लौकी, कोल्ही-केकडी और दूसरी वनस्पतियो से बने औषधीय तेल

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-19
- पंकज अवधिया
दस जून, 2009

लौकी, कोल्ही-केकडी और दूसरी वनस्पतियो से बने औषधीय तेल


जंगल मे साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको के साथ जब नाना प्रकार के औषधीय तेलो की चर्चा हुयी तो उनमे से कुछ ने रोजमर्रा उपयोग होने वाली सब्जियो से तैयार औषधीय तेल के विषय मे रोचक जानकरियाँ दी। सब्जियो से औषधीय तेल बनाने की बात मेरे लिये नयी नही थी। अपने शोध आलेखो मे मैने लौकी से औषधीय तेल निर्माण पर काफी कुछ लिखा है। यह तेल देश के दूसरे भागो मे भी प्रचलित है पर अलग-अलग रुपो मे। छत्तीसगढ मे इस तेल का प्रयोग बच्चो के लिये किया जाता है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि लौकी से राज्य मे 1500 से अधिक प्रकार के तेल बनाये जाते है। ये तेल हाथ-पैर मे होने वाली जलन से लेकर जोडो की मालिश के लिये प्रयोग किये जाते है। लौकी का प्रयोग अकेले भी होता है और अस्सी से अधिक औषधीय वनस्पतियो के साथ भी।

देश के दूसरे हिस्सो मे इस तेल के निर्माण मे आधार तेल के रुप मे नारियल के तेल का उपयोग होता है जबकि हमारे यहाँ सरसो और काली तिल के तेलो का प्रयोग होता है। इस जंगल यात्रा के दौरान पारम्परिक चिकित्सको ने स्थानीय वनस्पतियो के प्रयोग से लौकी के मूल तेल को समृद्ध बनाने की विधियाँ बतायी।

मुझे उन पारम्परिक चिकित्सको के साथ उनके गाँव जाने का मौका मिला। मैने वहाँ घर मे फली हुयी लौकी देखी। चूँकि इसका प्रयोग दवा के रुप मे होना था इसलिये बिना सरकारी खाद-पानी से इसे उगाया गया था। जंगल मे कर्रा और भिर्रा के बहुत से पेड है। जब लौकी मे कीडो का प्रकोप होता है तो पारम्परिक चिकित्सक इन दोनो जंगली वृक्षो से सत्व तैयार करके उनका छिडकाव कर देते है। जंगल मे हल्दी की बहुत सी प्रजातियाँ भी है। इनमे से एक डोकरी हल्दी है। पारम्परिक चिकित्सक इसके सत्व से लौकी की सिंचाई करते है। गोबर की खाद का प्रयोग करते है। उन्हे पता है कि नीम और गेन्दे के सत्वो का भी प्रयोग किया जा सकता है। पर वे कहते है कि इनका प्रयोग लौकी के औषधीय गुणो को कम कर देता है। नीम और गेन्दा के सत्वो का प्रयोग वे दूसरे पौधे के लिये करते है। लौकी तोडने के बाद से तेल निर्माण मे दो महिनो का लम्बा समय लगता है। यदि सूरज देवता अधिक मेहरबान नही रहे तो और अधिक समय लग सकता है। पारम्परिक चिकित्सको ने खुलासा किया कि वे अपने रोगियो को इस तेल के घटको के बारे मे नही बताते है। लौकी का नाम सुनकर हो सकता है कि रोगी समझ बैठे कि ये प्रभावकारी तेल नही है। साल मे एक बार बडी मात्रा मे तेल निर्माण के बाद वे दोबारा इसे कम ही बनाते है। वे इस तेल को बाजार मे बेचते नही है पर फिर भी यह देश भर मे पहुँचता रहता है।

देश के विभिन्न कोनो से जडी-बूटी बेचने वाले पारम्परिक चिकित्सको के पास आते रहते है। जैसे उत्तराखंड की बहुत सी वनस्पतियाँ छत्तीसगढ मे नही मिलती है। पारम्परिक चिकित्सक उन जडी-बूटियो के लिये इन पर निर्भर रहते है। आमतौर पर जडी-बूटी बेचने वाले पारम्परिक चिकित्सको से वनस्पतियो के एवज मे पैसे नही लेते है। वे या तो यहाँ की वनस्पतियाँ ले जाते है या कुछ नुस्खो की जानकारी। ये जानकारियाँ जडी-बूटी बेचने वाले वापस लौटकर अपने क्षेत्र के पारम्परिक चिकित्सको को देते है। फिर अगली बार जब लौटते है तो उनके पास बताने को बहुत कुछ होता है। इस तरह शहद एकत्र करने वाली मधुमक्खियो की तरह जडी-बूटी बेचने वाले पारम्परिक ज्ञान को समृद्ध करते रहते है। इन जडी-बूटी बेचने वालो पर किसी का ध्यान नही जाता है। सैकडो पारम्परिक चिकित्सको से मिलने के कारण इनके पास ज्ञान का अकूत भंडार होता है। मैने इनके साथ महिनो बिताये है और इनके ज्ञान का दस्तावेजीकरण किया है। एक और अनोखी बात। बहुत बार यह देखने मे आता है कि एक राज्य से लायी गयी जडी-बूटियो के विषय मे दूसरे राज्य के पारम्परिक चिकित्सक अधिक जानने लगते है। केरल के औषधीय धान निवारा का ही उदाहरण ले। वैज्ञानिक यह कह रहे है कि इस धान के विषय मे जानकारी केरल के कुछ भागो तक ही सीमित है। पर जमीनी हकीकत कुछ और है। जडी-बूटी बेचने वालो या किसी अन्य स्त्रोतो से यह धान छत्तीसगढ पहुँचा और पारम्परिक चिकित्सको ने इसे बढाया। उन्होने नये प्रयोग किये। उन्होने स्थानीय औषधीय धान के साथ इसे आजमा कर देखा। जब मैने इस ज्ञान का दस्तावेजीकरण किया तो वैज्ञानिक चौक पडे। उन्हे विश्वास ही नही हुआ कि छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सक इस बारे मे इतना जानते होंगे।

