अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -99
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -99 - पंकज अवधिया
दलदली क्षेत्रो मे जब भी जडी-बूटियो के एकत्रण के लिये जाने की योजना बनती है तो हम एक दल के रुप मे जाना पसन्द करते है। ऐसा दल जिसमे कम से कम तीन मजबूत कद-काठी के लोग हो, कम से कम दो स्थानीय जानकार, और साथ मे एक सर्प विशेषज्ञ हो। “दलदल” शब्द सुनते ही सनसनी फैल जाती है पर जब सघन वनो मे दलदली इलाको मे घूमना होता है तो एक-एक कदम सम्भल कर उठाना होता है। यह डरावना अनुभव होता है पर हर बार यह जोखिम कुछ न कुछ उपहार दे जाता है दुर्लभ जडी-बूटियो के रुप मे।
देश के अलग-अलग भागो के लिये अलग-अलग दल मैने तैयार किये है। दलदली इलाको के आस-पास के गाँवो को ही चुना जाता है और फिर वहाँ रात रुककर साथ चलने वालो को तैयार किया जाता है। मै छत्तीसगढ के दलदली क्षेत्रो मे अक्सर जाते रहता हूँ। यूँ तो पारम्परिक चिकित्सक ही दल के गठन मे मुख्य भूमिका निभाते है पर मुझे याद आता है कि एक गाँव मे एक बुजुर्ग व्यक्ति हर बार हमारे साथ चलने को आतुर दिखता। मुझसे वह बार-बार साथ ले चलने की बात करता। पर पारम्परिक चिकित्सको को वह फूटी आँखो नही सुहाता था। उस बुजुर्ग ने बिना पारिश्रमिक साथ चलने की गुहार भी की पर किसी ने उसकी नही सुनी। उसे जोड के असहनीय दर्द से परेशानी थी। आधुनिक चिकित्सालय दर्द शामको की खुराक देते थे। दवाओ का असर खत्म होते ही फिर दर्द से उसकी हालत खस्ता हो जाती थी। हमारे साथ दलदली क्षेत्रो मे जाकर वह अपनी जानकारी के अनुसार जडी-बूटी लाना चाहता था ताकि उसकी समस्या जड से समाप्त हो जाये। अकेले जाने से वह डरता था कि कही दलदल उसे ही अपनी सेवा के लिये न रोक ले। हम उसकी बतायी जडी-बूटी लाने को तैयार थे पर वह नाम बताने के लिये तैयार नही था। समस्या के समाधान के लिये मैने खुलकर पारम्परिक चिकित्सक और दल के दूसरे लोगो से बात की। सबने दोटूक कह दिया कि आप उसे नही जानते। यदि वो गया तो हममे से कोई वापस नही लौटेगा। वह “मसनहा” है।
मुझे याद आता है एक काला सा बुजुर्ग व्यक्ति अपने गाँव मे जिसे खेत-खलिहानो से दूर रहने की सख्त हिदायत थी। वह गल्ती से भी बस्ती की तरफ आता तो लोग दरवाजे बन्द कर लेते थे। गाँव के पंच उसे और उसके परिवार को सजा दिलवाने मे जरा भी देर नही करते थे। बालमन को ये बाते समझ नही आती थी। कुछ बडा हुआ तो गाँव के बच्चो ने आँखे चौडी कर बताया कि वह “मसनहा” है। वह जिस खेत मे जाता है वह बंजर हो जाता है। खडी फसल बरबाद हो जाती है। घर उजड जाते है। मेरा मन इसे मानने को तैयार नही होता था। किसने इसे “मसनहा” घोषित किया? मैने पूछा। “गाँव के बैगा ने।“ बच्चो ने एक स्वर मे कहा। मै बडे ही कौतूहल से उस बुजुर्ग आदमी को देखा करता था। घर से हिदायत थी कि बच्चे उससे दूर ही रहे। वह आम आदमी की तरह दिखता था। उसके चेहरे मे कोई शिकायत का भाव नही दिखता था। उसने शायद इसे नियति मान लिया था। बचपन मे उसके मन मे शायद विद्रोह जागा हो पर सम्भवत: इस लडाई मे स्वयम को अकेला पाकर सीने की आग पर पानी पड गया हो। अब बैगा की बात कौन टाले? वह बुजुर्ग अपने खेतो मे जा सकता था। खेती कर सकता था। उसका तथाकथित बुरा प्रभाव उसकी अपनी खेती पर नही पडता था। भला यह कौन सी बात हुयी? मन सोचता था। जब उसके खेत की फसल को कुछ नही हो रहा है तो भला दूसरे के खेतो को वह क्या नुकसान पहुँचा पायेगा? समय बीतता गया पर “मसनहा” शब्द और उसका खौफ दिमाग के किसी हिस्से मे पडा रहा।
पिछले सप्ताह ही मै दुर्ग क्षेत्र के एक बुजुर्ग से जलवायु परिवर्तन की बाते कर रहा था। एक घंटे से अधिक समय तक वह व्यक्ति कैमरे के सामने भयमुक्त होकर अपनी बाते कहता रहा। टोनही से लेकर चटिया-मटिया तक के बारे मे खुलकर चर्चा हुयी। बात “मसनहा” तक भी पहुँची। उन्होने कहा कि जब से बिजली आयी है टोनही तो गाँव से गायब हो गयी पर “मसनहा” अभी भी है। “क्या आप उनसे भेंट करवा सकते है?” वे बोले, बिल्कुल, अभी करवा देता हूँ। थोडी देर मे एक अधेड व्यक्ति मेरे सामने खडा था। बिल्कुल सामान्य-सा व्यक्ति पर गाँव वालो की माने तो खेतो को बंजर करने की जादुई शक्ति से युक्त व्यक्ति। इस अन्ध-विश्वास को आज के युग मे उसी बेशरमी के साथ खडा देखकर मै चकित रह गया।
