पानी मे डूबे गाँवो का अनकहा दर्द, स्त्री रोगो के लिये उपयोगी वनस्पतियाँ और सलिहा
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-63
- पंकज अवधिया
पानी मे डूबे गाँवो का अनकहा दर्द, स्त्री रोगो के लिये उपयोगी वनस्पतियाँ और सलिहा
दूर-दूर तक पानी ही पानी था। मै अपलक इस मनोहारी दृश्य को निहार रहा था। दूर पानी के बीच पहाडो के शीर्ष दिख रहे थे जो सघन वनस्पतियो से ढके हुये थे। तभी पास खडे व्यक्ति ने कहा कि साहब, आप जो सामने पानी देख रहे है उसमे 52 गाँव डूबे हुये है। मै चौक पडा। दिख तो कुछ भी नही रहा था पर उस व्यक्ति की बाते सुनकर परिकल्प्ना से बने दृश्य सामने आ गये। मै छत्तीसगढ के गंगरेल बाँध के पीछे वाले हिस्से के जंगलो मे खडा था। यह बाँध कई दशक पहले महानदी पर बनाया गया था। आज यह बाँध जाने कितने लोगो की प्यास बुझा रहे है और कितने ही खेतो को पानी दे रहा है। बाँध की इस उपलब्धि के सामने 52 डूबे हुये गाँबो का दुख कम दिखता है पर घर से बिछडने का दुख वही जानता है जिस पर यह गुजरती है।
कुछ समय पहले मै घने जंगल मे औषधीय बेलो के चित्र ले रहा था। पास ही उफनती पैरी नदी थी। मै वर्षो से यहाँ आ रहा हूँ। हर बार मुझे कुछ नया मिल ही जाता है। मुझे इस क्षेत्र से मोह हो गया है पर मै चाहकर भी प्रेम नही करना चाहता। यह प्रेम स्थायी नही होगा। यह वह क्षेत्र है जो निकट भविष्य़ मे पानी के भीतर समा जायेगा। यहाँ भी एक बाँध बनने जा रहा है। यह बाँध नयी राजधानी की प्यास बुझायेगा। मुआवजा बाँटा जा रहा है। डूबान क्षेत्र का बोर्ड लगा दिया गया है। वहाँ से निवासी पूरी तरह से इस बाँध निर्माण के प्रति जागरुक है। पर यहाँ असंख्य ऐसे भी निवासी है जिन्हे इसके बारे मे नही बताया गया है और शायद बताया भी नही जायेगा। जिस दिन यह क्षेत्र डूबेगा पानी के साथ ये निवासी भी काल के गाल मे समा जायेंगे। मै असंख्य जीव-जंतुओ की बात कर रहा हूँ जो हमारी तरह ही इस धरती के निवासी है। बाँध बनाना यदि जरुरी हो तो बनाये जाये पर विस्थापितो मे केवल मनुष्य ही नही शामिल किये जाये। वनस्पतियो और उन पर आश्रित असंख्य जीवो के पुनरस्थापन की भी योजना हो।
गंगरेल के पानी से आधे डूबे एक गाँव मे मुझे एक ऐसे व्यक्ति मिले जिनके नाते रिश्तेदार इस आधे डूबे गाँव को उसके हाल मे छोडकर शहरो मे बस गये। बुजुर्ग व्यक्ति अब अपनी बूढी पत्नी के साथ दूसरे गाँव वालो के साथ रहते है। उनकी कोई संतान नही है। उन्होने बताया कि 52 गाँव और डूबे क्षेत्र मे घने जंगल थे। जब पानी भरना शुरु हुआ तो गाँव वाले अपने मवेशियो के साथ सुरक्षित जगहो पर आ गये पर वनस्पतियो और दूसरे प्राणी देखते ही देखते पानी मे समा गये। उन्होने दो बाघो को पानी मे समाते देखा था। उस समय यह क्षेत्र बाघो और दूसरे खूँखार जीवो के लिये प्रसिद्ध था। आज जंगली जानवरो के नाम पर इस क्षेत्र मे भालू अधिक संख्या मे है। पहाडियो के ऊपर जिन गाँवो वालो ने शरण ली, भालुओ ने भी वही ठिकाना बना लिया।
अपनी गाडी गाँव मे ही खडी कर मै स्थानीय लोगो के साथ जंगल मे काफी देर तक तस्वीरे लेता रहा। यह क्षेत्र जैव-विविधता से पूर्ण लगा। जडी-बूटियो के व्यापारी शायद यहाँ तक नही पहुँचे है इसीलिये दूसरे स्थानो मे दुर्लभ हो चुकी बहुत सी वनस्पतियाँ यहाँ मजे से उग रही थी। इन वनस्पतियो के बचे होने के दूसरे कारण भी है। आजकल दैनिक मजदूरी इतनी अधिक हो गयी है कि व्यापारी अधिक महंगी जडी-बूटियो के लिये ही वनवासियो को जंगलो मे भेजते है। इससे कम कीमत वाली जडी-बूटियाँ बच जाती है। एक अनोखी बात यह भी बता चली कि इस क्षेत्र मे पारम्परिक चिकित्सक कम है। इससे आम लोगो मे वनस्पतियो के औषधीय उपयोग के विषय़ मे कम जानकारी है। ज्यादातर लोग खेती करते है और मछली पकडते है। बहुत से लोग मजदूरी के लिये आस-पास के गाँवो मे चले जाते है।
