जंगल की सुधरती सडके और घायल भालू

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-8
- पंकज अवधिया
चार जून, 2009

जंगल की सुधरती सडके और घायल भालू


“अरे, धीरे, और धीरे, हाँ अब रोक दो और रुके रहो। चलो, अब थोडा पीछे ले लो। हाँ, अब ठीक है।“मेरे इन शब्दो से ड्रायवर के कान पक चुके है। सरकार ने सुदूर गाँवो तक, जंगल के कोनो तक सडक बना दी है। मख्ख्नन की तरह सपाट सडक। जंगल की हरियाली और ऐसी सडक, भला ऐसे मे किसका मन नही होगा कि गाडी भगायी जाये। पर मेरा ड्रायवर यह नही कर पाता है। टेटका (गिरगिट), टिटरा (गिलहरी) हो या भालू सडक मे इनकी हलचल को भाँपते हुये मै यह निर्देश देता रहता हूँ। जंगलो से गुजरने वाली सडको मे गाडियाँ पूरी रफ्तार से दौडती है तो जाने-अनजाने असंख्य जंगली जीव इनके नीचे आकर मर जाते है। केवल साँपो को सुरक्षा की कुछ गारंटी मिली हुयी है। बडी से बडी गाडियाँ साँपो को देखकर रुकने का प्रयास करती है।

अपनी इस जंगल यात्रा के दौरान हमे सडक से कुछ दूरी पर एक भालू दिखा जो लंगडा रहा था। ध्यान से देखने पर आभास हुआ कि उसे किसी बडी गाडी से चोट लगी है। वह बेबस दिख रहा था पर मदद के लिये उसके पास नही जाया जा सकता था। जंगल मे घायल जीव जल्दी ही किसी दूसरे जीव के शिकार हो जाते है। भालू की हालत नही सुधरती तो उसका भी वही हश्र होता। उधेडबुन मे हम कुछ दूरी पर रुके रहे। भालू का व्यव्हार कुत्तो की तरह नही होता। यदि कोई कुत्ता गाडी के नीचे आ जाये तो उसके साथी बडी देर तक हर आती-जाती गाडी को भौकते रहते है। लम्बी दूरी तक उनके पीछे भी जाते है। पर भालू ऐसा नही करते है। इसलिये हमने रुकने का मन बनाया। मेरे किट मे हमेशा आर्निका नामक होम्योपैथी दवा होती है। इस दवा ने चोट-चपेट से मुझे कई बार बचाया है।

कुछ वर्षो पहले ठंड के मौसम मे रात एक बजे रायपुर से जबलपुर जा रही एक बस बरसते पानी मे पहाड से खाई मे गिर गयी। मै उस बस मे बतौर यात्री था। ड्रायवर की तत्काल मौत हो गयी। चारो ओर हाहाकार मचा था। मेरे मुँह से खून बह रहा था। ऐसा खून जो रुकने का नाम नही ले रहा था। ऐसे मे आर्निका ने जबरदस्त भूमिका अदा की। मैने घायल यात्रियो को भी यह गोलियाँ दी तब तक जब तक पूरी शीशी खाली नही हो गयी। हमारी सहयात्री दो स्कूली छात्राए थी जो विज्ञान प्रदर्शनी मे जा रही थी। उनमे से एक के पूरे दाँत टूट गये थे। आर्निका से उन्हे दर्द से मुक्ति मिली।

एक सुबह एक घायल तोता आँगन मे आ गिरा। किसी शिकारी पंछी के चंगुल से निकल कर वह भागा था। लहूलुहान था। पानी मे घोलकर आर्निका दी गयी तो कुछ समय मे ही उसने इस जानलेवा चोट से मुक्ति पा ली। जंगलो मे ऐसे घायल जानवर जिनके मुँह तक यह दवा पहुँच सकती है, को मैने यह दवा देकर राहत पहुँचायी है पर हमारे सामने पडे भालू के लिये हम कुछ नही कर पा रहे थे।

