बिना हर्ब का हर्बल व्याग्रा और बरसात की प्रतीक्षा मे बैठा जंगल

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-14
- पंकज अवधिया
बारह जून, 2009

बिना हर्ब का हर्बल व्याग्रा और बरसात की प्रतीक्षा मे बैठा जंगल


“इस बार बरसात मे देर हो रही है। लक्षण ठीक नजर नही आ रहे है। लाल कीडो की खोज मे मै एक हफ्ते से भटक रहा हूँ पर अभी तक वे नही निकले है। यदि पानी नही गिरा या देर से गिरा तो मुश्किल बढ जायेगी।“ इस जंगल यात्रा के दौरान बरसात मे हो रही देरी से हर कोई परेशान दिखा। लाल कीडा एक तरह का बग है जो कि पानी गिरने के बाद ही जमीन पर निकलता है। पारम्परिक चिकित्सक जीवित और स्वाभाविक मौत मरे, दोनो ही प्रकार के लाल कीडे को एकत्र कर लेते है। लाल कीडे की सहायता से बहुत से रोगो की पहचान की जाती है। आम तौर पर रोगी को नंगे बदन लिटा कर उसके पेट मे कुछ कीडे छोड दिये जाते है। ये कीडे रोगी को कोई नुकसान नही पहुँचाते है। पारम्परिक चिकित्सक बस कीडो के बदले व्यवहार का अध्ययन करते है। इससे ही वे रोगो का पता लगाते है। अब उनके पास आधुनिक प्रयोगशाला तो है नही। मैने अपने लम्बे अनुभव से यह पाया है कि बहुत बार आधुनिक लैब के परिणाम इनके सामने बौने साबित हो जाते है।

पारम्परिक चिकित्सक बडे जतन से इन कीडो को लम्बे समय तक रखते है। मरे हुये कीडो से रक्त सम्बन्धी रोगो की चिकित्सा की जाती है। इन्हे वनस्पतियो के साथ मिलाया जाता है पर अपनी निगरानी मे पारम्परिक चिकित्सक इसका प्रयोग करते है। इस बार बरसात न होने होने से लाल कीडे खोजे नही मिल रहे है। इससे पारम्परिक चिकित्सको को विकल्पो की शरण मे जाना होगा।

रेड वेलवेट माइट का मौसम भी अब आने ही वाला है। इस बार इनके आने मे देरी होगी क्योकि मानसून भटक गया है। अभी-अभी ग्वालियर से खबर आयी है कि वहाँ समय से पहले ये धरती से बाहर निकल आये है। छत्तीसगढ मे पारम्परिक चिकित्सक बेसब्री से इस माइट की प्रतीक्षा मे है। इस माइट का एक बडा व्यापार है। पारम्परिक चिकित्सको के उलट व्यापारी मन ही मन प्रार्थना कर रहे है कि इस बार पानी कम गिरे और न गिरे तो और अच्छा। क्यो? क्योकि कम पानी मतलब माइट के मुँहमाँगे दाम। कम पानी के वर्षो मे एक-एक माइट की कीमत लगती है। दाम आसमान छूने लगते है। व्यापारी मरे हुये माइट को सुखाकर अपने पास रख लेते है। जब दाम और बढते है तब वे गोदाम से इन्हे निकालते है। पारम्परिक चिकित्सक कम मात्रा मे माइट एकत्र करते है। वे अल्प-मात्रा मे इसके प्रयोग के पक्षधर है क्योकि इनकी तासिर गर्म मानी जाती है। वे इन्हे एकत्र करते ही इनसे चूर्ण और तेल बना लेते है और फिर उसी रुप मे साल भर प्रयोग करते है। देश-दुनिया के बाजार मे यह हर्बल व्याग्रा के रुप मे बिकता है पर पारम्परिक चिकित्सक इसके ढेरो उपयोग जानते है। वे साधारण ज्वर से लेकर मधुमेह की जटिल अवस्था मे इसका प्रयोग करते है। माइट तो हर्ब (वनस्पति) नही है पर फिर भी माइट से बना तेल इसी नाम से बेचा जाता है। इसे खाने की सलाह भी दी जाती है और इसके तेल के बाहरी प्रयोग की। पारम्परिक चिकित्सक जब इन व्यवसायिक उत्पादो को देखते है तो ठहाके मार के हँसते है। फिर अपनी झोपडी के पीछे जाकर दूब सहित दूसरे साधारण खरपतवार ले आते है और कहते है कि ये साधारण वनस्पतियाँ इस व्याग्रा की बाप है। ये वनस्पतियाँ आकर्षक डब्बो मे बन्द नही है इसलिये कोई इनकी कद्र नही जानता।