चलिये अब लौकी के तेल पर लौटे। मुझे याद आता है कि दुर्ग जिले के पारम्परिक चिकित्सको के साथ एक बार मै धान के खेतो का भ्रमण कर रहा था। हम खेतो और मेडो मे उग रहे पौधो से पेट भर रहे थे। किसी की पत्तियाँ खा रहे थे तो किसी की फली। तभी हमारी नजर कोल्ही-केकडी पर पडी। यह वनस्पति का स्थानीय नाम है। यदि इसका हिन्दी रुपांतरण करे तो इसका अर्थ हुआ सियार की ककडी। इसका फल बहुत छोटा होता है पर उसे खाते ही एक भरी-पूरी ककडी की याद ताजा हो जाती है। पारम्परिक चिकित्सको ने बताया कि जब लू लग जाये या तेज ज्वर हो तो हम लौकी और इस वनस्पति से तैयार किये गये तेल की सहायता से रोगी की चिकित्सा करते है। तेल से पूरे शरीर की मालिश की जाती है फिर नीम की छाँव मे रोगी को लिटा दिया जाता है। इससे बहुत लाभ होता है।

बहुत से पाठक इस बात की शिकायत करते रहते है कि इस लेखमाला के साथ वनस्पतियो के वैज्ञानिक नाम, चित्र और दूसरी जानकारियाँ नही है। उनकी शिकायत सही है। पर मेरी भी विवशता है। मेरे पास दो विकल्प है। या तो मै हर लेख मे उल्लेखित वनस्पतियो के बारे मे विस्तार से लिखूँ या जिसके बारे मे एक बार लिख दिया है उसके बारे मे न लिख कर नया लिखूँ। मै दूसरे विकल्प को प्राथमिकता देता हूँ। मेरे पास अभी तक किये गये वानस्पतिक सर्वेक्षणो से इतना ज्ञान एकत्र हो गया है कि अगले पचास सालो तक मै बिना रुके लिख सकता हूँ। फिर नित नयी जानकारियाँ आ रही है। आप तो जानते ही है कि मेरे द्वारा ली गयी चालीस हजार से अधिक तस्वीरे इंटरनेट पर है। बीस हजार से अधिक शोध आलेख आन-लाइन है। करोडो पन्नो की मधुमेह की रपट अपलोड होने वाली है। इस रपट के साढे छै लाख पन्ने आन-लाइन है। हिन्दी के हजारो लेख भी उपलब्ध है। इनके कही भी एक ही जानकारी का दोहराव बहुत कम है। कोल्ही-केकडी का ही उदाहरण ले। इसके विषय मे हजारो पन्ने इंटरनेट पर है। तस्वीरे भी है। ऐसे मे हर लेख मे इस जानकारी को दोहराना व्यर्थ लगता है। आप पाठको से अनुरोध है कि विस्तार के लिये गूगल का सहारा ले और मनचाही जानकारी प्राप्त कर ले। इकोपोर्ट पर भी चले जाये जहाँ मैने मधुमेह की रपट के कुछ अंश डाले है।

अब विषय पर फिर लौटते है। लौकी के तेल के विषय मे समृद्ध ज्ञान होते हुये भी एक भी व्यवसायिक उत्पाद बाजार मे नही है। आम भारतीयो के पास इसकी जानकारी नही है। देश के बहुत से राज्यो मे पारम्परिक चिकित्सको की सुध लेना सरकारो ने शुरु किया है। योजनाकार यदि चाहे तो लौकी के सैकडो प्रकार के तेलो के निर्माण के लिये कुटिर उद्योग लगाने की पहल की जाये ताकि पारम्परिक चिकित्सको के साथ किसानो का भी हित हो सके। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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जानकारियों से भरा लेख अच्छा लगा!

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पितृदिवस पर शुभकामनायें.

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