सवारी एक लखटकिया ताबूत की (व्यंग्य)
सवारी एक लखटकिया ताबूत की (व्यंग्य) - पंकज अवधिया भगवान का लाख-लाख शुक्र जो हमारा नम्बर लग गया और हमारी साझा कार का सपना पूरा हो गया। साझा कार माने चार मित्रो की लखटकिया। सबने पच्चीस-पच्चीस हजार लगाये तब जाकर यह साझा कार मिली। मुख्य मित्र को गाडी लेने भेज दिया और फिर हम तीनो गाडी का इंतजार करने लगे। आखिर हार्न सुनायी दिया। बाहर भागे तो लखटकिया दिख गयी। अभी देखना शुरु ही किया था कि खत्म हो गयी। ठीक वैसे ही जैसे इसकी खरीद मे एक लाख पलक झपकते ही खर्च हो गये। पीछे से नजर फिर आगे की ओर आयी। गाडी की नाक खोजने की कोशिश की तो नाक ही नही मिली। ऐसा लगता था कि माइक टायसन का घूँसा खाकर आ रही है अभी-अभी। मैने शिकायत भरे लहजे मे मित्र से कहा कि इसकी तो नाक ही नही है। नाक नही तो शान नही। यह तो हमारी नाक कटवायेगी। मित्र बोला. अब एक लाख मे क्या-क्या मिलेगा? जितना मिल गया उसी मे संतोष करो। लखटकिया मे घूमने का मन बनाया। मै जैसे ही आगे बढा तो मित्र चिल्लाया, रुको, रुको, पहले तैयारी तो कर लो। उसने दो बडे-बडे हेलमेट निकाले और कहा कि सामने बैठने वाले इसे पहने। दरअसल हेलमेट की सही ज