बरसात मे हो रही देरी से रेड वेलवेट माइट के व्यापारियो के अलावा वन्य प्राणियो के शिकारी भी खुश है। अपनी इस जंगल यात्रा के दौरान कच्ची सडको मे चलते हुये हमे हर दस कदम पर रुकना पडता था। सभी जगह फन्दे लगाये गये है। इतने मजबूत फन्दे कि यदि आदमी इसमे फँस जाये तो वह भी न निकल पाये। शिकारियो के हौसले बुलन्द लगते है। जहाँ भी फन्दे दिखे हम समझ जाते है कि आस-पास पानी है। प्यास के मारे वन्य-प्राणी जैसे ही पानी की ओर आते है फन्दे मे फँस जाते है। इस बात के स्पष्ट संकेत मिलते है कि उन्हे फन्दे लगे होने का अहसास है पर प्यास के आगे वे मजबूर है। जब सारे फन्दे अपना काम कर चुके होते है तो वे बेफिक्री से पानी पीते है। पर उनकी बेफिक्री स्थायी नही होती। शिकारी रातो-रात फन्दो को खाली कर देते है। बायसन के लिये लगाये गये एक फन्दे मे हमारी मारुति आल्टो का अगला हिस्सा फँस गया। गाडी बिल्कुल डरी नही। उसे पूरा विश्वास था कि हम उसे किसी भी हाल मे निकाल लेंगे। हमने ऐसा किया भी।

आज ही अखबारो मे यह खबर आयी कि पिथौरा मे दो बायसन मारे गये है। शिकारियो ने फन्दे को शायद ज्यादा कारगर नही समझा और पानी मे ही यूरिया और कीटनाशक मिला दिया। दो बायसन वहाँ पर मरे पाये गये। अखबारो और जंगल विभाग के लिये तो बात यही समाप्त हो गयी। बायसान को जला दिया गया और जुर्म दर्ज कर लिया गया। पर जहर मिले पानी की ओर किसी ने ध्यान नही दिया। वह अंब भी जंगल मे वैसे ही है और प्यास से व्याकुल वन्य-प्राणियो को मौत खुला निमंत्रण दे रही है। न जाने कितने और जीव उस जहर भरे पानी को पीयेंगे और मरते जायेंगे। जब पानी सूख जायेगा और पहली बारिश से डबरी भरेगी तो एक बार फिर जहर अपना असर दिखायेगा। जंगलो से गुजरने वाले हमारे जैसे साधारण लोग जब इतनी सी बात समझ सकते है तो सक्षम विभाग क्यो नही जहरीले पानी युक्त स्त्रोतो को बन्द करने की पहल करते है? मुझे याद आता है कि एक बार बारनवापारा के जंगलो मे बायसन के मरने की खबर सुनकर हम लोग वहाँ गये थे। मरे हुये बायसन को ले जाया जा चुका था। जहरीले पानी की डबरी वैसे ही थी। ग्रामीणो ने मदद की तो हम लोगो ने बबूल के काँटो से उसे घेर दिया ताकि उस ओर का रुख कोई वन्य प्राणी न करे। सब ऐसा क्यो नही करते?

बरसात नही होने के कारण अब बाइक सवार जंगलो मे बढ गये है। ये शिकारी नही बल्कि शिकार के शौकीन है। ये चिडियो के शिकारियो की तलाश मे रहते है। मरी हुयी चिडियो को खरीदकर वही पकाकर खा लेते है। जंगल मे चिडियो को पकाकर खाये जाने के बहुत से ताजे निशान मिलते रहते है। बाइक सवार अपने साथ बीयर की बोतल लाते है पर वापस नही ले जाते है। बाइक सवारो की इस करतूत से सबसे बडी हानि उन पारम्परिक चिकित्सको को होती है जो नंगे पैर जंगलो मे चलते है। निश्चित ही काँच के टुकडे वन्य प्राणियो के लिये भी मुसीबत बनते होंगे।

बुजुर्ग किसान बरसात मे हो रही देरी के चलते आस-पास के मन्दिर के पुजारियो के पास आ जाते है। पुजारी राजधानी से खरीदे हुये पंचांग को बाँचते है और फिर बताते है कि इस दिन वर्षा का सम्भावना है। किसान उस दिन की बेसब्री से प्रतीक्षा करते है। फिर मायूस होकर पंचांग की अगली तारीख लेने चले जाते है। वे अपने खेतो का भी मुआयना करते है। विशेष वनस्पतियो पर उनकी नजर है। इसी से वे पूर्वानुमान लगा लेंगे कि इस बार मौसम कैसा रहने वाला है?

इन विपरीत परिस्थितियो को झेल रहे जंगल के आम लोगो के बीच कैमरा लिये घूमते हुये मन मे बडी टीस होती है। कष्टो का दस्तावेजीकरण मन को भारी कर देता है। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

सब गडबड है, कही यह बाईक बाले तो कही पानी मे जहर ? आप ने बहुत मेहनत फ़िर से बहुत सी अच्छी जानकारि दी.
धन्यवाद
Gyan Darpan said…
हमेशा की तरह आज भी बहुत बढ़िया और महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए आभार |
अरे बाप रे! इंसान बहुत ही खतरनाक जानवर है.

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