यह सौभाग्य की बात थी कि हमारे साथ दूसरे क्षेत्र के एक पारम्परिक चिकित्सक थे। वे भी इस क्षेत्र की जैव-विविधता से मुग्ध थे। वे अपनी आवश्यकत्ता की जडी-बूटियाँ एकत्र कर रहे थे। उन्होने चट्टानो के बीच हमे एक अनोखी वनस्पति दिखायी और बताया कि इस वनस्पति से स्त्री रोगो की चिकित्सा की जाती है। औषधीय चावल को पकाकर कुछ समय तक इस वनस्पति की चौडी पत्तियो मे रखा जाता है और फिर रोगियो को दिया जाता है। उन्होने दावा किया कि बहुत से रोगो की आरम्भिक अवस्था मे यह सरल प्रयोग लाभ पहुँचाता है। जिन्हे किसी तरह का रोग नही हो ऐसी महिलाओ को भी इन पत्तियो का ऐसा प्रयोग करना चाहिये। मैने उस वनस्पति की तस्वीरे खीची और उसकी वैज्ञानिक पहचान का प्रयास करने लगा। इसी उधेडबुन मे मुझे उडीसा के नियमगिरि क्षेत्र के पारम्परिक चिकित्सको की बाते याद आने लगी। वे भी स्त्री रोगो के लिये इसी वनस्पति का प्रयोग करते है पर रोगो की पुरानी अवस्था मे वे एक-एक करके बारह तक वनस्पतियाँ बढाते जाते है। रोग की बढी हुयी अवस्था मे बारह अलग-अलग किस्म की वनस्पतियो मे गरम भात परोसा जाता है और फिर एक-एक कौर के रुप मे रोगी को खाने को दिया जाता है।
साथ चल रहे एक बुजुर्ग व्यक्ति कुछ लंगडाकर चल रहे थे। घुटने मे समस्या थी। उन्हे नही मालूम था कि उनके मर्ज का इलाज उन्ही के जंगलो मे था। मैने सलिहा नामक पेड की पहचान बतायी और उससे गोन्द एकत्र करने की विधि बतायी। फिर गोन्द के आँतरिक प्रयोग की विधि विस्तार से समझायी। उन्हे यह भी बताना नही भूला कि कितनी अवधि के बाद दोबारा गोन्द एकत्र किया जाये ताकि पेड बेमौत न मारे जाये। पेड को धार्मिक आस्था से जोडते हुये उनसे अनुरोध किया कि यदि स्थिति सुधरे तो हर सोमवार को पाँच विशेष वनस्पतियो के सत्व से इस पेड को सींच कर धन्यवाद दे दीजियेगा। दरअसल ये सत्व सलिहा को साल दर साल तक सुरक्षित रखेंगे। बुजुर्ग सहर्ष तैयार हो गये और बोल पडे कि पेड को सोमवार को धन्यवाद देने आना है और आपको? मैने कहा कि आपको लाभ हो तो यह विधि मूल रुप मे बिना शुल्क लिये दूसरो को बताइयेगा, मेरा धन्यवाद हो जायेगा।
जंगल मे अपनी विद्वता झाडने के लाभ भी है और नुकसान भी। लाभ यह कि लोगो से आत्मीय सम्बन्ध बन जाते है और नुकसान यह कि बहुत बार ऐसे ज्ञान को जानकर साथ चल रहे लोग आपको विद्वान मानकर मौन धारण कर लेते है और जानकर भी कुछ नही बोलते है इस गलताहमी मे कि ये तो सब जानते है। पर किसी को स्वास्थ्य सम्बन्धी तकलीफ मे देखकर मन रुक नही पाता है।
इस लेखमाला के पिछले लेख मे जलधान पर बात अटकी थी। इन दोनो जंगल यात्राओ के दौरान औषधीय धान पर ढेरो जानकारियाँ मिली। आने वाले लेखो मे मै इस पर लिखने की कोशिश करुंगा। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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पानी मे डूबे गाँवो का अनकहा दर्द, स्त्री रोगो के लिये उपयोगी वनस्पतियाँ और सलिहा
