विशु
उपन्यास : प्रथम किश्त
विशु
- पंकज अवधिया
‘अरे ये फिर अन्दर घुस गई’ – विशु के पिता जोर से चीखे। उसकी माँ याने विशु की दादी के लिये पिता ने चीखा था। दादी सीढीयो से नीचे टंकी तक उतर गई पानी लेने। सत्तर की उमर मे अच्छी खासी कद काठी वाली उस महिला को घुटनो के दर्द ने जकड रखा था। बचपन से ठाठ से पली-बढी थी। उसके पति गाँव के मालगुजार थे। सैकडो एकड जमीन और दसो नौकर-चाकरो का सुख भोगा था। पर पति के गुजरने के बाद तो जैसे उसके करम ही फूट गये। तभी तो इस उम्र मे जब ऊपर नल पर उसके बेटे ने पानी भरने की रोक लगा दी तो उसे मजबूरीवश नीचे उतरना पडा। कुछ कदम नीचे गये ही थे कि यह चीख सुनायी पडी। बेटे ने गुस्से मे कुछ बुदबुदाया फिर नीचे जाने के रास्ते मे लगा लोहे का दरवाजा बन्द कर दिया। अब दादी करे तो क्या। विशु का बडा भाई जो नहाने मे मग्न था वह भी शोर सुन कर आ गया। और उसकी माँ अपने गुरू से गायन सीख रही थी। मधुर सुर लहरियो के बीच कुछ तेज आवाजे सुनकर वो भी आ गई। फिर वो हंगामा हुआ जिसके बारे मे किसी ने सोचा नही था। दादी को दरवाजे से बाहर निकाला गया। और साफ शब्दो मे घर छोड कर जाने कह दिया गया। घर छोड कर जाने? उस घर को जहाँ वह दुल्हन बन कर आई थी, उस घर को जिसमे उसने पति के साथ जीवन गुजारा था, और वो उसका था। वह अपने कमरे की ओर लपकी। तो विशु के पिता ने कुंडली चढाकर ताला लगा दिया। गजब की फुर्ती दिखाई थी उसने। दादी का झोला और कुछ सामान दादी के हाथ मे थमाया और फिर करने लगे गरमागरम बहस। दादी असहाय थी। कहाँ एक ओर पूरा परिवार और कहाँ वो अकेली। उसे ज्यादा परेशान किया गया तो वह घर के उस हिस्से की ओर चल पडी जहाँ उसका बेटा आधुनिक सुख सुविधाओ के साथ रहता था। वो किसी भी कीमत पर घर नही छोडना चाहती थी। अपने कमरे की ओर बढता देखकर पिता फिर चीखे कि वो नये रंगीन टी.वी. सेट को तोडने आ रही है। विशु के पिता पहले थे जिन्होने मोहल्ले मे रंगीन टी.वी. खरीदा था। मोहल्ले तो क्या दादी को भी कानोकान खबर नही हुई थी। फिर बाद मे उसे कुछ देर तक इसे देखने का मौका मिल जाया करता था। ‘रोको उसे रोको’- विशु के पिता फिर चिल्लाये। इस बार जोश मे विशु और उसकी माँ ने मोर्चा थामा। पूरा जोर लगा लिया पर दादी दरवाजे को ठेलकर अन्दर नही आ पाई। फिर पीछे से उसका हाथ पकडकर जमीन पर गिरा दिया गया। अधिक वजन से वह अपने को सम्भाल नही पाई और फर्श पर पट हो गई। पिता ने अपनी मर्दानगी दिखाई वो भी अपनी माँ पर और पानी से भरा हौला दादी पर उडेल दिया। तब तक पास-पडोस की खिडकियाँ खुल चुकी थी। लोग चकित थे कि क्या हो रहा है। कुछ समय बाद सब मन मुताबिक हो गया। दादी घर के बाहर कर दी गई और विशु का सारा परिवार एक जगह बैठकर आगे की सोचने लगा।
