अनोखा साजा वृक्ष, ग्राम देवता और विकास

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-3
- पंकज अवधिया
चार जून, 2009

अनोखा साजा वृक्ष, ग्राम देवता और विकास


एक वनग्राम मे हमे साजा का एक अनोखा वृक्ष दिखा। एक नही, दो नही बल्कि तीन वृक्ष आपस मे जुडे हुये थे। ये वृक्ष बहुत पुराने थे। मै रुक गया और तस्वीरे लेने लगा। पास ही खेत पर एक किसान बन्दरो को भगाने मे जुटा हुआ था। बन्दर उसकी बाडी मे लगे धनिया के पौधो को उखाड-उखाड कर यह देख रहे थे कि वे ठीक से उगे है कि नही। वह एक तरफ से बन्दरो को भगाता तो बन्दर दूसरी ओर से चले आते। जब वह अपनी पूरी शक्ति लगाता तो बन्दर पास के कुसुम वृक्ष पर चले जाते। वे इतनी ऊँचाई पर बैठते कि कोई भी आसानी से वृक्ष के नीचे से पत्थर मार सके। पर जानकार भूलकर भी ऐसी नही करते। दरअसल यह एक जाल होता है। यदि कोई वृक्ष के नीचे पहुँच जाता तो बन्दर अपने “वेपन आफ मास डिस्ट्रक्शन” का प्रयोग करते। इसे “बायोलाजिकल वेपन” भी कह सकते है। वे सीधे नीचे खडे व्यक्ति पर मल-मूत्र की बौछार करते। मजाल है कि उनका निशाना चूके। हडबडाहट मे जब वह व्यक्ति नहाने जाता तब बन्दर आसानी से धनिया और दूसरे पौधो की छानबीन कर लेते। पर यहाँ किसान समझदार था।

किसान ने इस बात की पुष्टि की कि साजा का यह वृक्ष बहुत पुराना है। इतना पुराना कि उसके बुजुर्ग भी इसे बचपन से देख रहे है। इतना अनोखा व पुराना वृक्ष हो और उसके नीचे देवता का वास न हो, यह हो ही नही सकता। किसान ने बताया कि यहाँ ग्राम देवता विराजमान है। सारा गाँव और आस-पास के लोग इन्हे पूजते है। इनकी पूजा मे जो कुछ अर्पित होता है उससे इस अनोखे वृक्ष को पोषण मिलता है। वैसे यह पोषण नही मिले तो भी वृक्ष तो निस्वार्थ रुप से असंख्य जीवो की सेवा करता रहेगा। मैने अपने जीवन मे ऐसा वृक्ष नही देखा था। पर किसान ने कहा कि ऐसे बहुत से वृक्ष जंगल मे है पर उनके नीचे देवता का वास नही है। मुझे अपने पर खीझ हुयी कि जंगल मे ऐसे वृक्ष है तो मेरी नजर अब तक उन पर नही पडी। ऐसा अनोखा वृक्ष यदि मिल जाये तो एक पूरा दिन तस्वीरे लेते गुजारा जा सकता है। एक वृक्ष के लिये एक दिन? पागल तो नही हो गये हो?, आप यह कह सकते है। पर वृक्ष के अलग-अलग आयामो के अलावा उनमे दिन के अलग-अलग घंटो मे आने वाले कीट-पतंगे और नाना प्रकार के पंछी, गिलहरी, गिरगिट, मकडियाँ-इन सब को ध्यान से देखकर तस्वीरे ले तो एक क्या कई महिने लग जायेंगे। फिर गाँव के आम लोगो से इस वृक्ष की महत्ता पर चर्चा भी तो होती है। यदि आप चाहे कि किन्ही दो लोगो से बात करके सब कुछ जान लेने का भ्रम पाल सकते है पर यह आपकी भूल होगी। गाँवो मे हर व्यक्ति प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से वृक्ष से जुडा रहता है। सबके अपने अनुभव होते है। सबकी अपनी कहानी होती है। सब खुलकर नही बोलते पर जब बोलते है तो उनके अन्दर का ज्ञान फूट पडता है। अब बताइये मै श्री खोरबहरा के पास सालो से जा रहा हूँ। तस्वीरे ले रहा हूँ। पर इस बार उन्होने बताया कि यहाँ से गोरे साहब की रेल जाती थी। पहले क्यो नही बताया? अरे मैने पूछा नही इसलिये बताया नही। पर पूछा तो मैने इस बार भी नही था।

साजा छत्तीसगढ का जाना-पहचाना वृक्ष है। यहाँ बहुत से छोटे-बडे गाँवो का नाम साजा है। साजा के वृक्ष आबादी के दबाव के शिकार हो रहे है दूसरो की तरह। साजा अपनी लकडी के लिये आम लोगो की जुबान पर चढा हुआ है पर यह आश्चर्य का विषय है कि वे इसके औषधीय उपयोगो के विषय मे कम ही जानते है। साजा अर्जुन के ही परिवार का है। और अर्जुन तो हर्रा और बहेडा का सगा सम्बन्धी है। अर्जुन यानि वही अर्जुन जिसका वर्णन कौहुआ के रुप मे इस लेखमाला के पहले लेख मे है। जब साजा के इतने गुणी परिवारजन है तो यह सोचने वाली बात है कि कैसे साजा दिव्य औषधीय गुणो से परिपूर्ण नही होगा? साजा पर मैने हजारो पन्ने लिखे है पर यह अच्छी बात है कि अभी तक जडी-बूटी के व्यापारियो की निगाहो से यह नही गुजरा है। साजा की दिल्ली के खारी बावली बाजार मे माँग नही है। कुछ समय पहले इसके विशेष फलो की माँग कोलकाता के व्यापारियो ने की थी तो सबके कान खडे हो गये थे। बाद मे पता चला कि गुलदस्तो को सजाने के लिये इसके सूखे फलो की माँग उठी थी पर वह स्थायी नही थी। अब इंटरनेट, मोबाइल और बाइक का जमाना है। जंगल मे नयी वनस्पति का संग्रहण कुछ घंटो मे ही धमतरी और रायपुर के बाजारो मे हलचल मचा देता है। वनस्पतियो के स्थानीय नाम के लिये वे मेरे शोध लेखो का सहारा लेते है और फिर सीधे दिल्ली से बात कर लेते है। उनके कारिन्दे मोटरसाइकिल से जाकर वह वनस्पति ले आते है और महानगरो मे कूरियर कर देते है। मामला फिर भी न सुलझे तो सिंगापुर या अमेरिका का व्यापारी बनकर छ्दम नाम से मुझे ई-मेल किया जाता है। अक्सर वे प्रभाव जमाने के लिये इतनी बडी मात्रा की माग़ कर बैठते है जितनी पूरी दुनिया से एकत्र नही की जा सकती।

