खोरबहरा, कौहुआ, कुल्लु और गोरे साहब की रेलगाडी

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-1
- पंकज अवधिया

चार जून, 2009

खोरबहरा, कौहुआ, कुल्लु और गोरे साहब की रेलगाडी


“साहब, ये कौहुआ का पेड है। मै अपने बचपन से इसे देख रहा हूँ। इसकी हम पूजा करते है।क्यो? क्योकि इसने हमारे गाँव को आज तक नाना प्रकार की बीमारियो से सुरक्षित रखा है। आज भी मै इसकी छाल से बनी चाय से ही दिन की शुरुआत करता हूँ। मुझे मालूम है कि इससे ह्र्दय मजबूत रहता है। दूर गाँव के लोग जब इसे जलाउ लकडी के लिये काटने आये तो मै लेट गया। जान दे दूंगा पर इसे काटने नही दूंगा। हमारे सियान (बुजुर्ग) बताते है कि गोरे साहब पूरा जंगल यहाँ से ले गये पर इस पेड की महत्ता को देखते हुये बिना काटे छोड दिया। आप जो ये नाला देख रहे है, ये अभी सूखा है पर बरसात मे लबालब भर जाता है। बरसात और गर्मी मे यह पेड इतना पानी पी लेता है कि पूरी गर्मी निकाल लेता है। ये हमारी इतनी सेवा करता है पर हम इसके लिये ज्यादा कुछ नही कर पाते है।“ रायपुर से पचास-पचपन किमी की दूरी पर श्री खोरबहरा यह सब मुझे बता रहे थे। वे एक मन्दिर के पुजारी है। मै अक्सर यहाँ आता रहता हूँ। यहाँ देवी का मन्दिर है और इस ओर के जंगल मे जाने के लिये यही से होकर जाना होता है।

श्री खोरबहरा परिवार वाले थे। वैराग्य और देवी सेवा मे मन क्या लगा, गाँव छोडकर जंगल मे बने मन्दिर मे आ टिके। मै अक्सर उनके साथ पैदल ही जंगल मे लम्बे निकल जाता हूँ। न जाने कितनी जानकारियाँ है उनके पास। घंटो हम चलते रहते है और दुर्लभ वनस्पतियो को खोजते रहते है। रास्ते मे भालू मिल गये तो पहले वे मुझे पेड पर चढाते है फिर खुद चढते है। तेन्दुआ मिल गया तो जोर से चिल्ला कर कहते है कि देवी के मन्दिर तक पहुँच और दर्शन कर, मै आता हूँ, साहब को जंगल दिखाकर। फिर मेरी ओर मुड कर कहते है कि ये देवी के दरबार जा रहा है। मै चौडी आँखो से यह सब देखता रहता हूँ। मै अपने आधुनिक जूतो के बाद भी सम्भल कर चलता हूँ और वे नंगे पाँव गरम धरती पर बेफिक्र से चलते जाते है।

“क्या यहाँ कुल्लु का पेड नही है?” मैने पूछा। कुल्लु यानि स्टरकुलिया यूरेंस जिसे अंग्रेजी मे इंडियन घोस्ट ट्री भी कहते है। सफेद भूत से कम नही दिखता है ये पेड। इसकी गोन्द की देश-विदेश मे बहुत माँग है। पेड के नरम तने पर एक कुल्हाडी मारी नही कि विनम्रता से पेड गोंद उगलने लगता है। इतनी विनम्रता कि वह सर्वस्व लुटा देता है। उफ तक नही करता। स्वार्थी मनुष्य बिना देरी किये गोन्द बटोरता है और बाजार की ओर निकल पड्ता है। उसे मालूम होता है कि अब दोबारा उसे यहाँ नही आना है। क्यो? क्योकि अब इस पेड को सूखकर मरने से ऊपर वाला भी नही बचा सकता। पथरीली जमीन पर ही यह उगता है। माँ प्रकृति बडी मुश्किल से इन्हे तैयार करती है और एक पल मे ही सब लुट जाता है। बताते है कि सरकार ने कभी इसके एकत्रण पर प्रतिबन्ध लगाया था पर आप तो जानते है कि प्रतिबन्ध इस तरह के दोहन को बढा देते है। प्रतिबन्ध के दौरान (और आज भी) इसकी गोन्द खुलेआम बाजरो मे बिकती रही। पारम्परिक चिकित्सक इस बात को जानते है। इसलिये उन्होने अपने रोगियो को इसे देना बन्द कर दिया है। मै पिछले पन्द्रह वर्षो से इस पेड की प्राकृतिक आबादी पर नजर गडाये हूँ। पहले बहुतायत मे होने वाला यह पेड देखते ही देखते दुर्लभ से दुर्लभतम हो गया। मीलो चलने पर ही एक या दो पेड मिलते है और वो भी छलनी सीने वाले, मौत की बाट जोहते। इस भयावह स्थिति को भाँपते हुये मैने भी इसके विषय मे पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान को सार्वजनिक तौर पर बताना बन्द कर दिया है।
“एक पेड है साहब। बडी मुश्किल से बचा के रखा है।“ खोरबहरा ने जवाब दिया। काफी दूर तक पैदल चलने के बाद जब हम उस पेड तक पहुँचे तो पता चला कि गोन्द एकत्र करने वाले वहाँ पहले पहुँच चुके थे। पेड के जानलेवा जख्म को देखकर मन रो पडा। खोरबहरा ने दर्जनो गालियाँ दी उस अज्ञात हत्यारे को और फिर सिर पकडकर बैठ गये।