किसी घर के सामने कोई बूढी महिला रोये और भीड न जमा हो यह कैसे हो सकता है। फिर यह तो उसका अपना मोहल्ला था। लोग सहानुभूति दिखाने लगे। कुछ ने पुलिस मे रपट लिखाने की बात कही। फिर एक परिचित आया और दादी को अपने घर ले गया। विशु का सारा परिवार उधेडबुन मे था। नन्हा विशु दादी से ज्यादा अपने माँ-बाप के लिये चिंतित था। उसे तो वे ही अच्छे लगते थे और उनको सताने वाले दुश्मन। उसकी माँ ने एक मुँहबोला भाई बना रखा था जो बडे अखबार का सम्पादक था। आनन-फानन मे उसे सूचित कर दिया गया। फिर तो पुलिस का डर भी खतम हो गया। विशु के पिता ने उस परिचित को दुश्मन करार दिया जो उसके द्वारा निकाली गई माँ को अपने घर ले गया। बाद मे दादी को पास के एक मकान मे रख दिया गया जो न तो उसकी पसन्द का था न ही उतना बडा। वहाँ वो कभी अपने पति के साथ भी नही रही थी। महिने मे विशु की माँ समय-समय पर चली जाती और फिर कुछ पैसे दे आती।
विशु के बालमन के लिये यह बडी ही विचित्र घटना थी। न तो इसके बारे मे पहले उसने किताबो मे पढा था न ही किसी ने उसको बताया था। दादी के खिलाफ माहौल तो उसने शुरू से देखा था पर बात इस हद तक जायेगी यह उसने सोचा नही था। एक वो भी समय था जब दादा-दादी और उसके माता-पिता सब साथ रहते थे। दादा-दादी की अपनी कोई संतान नही थी इसलिये उन्होने अपनी बडी बहन के बेटे अर्थात विशु के पिता को बचपन मे ही गोद ले लिया था। अकूत सम्पत्ति का एक मात्र वारिस होने के कारण उसके अन्य भाई जला करते थे। दादा ने विशु के पिता के लालन-पालन मे कोई कसर नही छोडी। अच्छे से पढाया और फिर दूर शहर से वैसी ही पढी लिखी बहू ले आये। दादा-दादी का आपसी तकरार वैसा ही था जैसा पति-पत्नि मे होता है। दादी को नये जमाने की बडे शहर की बहू पसन्द नही आई और नयी बहू ने भी ठान लिया वह खिलाफत बर्दाश्त नही करेगी। झग़डे आम हो गये। पर शायद दादा ने यह नही अनुमान लगाया होगा कि एक दिन उनका दत्तक पुत्र अपनी माँ को बहू और सारे परिवार के साथ मिलकर घर से बाहर फेक़ देगा।
इस घटना को अवचेतन मन मे लिये विशु बडा होने लगा और जीवन के यथार्थ को समझने लगा। वह मोहल्ले मे खेलने जाता तो उसके कानो मे बात पडती ‘ देवव्रत तो ऐसा नही था। उसे अनोखी ने बरगलाया है। नही, नही अनोखी तो अच्छी है पर देवव्रत का सब किया धरा है।‘’ देवव्रत मतलब विशु के पिता और अनोखी उसकी माँ। वह इन कानाफूसियो से अपनी माँ के दादी के पास जाने और सेवा का प्रपंच करने का कारण भी जान चुका था। लोग कहते थे कि काफी-पैसा और गहना अब भी दादी के पास है। यदि उसे दूसरे मदद करेंगे तो वह यह सब उनके नाम कर देगी। यह सच भी था क्योकि बहुत से लोग उनकी सेवा को आतुर थे और दादी को भी शायद इसका भान था।
समय ने जैसे ही पंख लगाये दिन बीतते गये। विशु के व्यस्क मन मे एक अकेली दादी का पक्ष और उसके साथ हुये अन्याय की बाते आने लगी। उसके रातो की नीन्द गायब होने लगी। उसका मन उसी को घुडकने लगा कि इस पाप मे वो क्यो शामिल हुआ? क्यो नही उसे माया की बात पहले समझ नही आई?