दूर-दूर तक पानी ही पानी था। मै अपलक इस मनोहारी दृश्य को निहार रहा था। दूर पानी के बीच पहाडो के शीर्ष दिख रहे थे जो सघन वनस्पतियो से ढके हुये थे। तभी पास खडे व्यक्ति ने कहा कि साहब, आप जो सामने पानी देख रहे है उसमे 52 गाँव डूबे हुये है। मै चौक पडा। दिख तो कुछ भी नही रहा था पर उस व्यक्ति की बाते सुनकर परिकल्प्ना से बने दृश्य सामने आ गये। मै छत्तीसगढ के गंगरेल बाँध के पीछे वाले हिस्से के जंगलो मे खडा था। यह बाँध कई दशक पहले महानदी पर बनाया गया था। आज यह बाँध जाने कितने लोगो की प्यास बुझा रहे है और कितने ही खेतो को पानी दे रहा है। बाँध की इस उपलब्धि के सामने 52 डूबे हुये गाँबो का दुख कम दिखता है पर घर से बिछडने का दुख वही जानता है जिस पर यह गुजरती है।
कुछ समय पहले मै घने जंगल मे औषधीय बेलो के चित्र ले रहा था। पास ही उफनती पैरी नदी थी। मै वर्षो से यहाँ आ रहा हूँ। हर बार मुझे कुछ नया मिल ही जाता है। मुझे इस क्षेत्र से मोह हो गया है पर मै चाहकर भी प्रेम नही करना चाहता। यह प्रेम स्थायी नही होगा। यह वह क्षेत्र है जो निकट भविष्य़ मे पानी के भीतर समा जायेगा। यहाँ भी एक बाँध बनने जा रहा है। यह बाँध नयी राजधानी की प्यास बुझायेगा। मुआवजा बाँटा जा रहा है। डूबान क्षेत्र का बोर्ड लगा दिया गया है। वहाँ से निवासी पूरी तरह से इस बाँध निर्माण के प्रति जागरुक है। पर यहाँ असंख्य ऐसे भी निवासी है जिन्हे इसके बारे मे नही बताया गया है और शायद बताया भी नही जायेगा। जिस दिन यह क्षेत्र डूबेगा पानी के साथ ये निवासी भी काल के गाल मे समा जायेंगे। मै असंख्य जीव-जंतुओ की बात कर रहा हूँ जो हमारी तरह ही इस धरती के निवासी है। बाँध बनाना यदि जरुरी हो तो बनाये जाये पर विस्थापितो मे केवल मनुष्य ही नही शामिल किये जाये। वनस्पतियो और उन पर आश्रित असंख्य जीवो के पुनरस्थापन की भी योजना हो।
गंगरेल के पानी से आधे डूबे एक गाँव मे मुझे एक ऐसे व्यक्ति मिले जिनके नाते रिश्तेदार इस आधे डूबे गाँव को उसके हाल मे छोडकर शहरो मे बस गये। बुजुर्ग व्यक्ति अब अपनी बूढी पत्नी के साथ दूसरे गाँव वालो के साथ रहते है। उनकी कोई संतान नही है। उन्होने बताया कि 52 गाँव और डूबे क्षेत्र मे घने जंगल थे। जब पानी भरना शुरु हुआ तो गाँव वाले अपने मवेशियो के साथ सुरक्षित जगहो पर आ गये पर वनस्पतियो और दूसरे प्राणी देखते ही देखते पानी मे समा गये। उन्होने दो बाघो को पानी मे समाते देखा था। उस समय यह क्षेत्र बाघो और दूसरे खूँखार जीवो के लिये प्रसिद्ध था। आज जंगली जानवरो के नाम पर इस क्षेत्र मे भालू अधिक संख्या मे है। पहाडियो के ऊपर जिन गाँवो वालो ने शरण ली, भालुओ ने भी वही ठिकाना बना लिया।
अपनी गाडी गाँव मे ही खडी कर मै स्थानीय लोगो के साथ जंगल मे काफी देर तक तस्वीरे लेता रहा। यह क्षेत्र जैव-विविधता से पूर्ण लगा। जडी-बूटियो के व्यापारी शायद यहाँ तक नही पहुँचे है इसीलिये दूसरे स्थानो मे दुर्लभ हो चुकी बहुत सी वनस्पतियाँ यहाँ मजे से उग रही थी। इन वनस्पतियो के बचे होने के दूसरे कारण भी है। आजकल दैनिक मजदूरी इतनी अधिक हो गयी है कि व्यापारी अधिक महंगी जडी-बूटियो के लिये ही वनवासियो को जंगलो मे भेजते है। इससे कम कीमत वाली जडी-बूटियाँ बच जाती है। एक अनोखी बात यह भी बता चली कि इस क्षेत्र मे पारम्परिक चिकित्सक कम है। इससे आम लोगो मे वनस्पतियो के औषधीय उपयोग के विषय़ मे कम जानकारी है। ज्यादातर लोग खेती करते है और मछली पकडते है। बहुत से लोग मजदूरी के लिये आस-पास के गाँवो मे चले जाते है।