उस दिन मै आगे वन ग्रामो मे गया तो कुल्लु की बात करता रहा। जिन गाँवो मे ये सैकडो की तादात मे थे वहाँ अब ये खोजे नही मिलते है। और सबसे बुरी बात यह है कि नयी पीढी के युवाओ को इस पेड की भूमिका के बारे मे पता ही नही है। बहुत से युवा तो ये भी नही जानते कि गाँव मे ये है कहाँ?

वापस लौटकर हम फिर उसी सूखे नाले पर पहुँचे। खोरबहरा बोले “ गोरे साहब को यह जगह पसन्द थी इसलिये वे अपनी गाडी यहाँ रुकवाते थे।“ मैने पूछा, “गाडी”? मोटरगाडी?” खोरबहरा ने जो जवाब दिया वह यकीन करने लायक नही था। “गाडी, माने रेलगाडी। पहले यहाँ से रेलगाडी जाती थी। जंगल से लकडी को काटकर बडे शहरो तक ले जाने के लिये अंग्रेजो ने यहाँ छोटी (नैरो गेज की) रेलगाडी चलायी थी। जब काम हो गया तो पटरियाँ निकाल ली गयी।“ जिस जगह की बात मै कर रहा हूँ वहाँ कभी रेलगाडी चलती होगी इसकी परिकल्पना करना भी मुश्किल था। हम बचपन से सुनते रहे है कि रायपुर और नगरी के बीच रेल मार्ग था अंग्रेजो के जमाने मे पर वह मार्ग यहाँ से गुजरता होगा यह मैने न कभी पढा और न ही सुना। मैने सूखे नाले की तस्वीरे ली। फिर उस नाले मे कुछ दूर तक आगे बढा। यह रेल मार्ग बडा ही मनोरम लगा। अंग्रेजो के समय तो और भी मनोरम रहा होगा क्योकि उस समय यह क्षेत्र घने जंगलो से ढका रहा होगा।

घर लौटते ही मैने इंटरनेट खंगालना शुरु किया इस मार्ग की जानकारी के लिये पर कुछ भी, जी हाँ, कुछ भी नही मिला। मुझे लगता है कि पर्यटको के लिये तरस रहे छत्तीसगढ के लिये यह रेलमार्ग वरदान साबित हो सकता है। इस रेलमार्ग पर से पर्यटक गुजरे तो गदगद हो जाये। यदि इसे पुनरजीवित कर दिया जाये तो फिर क्या कहने?

“मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने” यह लेखमाला जंगल यात्रा के दौरान हो रहे नित नये अनुभवो पर आधारित है। मेरे पास बाँटने को ढेरो जानकारियाँ है। अपने साथ इन्हे सहेज कर रखूंगा तो शेष दुनिया को उस “धरती के स्वर्ग” के बारे मे नही बता पाऊँगा जो मेरी कर्म-स्थली है। मै इसे आपके लिये लिख रहा हूँ पर चाहता हूँ कि पीढीयो तक इसे पढा जाये। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)


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Canna orientalis as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (Hemorrhages of dark blood),
Cannabis sativa as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (Marked intolerance to pressure),
Canscora decussata as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (Involuntary discharges),
Canscora diffusa as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (Dropping of the lower jaw),
Cansjera rheedi as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (Even slightness exertion results in vertigo),
Canthium angustifolium as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (Great weakness),
Canthium coromandelicum as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (A besotted look to the face),
Canthium dicoccum as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (Teeth are covered with black sordes),
Canthium parviflorum as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (Tongue is red on the edges),
Canthium rheedei as Allelopathic ingredient to enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used for Typhoid Fever (Tongue is yellowish-brown in the centre),

Comments

Apni bahumulya jaankariyan yun hi bantte rahein. Shubhkaamnayein.
अभी भी उस रेल लाईन के अवशेष कहीं कहीं पाए जाते हैं

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