विशु के पिता ने दादा की जमीने बेचनी शुरू की। फिर शहर की पाश कालोनी मे घर बनवाया। पूरा परिवार वही रहने लगा। पुराने मकान को किराये पर दे दिया गया। दादी दूर वाले मकान मे अकेली पडी रही। फिर काफी मान-मनौव्वल और मौके की नजाकत देखते हुये दादी को अपने मकान मे आने दिया गया। पर एक खास हिस्सा ही दिया गया और बाकी हिस्सो मे ताला जड दिया गया ताकि वो फिर से कब्जा न जमा सके।
एक दिन सुबह-सुबह ही विशु को झकझोर के उठाया जाने लगा। उसकी माँ कह रही थी कि दादी गुजर गई है मोहल्ले जाना है। विशु उठ तो गया और मोहल्ले पहुँच भी गया पर उसके होश तब फाख्ता हुये जब उसने दादी को देखा। ऐसा नही लगता था कि स्वावभाविक मौत हुई है। पर आनन-फानन मे अंत्येष्ठी कर दी गई। विशु के पिता के चेहरे पर दुख कम आशंका ज्यादा थी। उसे शाम का इंतजार था। सब होने के बाद शाम को जब सब चले गये तो आलमारी खोली गई। वही आलमारी जिसके लिये दादी को जतन से रखा जा रहा था। पर ये क्या? पूरे गहने और पैसे गायब थे। किसी ने अलमारी को तोडा था। विशु की आशंका सही निकली। पिता के ऊपर दुख का पहाड अब फूटा था। लगता था सुबह का रोना अभी निकल रहा था। विशु प्रसन्न था। चलो दादी को सताने वालो के हाथ तो नही आया यह पैसा। भगवान ने किसी जरूरतमन्द को ही दिलवाया होगा। उसने अपनी खुशी जताई भी पर पिता का बौराया चेहरा देखकर चुप हो गया।
दादी के जाने के बाद लगा कि अब देवव्रत की राहे आसान हो जायेंगी पर हुआ उल्टा। उसके परिवार मे असंतुलन का वो जोर शुरू हुआ कि सम्भलने का नाम ही नही लिया। घर मे झगडे आम होने लगे। देवव्रत जमीन के मुकदमो मे फसने लगा। अनोखी को एक के बाद एक विक़ट बीमारियो ने जकडना आरम्भ किया। विशु के बडे भाई ने घर से अलग होकर विवाह रचा लिया और फिर परिवार से दूरी बढा ली। इन सबसे ज्यादा बुरा विशु का व्यवहार रहा। उसके व्यस्क मन ने विद्रोह कर दिया। जब उसे अपने साथ होने वाले व्यवहार मे दादी के साथ हुये व्यवहार की बू आने लगी तो वह उग्र हो गया। विशु की माँ ने मोहल्ले को लोगो को पैसे और दवा बाँटनी शुरू की मदद के नाम पर। विशु ने लोगो से सुना कि वह सच पर पर्दा डालने के लिये यह सब कर रही है। मदद लेने वालो ने भी अपना रंग बदला और अनोखी के गुण गाने लगे। इतने दान-पुण्य से तो सारे दुख दूर हो जाने चाहिये पर उसके रोग तो बढते ही जा रहे थे। फिर उसे ऐसे रोग ने आ घेरा कि वह शरीर छुपाने मजबूर हो गयी। विशु भले ही अन्याय के विरोध मे था पर अब भी वह माँ-बाप के लिये सोचता था। उसने ज्योतिषियो से मदद मांगी तो रत्न सुझा दिये गये। हजारो बहाये गये पर नतीजा सिफर ही रहा। फिर किसी ने सिद्ध बाबा से मिलने की बात कही। विशु ने अपनी माँ को जब उनसे मिलवाया तो बिना कुछ जाने वे बोल पडे ‘यह रोग तो किसी दुखी मन से निकली आह के कारण ही हो सकता है। क्या तूने किसी का दिल दुखाया है?’ अनोखी ने कहा ‘नही तो।‘ तो बाबा बस मुस्कुरा दिये।
यदि नियम से देखा जाये तो विशु की बारी थी कि अब वह अपने पालक को वैसे ही घर से निकालता जैसे उसके पालक ने दादी के साथ किया था पर नियम की किसे परवाह। एक दिन देवव्रत ने वही फरमान विशु के लिये जारी कर दिया कि अब बहुत हो गया घर छोडो और हमे चैन से जीने दो। सारी घटना नये सिरे से विशु की आँखो के सामने घूम गई। उसका सारा शरीर काँपने लगा ----
अचानक झींगुर की आवाज से उसका चिंतन टूटा। तो यह सारी घटना उसके मन मे घूम रही थी। पर वह किस हद तक डूबा था यह इसी से मालूम पडता है कि झींगुर की आवाज ने पहले उसे घंटो तक परेशान नही किया पर अब जब विचार तन्द्रा टूटी है तो यह शोर है कि बर्दाश्त ही नही हो रहा है। विशु फिर भी सब घटनाओ को दोहराने की चेष्टा करता रहा क्योकि उसे मालूम है कि आज के बाद उसे फिर कभी यह नही करना पडेगा। (आगे जारी है)
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