने पर्यटको को समझाया भी पर वे कहाँ मानने वाले थे।

गुफा के द्वार से घबराये हुये पर्यटक निकले तो पारम्परिक चिकित्सक गुफा के उस छोर तक पहुँचे जहाँ सुरंगनुमा द्वार मे गुफा खत्म होती थी। वे जानते थे कि पर्यटको के प्रवेश से परेशान होकर छोटे जीव उसी द्वार से बाहर निकलेंगे। ऐसा हुआ भी। पर जिन्हे छिपकली कहा जा रहा था वे दुर्लभ राक केमेलियान यानि चट्टानी गिरगिट निकले। इन्हे स्थानीय भाषा मे “पथर्री टेटका” कहा जाता है। पहले ये बडी संख्या मे जंगल मे दिख जाते थे पर अब इनके दर्शन दुर्लभ हो गये। कामशक्ति बढाने के लिये इसका प्रयोग किया जाता है। अब कामशक्ति बढती है कि नही, ये तो इसे इस्तमाल करने वाले जाने पर इसके कारण ये तेजी से गायब हो रहे है। पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि साधारण वनस्पतियो मे कामशक्ति को बढाने की जबरदस्त शक्ति होती है फिर क्यो शहरी लोग इस निरीह जीव के पीछे भागते है?

गुफा से बाहर निकलते ही ये जीव खुले मे आ गये। अब इनके आसमान मे मँडराते शिकारी पक्षियो की नजर मे आने का खतरा बढ गया था। पारम्परिक चिकित्सको ने जल्दी से कलमी नामक वृक्ष की पत्तियो को एकत्र करने को कहा। हमने इन पत्तो को जोडकर एक आवरण बनाया और फिर इसे उस चट्टान पर रख दिया जिसके पीछे इन्होने शरण ली थी। ये मनुष्यो को नुकसान नही पहुँचाते है। यह जानकर पर्यटको की जान मे जान आयी।

कुछ दिनो पहले ही स्थानीय अखबारो मे रायगढ के पास की एक खबर प्रकाशित हुयी थी। खबर के अनुसार गर्मियो मे किसी गुफा को देखने गये देशी-विदेशी पर्यटको पर मधुमख्खियो ने हमला कर दिया। इसमे पहले कि उन्हे शहर के अस्पताल की ओर रवाना किया जाता उनकी जान चली गयी। गर्मियो मे छोटी पड गयी जलधाराओ और ठन्डी गुफाओ मे जाने से बचना चाहिये। शायद मारे गये पर्यटको ने इस चेतावनी पर ध्यान न दिया हो। मुझे याद आता है कि मैनपुर के पास एक डोंगर है जहाँ से पैरी नदी निकलती है। गर्मियो मे वहाँ विशेष प्रकार की वनस्पतियाँ उगती है। पर जब भी हम गर्मियो मे वहाँ जाते है तो पारम्परिक चिकित्सक हमे साफ मना कर देते है। नमी होने के कारण यहाँ बडी संख्या मे मधुमख्खियो का डेरा है। वे अपने क्षेत्र मे किसी तरह के दखल को बर्दाश्त नही करती है। इस क्षेत्र के कमार आदिवासी बडी मात्रा मे शहद का एकत्रण इस तरह के डोंगरो से करते है। वे पीढीयो से इस कार्य को कर रहे है। जब शहद एकत्रण का काम खत्म हो जाता है तभी पारम्परिक चिकित्सक डोंगर पर जाने देते है पर तब भी पूरी सावधानी बरती जाती है। जंगल के भले ही “जंगल राज” चलता हो पर इस “जंगल राज” के भी कुछ कठोर नियम होते है। इन नियमो का सम्मान किये बिना जंगल मे जाना बडी आफत मोल लेने जैसा है।

