हुंर्रा का तांडव, घायल ग्रामीण और सिमटते जंगल

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-23
- पंकज अवधिया

हुंर्रा का तांडव, घायल ग्रामीण और सिमटते जंगल


सुबह के नौ बजे थे। विश्म्भर ध्रुव अपने घर के आँगन मे बैठे हुये थे। घर का दरवाजा खुला हुआ था। बच्चे बाहर खेलने गये हुये थे। उनका काला कुत्ता उनके पास बैठा हुआ था। तभी अचानक तूफान की गति से कोई जीव दरवाजे से अन्दर घुसा और फिर विश्म्भर पर झपट पडा। शरीर का जो भी हिस्सा सामने दिखायी पडा उसमे उसने दाँत गडा दिये। विश्म्भर दर्द से व्याकुल हो उठा। उन्होने उस पर काबू करने का असफल प्रयास किया और आँगन के एक कोने पर दबोचना चाहा। उस जीव ने अपनी पकड ढीली की और फिर जैसे आया था वैसे ही दरवाजे से ओझल हो गया। खून से लथपथ विश्म्भर को कुछ पलो के लिये कुछ समझ नही आया। उनके पास खडा उनका काला कुत्ता मारे डर वैसे ही खडा रहा। विश्म्भर की चीख सुनकर घर वाले बाहर आये। घायल भागो को देखने के बाद उनके घर वालो को लगा कि यह किसी पागल कुत्ते की हरकत है। विश्म्भर ने चिल्लाकर कहा कि हुंर्रा ने आक्रमण किया है। हुंर्रा यानि लकडबघ्घा।

विश्म्भर के घर मे आने से पहले उसने पास के एक गाँव मे कई लोगो को ऐसी चोटे पहुँचायी थी। विश्म्भर के घर से निकलने के बाद वह पास के लोगो को घायल करते हुये पास के जमाही गाँव पहुँचा। वहाँ उसकी नजर अवधराम यादव पर पडी। वे नाले मे रहे थे। बिना किसी देरी के वह उन पर टूट पडा। दर्द से व्याकुल अवधराम ने अपने दर्द को भुलाकर उसे दबोच लिया और नाले मे पटककर उस जीव को मौत के घाट उतार दिया। इस तरह लकडबघ्घा का तांडव समाप्त हुआ। यह घटना लगभग एक माह पूर्व की है। स्थानीय अखबारो ने इस खबर को प्रकाशित किया। घायलो को पाँच सौ रुपयो की मदद दी। खबरो के अनुसार जिस व्यक्ति पर पहले आक्रमण हुआ था उसे बहुत चोट लगी थी। उसे रायपुर के मुख्य अस्पताल मे भेजा गया।

अपनी इस जंगल यात्रा के दौरान मैने घायलो से मिलने का मन बनाया। पिछले कई सालो से मैने जाने-अंजाने, चाहे-अनचाहे मनुष्य़-वन्यपशुओ के टकराव के बारे मे काफी जानकर्रियाँ एकत्र की है। चाहे-अनचाहे इसलिये क्योकि मेरी जंगल यात्रा वनस्पतियो के लिये होती है। जानवरो से मुलाकात का मन नही रहता है। पर फिर भी जब आप जंगल जायेंगे तो उसके सभी पहलुओ की जानकारियाँ आपके सामने आयेंगी। ऐसे मे आप किसी भी पहलू को नजरन्दाज नही कर सकते है। Human-wildlife conflict (HWC) का मामला भी ऐसा ही है। इस पर दुनिया भर के संगठन काम कर रहे है। शोध के लिये अरबो बहाये जा रहे है। इस पर महंगी ट्रेनिंग हो रही है, सात सितारा होटलो मे बैठके हो रही है, ग्रंथ प्रकाशित हो रहे है, एक बडा गुट सक्रिय है जो इस मामले मे किसी नये को घुसने नही देना चाहता है पर जमीनी स्तर पर हालात बद से बदतर हो रहे है। जमाही गाँव के इस मामले मे मै घायल हुये ग्रामीणो और बेमौत मारे गये लकडबघ्घे दोनो की ओर से शोक मना रहा हूँ। बस मन मे यही प्रश्न आता है कि क्या आगे इस तरह की मुठभेड को रोका जा सकता है? यदि हाँ, तो कैसे?