हमे रुका देखकर मोटरसाइकिल मे जा रहे कुछ ग्रामीण रुक गये। उन्हे भी भालू की हालत देखकर उस पर दया आ गयी। आमतौर पर भालू की आक्रामक प्रवृत्ति के कारण इसे कम ही पसन्द किया जाता है। एक साहसी ग्रामीण ने मुझे गोली देने को कहा। फिर उसने बाँस का खोखला तना लेकर एक नली बनायी। हम उसे देखते रहे और वह भालू की ओर बढने लगा। भालू जैसे ही सम्भल पाता उससे पहले वह पास के पेड मे चढ गया। भालू नाराज हो रहा था। आमतौर पर भालू पेड मे चढ जाते है पर घायल होने के कारण यह भालू ऐसा नही कर पा रहा था। ग्रामीण की योजना एकदम स्पष्ट थी। वह भालू के खुले मुँह मे पेड पर चढे-चढे ही जोर की फूँक से नली मे भरी गोलियो को पहुँचाता। इस तरह की नली को ढलका भी कहा जाता है। आमतौर पर पशुओ के चिकित्सक उन्हे दवाए ऐसे ही देते है। हमे जब इसके बारे मे पढाया जाता था तो हम मजाक मे कहते थे कि नली पशु के मुँह मे लगाने के बाद चिकित्सक जोर से नली मे फूँक मारता है। यदि पशु ने पहले फूँक मार दी तो चिकित्सक गया काम से।

सारे प्रयास विफल होते दिख रहे थे। पेड पर चढे ग्रामीण का निशाना नही लग रहा था। थकहार कर वह वापस हमारे पास आ गया। अब हमारे पास भालू को उसके हाल मे छोड देने के अलावा कोई चारा नही था। ग्रामीणो ने जंगली फल एकत्र किये और भालू के पास रख दिये। उनका कहना था कि भालू अब ज्यादा देर जीवित नही रहेगा। रात हो रही थी। हम आगे बढ गये। घायल भालू पीछे छूट गया और मै ऐसे संसार की कल्पना मे खो गया जहाँ भालू मनुष्यो से संवाद स्थापित कर ले और हमारी गाडी रोककर पूछे, क्या आपके पास आर्निका है? जरा सी चोट लग गयी है। और हाँ, ये नम्बर जंगल विभाग मे बता देना। इस गाडी से ही मुझे ठोकर लगी है। मुझे मालूम है कि ऐसा संसार यथार्थ से दूर है पर कम से कम यह उम्मीद की जा सकती है कि घायल भालू को अस्पताल तक ले जाने के लिये जंगल विभाग का हेलीकाप्टर कुछ दशको मे उपलब्ध हो सकेगा जैसा कि हम डिस्कवरी जैसे चैनलो मे देखते है। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)


© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

बहुत ही मार्मिक पोस्ट। उस भालू पर सचमुच तरस आता है। भालू एक संकटग्रस्त प्राणी है जिसकी नस्ल तेजी से मिट रही है। क्या आपने वन विभाग को उसकी हालत के बारे में सूचना दी? यदि वहां कोई संवेदनशील अफसर हो तो वह कुछ मदद का इंतजाम कर सकता था। पर मदद समय पर पहुंच पाती, यह मुमकिन नहीं लगता। हमारे यहां तो बीमार मनुष्यों तक भी चिकित्सकीय मदद समय पर नहीं पहुंच पाती, फिर भालू की बात कौन करे। यह केवल गरीब जनों तक नहीं सीमित है। हमारे पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह भी चंडीगढ़ के पास एक सड़क दुर्घटना में ही दिवंगत हुए थे, और उन तक मदद समय पर नहीं पहुंच पाई थी। भालू किस खेत की मूली है! यही हमारे देश की सच्चाई है। पर क्या करें! हेलिकोप्टर से भालू महाशय को आईसीयू में ले जाने की बात अभी सदियों तक यहां सपना ही बना रहेगा।
alka mishra said…
पंकज जी
जय हिंद
भालू के प्रति आपकी हमदर्दी ने मुझे प्रभावित किया, वैसे भी जंगल जडी-बूटियों का भण्डार हैं और मेरी इनमें गहन रूचि है
अगर आप अपने अन्नदाता किसानों और धरती माँ का कर्ज उतारना चाहते हैं तो कृपया मेरासमस्त पर पधारिये और जानकारियों का खुद भी लाभ उठाएं तथा किसानों एवं रोगियों को भी लाभान्वित करें

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