इस जंगल यात्रा के दौरान पारम्परिक चिकित्सको ने बताया कि गर्मी मे चीटीखोर जिसे पेंगोलीन भी कहा जाता है, गुफाओ मे अक्सर शरण लेते है। उन्होने इस बात का खुलासा किया कि तेन्दुए इस जीव से बहुत डरते है। वे इसे खाते नही है क्योकि खतरा दिखने पर शल्को से ढका यह जीव गेन्द की तरह गोल घूमकर अपने नाजुक अंगो को उसमे बन्द कर लेता है। पारम्परिक चिकित्सको ने दावा किया कि इस जीव की उपस्थिति वाले भाग मे तेन्दुआ नही होता है। यह एक महत्वपूर्ण जानकारी है। पेंगोलीन दीमको को चट कर जाता है। उसकी थूथन की बनावट ही ऐसी होती है कि वह दीमक की बाम्बी मे आसानी से घुस सके। जिस जंगल मे पेंगोलीन होते है वहाँ दीमक की आबादी पर अंकुश लगा रहता है। पेंगोलीन और तेन्दुए दोनो ही शर्मीले जीव माने जाते है। बेशरमी का सारा जिम्मा तो मनुष्यो ने ले रखा है। मैने अपने लेखो मे पहले लिखा है कि कैसे अन्ध-विश्वासी मनुष्य़ पेंगोलीन के माँस को खाता है और उनके शल्को को व्यापारियो के पास बेच देता है। शल्को से समस्त मनोकामना पूर्ण करने वाली अंगूठी बनायी जाती है। मुझे नही लगता कि किसी निरीह जीव को मारकर उसके अंगो से बनायी गयी अंगूठी किसी का भला कर सकती होगी?

पेंगोलीन से तेन्दुए डरते है, इस बारे मे दुनिया भर के वैज्ञानिक साहित्य कुछ नही बताते। मैने भी इससे पहले इसके बारे मे नही सुना है। पर मुझे पारम्परिक चिकित्सको की बातो पर विश्वास हो रहा है। Human-wildlife conflicts (HWC) के मामलो मे यह जानकारी बहुत काम आ सकती है। इसी उद्देश्य से मै इस लेखमाला मे इस बारे मे लिख रहा हूँ।

रास्ते मे एक छोटे व्यापारी से मुलाकात हुयी। मुझे बताया गया था कि पेंगोलीन जैसे जीवो के अंगो के व्यापार से उसने खूब कमाया है। बातो ही बातो मे मैने पेंगोलीन के शल्को से बनी अंगूठी के बारे मे चर्चा छेडी तो व्यापारी की आँखो मे चमक आ गयी। सिर पर हाथ रखकर कहा कि इस अंगूठी के लिये लोग मुँहमाँगे दाम देने को तैयार है पर मैने अब यह काम छोड दिया है। व्यापारी की बात सुनकर मुझे लगा कि उसे सदबुद्धि आ गयी होगी। पर वापस लौटते वक्त पारम्परिक चिकित्सको ने बताया कि जंगल मे अब इक्के-दुक्के पेंगोलीन ही बचे है, बडी संख्या मे इन्हे मारा गया है। अब पेंगोलीन बचे ही नही है तो भला व्यापारी क्यो न सिर पर हाथ रखेगा? मेरी समझ मे असल बात आ गयी। मै पेंगोलीन के भविष्य़ के लिये चिंतित हूँ पर भारत मे जंगल के राजा की ओर ध्यान देने वाला कोई नही है तो पेंगोलीन जैसे छोटे जीवो पर कौन ध्यान देगा? (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

Bhuwan said…
एक बार फिर बेहतरीन और रोचक जानकारियों भरा आलेख...
बेशर्मी का सारा जिम्मा मनुष्यों ने ले रखा है... बिलकुल सही कहा आपने

भुवन वेणु
लूज़ शंटिंग
एक ही पोस्ट में ढेर सारी बातें। ज्ञानवर्धन के साथ साथ मजा भी आया।


वैसे 'पथर्री टेटका' कहीं 'साण्डा' तो नहीं?

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