यह सौभाग्य की बात थी कि हमारे साथ दूसरे क्षेत्र के एक पारम्परिक चिकित्सक थे। वे भी इस क्षेत्र की जैव-विविधता से मुग्ध थे। वे अपनी आवश्यकत्ता की जडी-बूटियाँ एकत्र कर रहे थे। उन्होने चट्टानो के बीच हमे एक अनोखी वनस्पति दिखायी और बताया कि इस वनस्पति से स्त्री रोगो की चिकित्सा की जाती है। औषधीय चावल को पकाकर कुछ समय तक इस वनस्पति की चौडी पत्तियो मे रखा जाता है और फिर रोगियो को दिया जाता है। उन्होने दावा किया कि बहुत से रोगो की आरम्भिक अवस्था मे यह सरल प्रयोग लाभ पहुँचाता है। जिन्हे किसी तरह का रोग नही हो ऐसी महिलाओ को भी इन पत्तियो का ऐसा प्रयोग करना चाहिये। मैने उस वनस्पति की तस्वीरे खीची और उसकी वैज्ञानिक पहचान का प्रयास करने लगा। इसी उधेडबुन मे मुझे उडीसा के नियमगिरि क्षेत्र के पारम्परिक चिकित्सको की बाते याद आने लगी। वे भी स्त्री रोगो के लिये इसी वनस्पति का प्रयोग करते है पर रोगो की पुरानी अवस्था मे वे एक-एक करके बारह तक वनस्पतियाँ बढाते जाते है। रोग की बढी हुयी अवस्था मे बारह अलग-अलग किस्म की वनस्पतियो मे गरम भात परोसा जाता है और फिर एक-एक कौर के रुप मे रोगी को खाने को दिया जाता है।
साथ चल रहे एक बुजुर्ग व्यक्ति कुछ लंगडाकर चल रहे थे। घुटने मे समस्या थी। उन्हे नही मालूम था कि उनके मर्ज का इलाज उन्ही के जंगलो मे था। मैने सलिहा नामक पेड की पहचान बतायी और उससे गोन्द एकत्र करने की विधि बतायी। फिर गोन्द के आँतरिक प्रयोग की विधि विस्तार से समझायी। उन्हे यह भी बताना नही भूला कि कितनी अवधि के बाद दोबारा गोन्द एकत्र किया जाये ताकि पेड बेमौत न मारे जाये। पेड को धार्मिक आस्था से जोडते हुये उनसे अनुरोध किया कि यदि स्थिति सुधरे तो हर सोमवार को पाँच विशेष वनस्पतियो के सत्व से इस पेड को सींच कर धन्यवाद दे दीजियेगा। दरअसल ये सत्व सलिहा को साल दर साल तक सुरक्षित रखेंगे। बुजुर्ग सहर्ष तैयार हो गये और बोल पडे कि पेड को सोमवार को धन्यवाद देने आना है और आपको? मैने कहा कि आपको लाभ हो तो यह विधि मूल रुप मे बिना शुल्क लिये दूसरो को बताइयेगा, मेरा धन्यवाद हो जायेगा।
जंगल मे अपनी विद्वता झाडने के लाभ भी है और नुकसान भी। लाभ यह कि लोगो से आत्मीय सम्बन्ध बन जाते है और नुकसान यह कि बहुत बार ऐसे ज्ञान को जानकर साथ चल रहे लोग आपको विद्वान मानकर मौन धारण कर लेते है और जानकर भी कुछ नही बोलते है इस गलताहमी मे कि ये तो सब जानते है। पर किसी को स्वास्थ्य सम्बन्धी तकलीफ मे देखकर मन रुक नही पाता है।
इस लेखमाला के पिछले लेख मे जलधान पर बात अटकी थी। इन दोनो जंगल यात्राओ के दौरान औषधीय धान पर ढेरो जानकारियाँ मिली। आने वाले लेखो मे मै इस पर लिखने की कोशिश करुंगा। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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Updated Information and Links on March 03, 2012
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used for Cancer Complications),
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(Based on Traditional Allelopathic Knowledge) to enrich medicinal plants of Pankaj
Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines) used
for Mugam Toxicity (Research Documents on Safety of Ayurvedic Medicines used
for Cancer Complications),
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(Based on Traditional Allelopathic Knowledge) to enrich medicinal plants of
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used for Mugani Toxicity (Research Documents on Safety of Ayurvedic
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(Based on Traditional Allelopathic Knowledge) to enrich medicinal plants of
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