साजा का यह अनोखा वृक्ष मुझे कुछ पलो के लिये दुखी भी करता है। जहाँ यह वर्तमान मे है वहाँ बगल से एक पतली पर पक्की सडक जाती है। इसे देर-सबेर चौडी होना ही है, राजधानी से सीधे जो जुडती है। जब वह समय आयेगा तो बिना किसी देरी के इस वृक्ष को जड से उखाड दिया जायेगा। देवता और उनके भक्तो से बिना पूछे न्यायालय के आदेशो का हवाला देकर देवता को पक्के ठिकाने पर बैठा दिया जायेगा। सडक चौडी हो जायेगी। विकास के नाम पर ऐसा अत्याचार अब तो आम बात हो गयी है पर अपने घर और गाँव के बिगाड का दुख वे ही जानते है जिन पर यह गुजरती है। अभी कान्हा नेशनल पार्क से लौटा हूँ जहाँ पार्क बनने पर अन्दर के गाँवो को बाहर बसने के लिये कहा गया। पीढीयो पुराने खेतो को छोडकर वे आ गये पर अपने देवी-देवताओ को छोडना उन्हे गँवारा नही हुआ। पार्क के अन्दर आज भी श्रवण सरोवर है जिसके बारे मे मान्यता है कि यहाँ श्रवण कुमार आये थे अपने माता-पिता के साथ। यहाँ पर साल मे एक बार मेला लगता था। बडी संख्या मे श्रद्धालु आते थे। पर टाइगर पर बढते खतरे को देखते हुये इस पर जनाक्रोश की अन्देखी कर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। लोग मन-मसोसकर रह गये। पता नही कब यह गुस्सा ज्वालामुखी बनकर फूटे। वैसे यह याद रखना होगा कि ज्वालामुखी पीढीयो बाद भी फूटते है।

कान्हा की स्थिति को मैने दोनो नजरिये से देखा। मन मे विचार आया कि क्या मेले पर प्रतिबन्ध लगाने से टाइगर और दूसरे वन्यजीवो के शिकार पर अंकुश लग गया? नही, शिकार तो तूफानी गति से जारी है। फिर मेले पर रोक क्यो? मेले मे आये लोग बहुत कचरा फैलाते है। पर इस पर अंकुश लगाया जा सकता है।आम लोगो को मना करने की बजाय उन दुकानो को मेले मे न लगाया जाये जो कचरा फैलाने वाले उत्पाद बेचती है। एक पतला सा अस्थायी गलियारा बना दिया जाये ताकि श्रद्धालु जंगल के अन्दर प्रवेश न करे। तानाशाही से नही ग्राम समितियो के माध्यम से मेले का आयोजन हो। आज दर्शन करने नही मिलता उससे तो अच्छा है कि कुछ कडे नियमो के साथ दर्शन करने मिले ताकि पार्क का नुकसान न हो। मुझे विश्वास है कि आम लोग ऐसी किसी पहल पर सकारात्मक रुख ही अपनायेंगे।

जंगल के कानून अंग्रेजो के समय से चले आ रहे है। देश को आजाद हुये इतने साल हो गये पर जंगल और जंगल के लोगो के प्रति योजनाकारो का रवैया जस का तस है। अभी भी जंगल काटे जा रहे है और उन्हे खेतो की तरह माना जा रहा है। जैव-विविधता से पूर्ण जंगलो मे सागौन जैसे आर्थिक महत्व के वृक्षो के मोनोकल्चर लगाये जा रहे है। आम वनवासियो के लिये पहले गोरे साहबो का हुक्म था अब जंगल विभाग के अफसरो का। जंगलो के मामले मे अब भी देश काफी हद तक गुलाम है, ऐसा कहा जाये तो शायद गलत न होगा। (क्रमश:)

अनोखे साजा के नीचे ग्राम देवता

ये घडियाल की पीठ नही साजा की छाल है

कुसुम पर बैठे बन्दर



(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)


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Caesalpinia cuculata as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (Rapid decomposition of tissues),
Caesalpinia decapetala as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (Evident decomposition of vital fluids),
Caesalpinia mimosoides as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (In early stage- always increase of temperature),
Cajanus cajan as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (In early stage- the pulse is usually accelerated in direct proportion to the intensity of fever),
Caladium bicolor as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (In early stage- Yellow putrescent stools),
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Callicarpa tomentosa as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (In later stage- Stupor),
Callistemon lanceolatus as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (In later stage- delirium),
Calophyllum apetalum as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (In later stage- all the discharges are exceedingly offensive),

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हमारी मुनाफे की व्यवस्था ने सब नष्ट किया है, जंगल भी।

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