जमाही, जोगीडिपरा और चरोदा गाँवो के पास घटारानी जंगल है। पहले यह घना जंगल हुआ करता था। अन्दर मे धँसकुड नामक स्थान है जहाँ देवी का मन्दिर है। पहले वहाँ जाना बहुत कठिन था। पर हाल के वर्षो मे इस मन्दिर की महिमा बढने से हजारो की संख्या मे पर्यटक आते है। देखते ही देखते जंगल साफ हो रहे है और सडके बन रही है। जिज्ञासु शहरी पर्यटक मन्दिर के आस-पास के जंगलो मे दूर-दूर तक जा रहे है। आस-पास के जंगलो मे गुटखे के पाउच, बीयर की बोतले और यहाँ तक की प्रयोग कर फेके गये कंडोम दिखायी दे जाते है। इसी कारण मैने श्रद्धालु की जगह पर्यटक शब्द का प्रयोग किया है। मन्दिर से लगा हुआ एक झरना है जो केवल बरसात मे ही झरता है। यह झरना पर्यटको के आकर्षण का केन्द्र ही नही है बल्कि जंगली जावो के लिये पानी का स्त्रोत भी है। मन्दिर के पुजारी बताते है कि रात को आज भी जंगली जानवरो के कारण वापस गाँव लौट जाना पडता है। लकडी के लिये जंगलो की कटाई से मेरे देखते ही देखते यह क्षेत्र विरल होता जा रहा है। आने वाले कुछ वर्षो मे यह मैदान बन जायेगा। इस जंगल के अन्दर शरण लिये प्राणी बढती मानवीय गतिविधियो से त्रस्त है। इस बार मानसून मे देरी होने से प्यास से जंगल मे हाहाकार मचा हुआ है। यह लकडबघ्घा भी इसी प्यास से व्याकुल होकर बाहर आया होगा। इस जंगल यात्रा के दौरान बुजुर्ग ग्रामीणो ने बताया कि मोबाइल और मोटरसाइकिल के शोर से ये जानवर कुद्ध हो जाते है। मोबाइल पर गाना बजाकर पर्यटक मजे से जंगल मे घूमते है। आमतौर पर लकडबघ्घा मनुष्यो पर आक्रमण नही करता है। इस लकडबघ्घा को किसी ने चोट पहुँचायी होगी जिससे वह हिंसक हो गया होगा।

अवधराम जिन्होने लकडबघ्घा को मारा था, से मिलने जब मै उनके गाँव जमाही पहुँचा तो रात हो चुकी थी। वे खाना खा रहे थे। हमे बताया गया कि उनकी श्रवण शक्ति बहुत कम है। वे बाहर आये। मैने उनके जख्मो की तस्वीरे ली। फिर घटना की विडियो रिकार्डिंग का निश्चय किया। अन्धेरे मे यह काम दुषकर साबित हुआ। लट्टू की रोशनी मे उनसे बात की। गाँववालो का कहना था कि यदि अवधराम ने हिम्मत नही दिखायी होती तो वह लकडबघ्घा जाने कितने लोगो को इस तरह घायल करता। इस नजर से देखा जाये तो उन्हे लकडबघ्घा को मौत के घाट उतारने के लिये इनाम मिलना चाहिये था वन विभाग से। वे गाँव के हीरो है। मैने यह सुनिश्चित करना चाहा कि क्या लकडबघ्घा खुद घायल था? इस पर मुझे चौकाने वाली घटना का पता चला। नियमानुसार ऐसे हादसो मे मारे गये जंगली जीवो को मुख्यालय ले जाया जाता है फिर वहाँ तस्वीरे वगैरह लेकर लाश को जला दिया जाता है। पर गाँव मे मुझे एक युवा मिला जिसे लकडबघ्घा की लाश ठिकाने लगाने का जिम्मा मिला था। उसने बोरे मे उसे बन्द किया और उसी नाले मे बहा दिया। मुझे इस बात पर शक ही है कि इस जंगली जीव की मौत सरकारी दस्तावेजो मे दर्ज हुयी होगी अधिकारिक तौर पर।



(पहले चित्र मे "गाँव के नायक" अवधराम और दूसरे चित्र मे विश्म्भर के जख्म )

चरोदा
गाँव के विश्म्भर से कहा गया कि चोट से बहने वाले खून को रोका न जाये। जितना खून निकलेगा उतना ही जहर बाहर निकलेगा। चौबीस घंटो से अधिक रुक-रुक कर जख्मो से खून रिसता रहा। आज घटना के एक महिने बाद भी उसके जख्मो मे वैसा ही दर्द की जैसा उस समय था। उसका दाहिना हाथ काम नही कर रहा था। हाथ मे जगह-जगह पर गठान बन गयी है। उसकी पीडा चेहरे पर साफ दिखती है। मुआवजा के पाँच सौ कब के खर्च हो गये। अब चिकित्सक ने हाथ खडे कर लिये है। उनसे कहा गया है कि राजनेता को चिकित्सा के लिये अर्जी दी जाये। वे जानते है कि अर्जियो से ज्यादा कुछ नही होने वाला। कमोबेश यही हालत दूसरे घायलो की है। एक बार खबर छपने के बाद अब यह बासी हो गयी है। अखबार इस विषय मे फिर से नही छापना चाहते है। इस हताशा भरे माहौल को देखकर मैने निश्चय किया कि इस लेखमाला के माध्यम से मै सारा घटनाक्रम सामने लाऊँगा।

मेरे एक वन अधिकारी मित्र ने इस घटना के बारे मे मेरे विश्लेषण को सुना तो झट से बोले कि ब्लाग मे इसे लिखने की बजाय एक शोध पत्र तैयार किया जाये। मेरा नाम उसमे जरुर रखना। लकडबघ्घा का हमला दूसरे जंगली जीवो की तुलना मे कम होता है। यकीन मानो हमे शोध पत्र पढने के लिये विदेश बुलाया जायेगा। मैने विनम्रतापूर्वक मित्र से कहा कि यह विशुद्ध स्थानीय घटना है। मै योजनाकारो तक अपनी आवाज पहुँचाना चाहता हूँ। साथ ही अपने देशवासियो को भी उनकी भाषा मे समस्या के विषय मे बताना चाहता हूँ इसलिये मै हिन्दी मे ब्लाग के माध्य्म से अपने विचार व्यक्त कर रहा हूँ। विदेशो मे अंग्रेजी मे इसके बारे मे बताने से निश्चित ही वाह-वाही मिलेगी पर इससे जमीनी स्तर पर कुछ नही होगा। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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