आपने तीन तरह के व्यक्तियो के बारे मे ऊपर पढा जिन्हे “मसनहा” कह दिया गया था। ये तीनो अपनी जगह एकदम अकेले और बेबस है। पूरा समाज उनके विरुद्ध खडा है। इसमे पढे-लिखे लोग भी है। वे जानते है कि यह महज अन्धविश्वास है पर फिर भी समाज का भय उन्हे ऐसा बातो से किनारा करने को मजबूर किये हुये है। मै अपने जीवन मे ऐसे दसो व्यक्तियो से मिला हूँ। छत्तीसगढ मे इन दिनो विदेशो से आकर अन्ध-विश्वास पर शोध करने वालो की होड लगी है। अन्ध-विश्वास पर विश्वविद्यालयीन स्तर पर शोध-ग्रंथ तैयार किये जा रहे है। फिल्मे बनायी जा रही है। पर इन जीवित “मसनहा” की सुध लेने वाला कोई नही है। यह लेखमाला ही है जिसके माध्यम से पहली बार हमारे समाज मे व्याप्त कोढ के समान इस अन्ध-विश्वास की बात सामने आ रही है।
अब फिर दलदली क्षेत्र के उस बुजुर्ग पर लौटे। दलदली क्षेत्र के उस बुजुर्ग को साथ ले चलने कोई तैयार नही हुआ। जब मैने अलग से दूसरे गाँव के लोगो की सहायता से उसकी मुराद पूरी करनी चाही तो दल के सदस्यो ने साफ कह दिया कि “मसनहा” से सम्बन्ध रखोगे तो आजीवन हमसे दूर रहना होगा। आपको हम पानी तक नही पिला पायेंगे। ये तेवर मुझे रोकते रहे पर ऐसा लम्बे समय तक नही हो पाया। मैने बिना दल को बताये उस बुजुर्ग को शहर बुलवाया और फिर दूसरे रास्ते से एक अन्य दल की सहायता से उसे जंगल ले गया। उस बुजुर्ग के पास जानकारियो का अम्बार था। उसे जंगल के चप्पे-चप्पे का पता था। पहले उसने अपने काम की जडी-बूटी एकत्र की और फिर हमे दुर्लभ वनस्पतियो जैसे तेलिया कन्द, लक्षमण कन्द, काला अंकोल, जगमंडल कान्दा और ऐसी ही जाने कितनी जडी-बूटियो के विषय मे बताया। उसने कहा कि वह इन वनस्पतियो के माध्यम से अपने क्षेत्र को रोगमुक्त कर सकता है पर उससे जुडी बाते उसे ऐसा करने से रोक देती है। उसकी दी वनस्पति को विष-तुल्य माना जाता है।
बचपन मे जिस व्यक्ति को “मसनहा” बताया गया था वह अब दुनिया मे नही है। वह बेवजह ही आजीवन अपमानित होता रहा। मेरी इच्छा थी कि बडे होकर उसे समाज की मुख्य धारा मे लाने का प्रयास करुँ पर यह सम्भव नही हो पाया। तीसरा व्यक्ति जो कि कुछ समय पूर्व ही मिला, अब मेरे एक मित्र के खेत की देखभाल कर रहा है। मित्र ने सब कुछ जानकर भी उसे अपने घर मे रखा है। हम चाहते है कि क्षेत्र के लोग प्रत्यक्ष रुप से देखे कि “मसनहा” के खेत मे जाने से फसलो का कोई बिगाड नही होता। न ही किसी का घर उजडता है। मेरा उद्देश्य नयी पीढी को यह सब दिखाना है ताकि आने वाले समय मे जब तांत्रिक उन्हे भ्रमित करने की कोशिश करे तो वे अपनी आवाज बुलन्द कर सके और निर्दोष इस अन्ध-विश्वास के शिकार न बने सके।
जिस गाँव मे यह सब हो रहा है वहाँ के बैगा को यह सब जँच नही रहा है। कुछ दिनो पहले वह मेरी गाडी के पास आया और फिर अन्दर झाँक कर आँखे लाल कर मुझसे कहा कि “मसनहा” का साथ छोड दे, अभी भी समय है, नही तो जिन्दगी भर कुँवारा ही रहेगा। बैगा की इस बात को झुठलाने की इच्छा मन मे जाग रही है पर देखिये कब यह सम्भव हो पाता है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
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दलदली क्षेत्रो मे जब भी जडी-बूटियो के एकत्रण के लिये जाने की योजना बनती है तो हम एक दल के रुप मे जाना पसन्द करते है। ऐसा दल जिसमे कम से कम तीन मजबूत कद-काठी के लोग हो, कम से कम दो स्थानीय जानकार, और साथ मे एक सर्प विशेषज्ञ हो। “दलदल” शब्द सुनते ही सनसनी फैल जाती है पर जब सघन वनो मे दलदली इलाको मे घूमना होता है तो एक-एक कदम सम्भल कर उठाना होता है। यह डरावना अनुभव होता है पर हर बार यह जोखिम कुछ न कुछ उपहार दे जाता है दुर्लभ जडी-बूटियो के रुप मे।
देश के अलग-अलग भागो के लिये अलग-अलग दल मैने तैयार किये है। दलदली इलाको के आस-पास के गाँवो को ही चुना जाता है और फिर वहाँ रात रुककर साथ चलने वालो को तैयार किया जाता है। मै छत्तीसगढ के दलदली क्षेत्रो मे अक्सर जाते रहता हूँ। यूँ तो पारम्परिक चिकित्सक ही दल के गठन मे मुख्य भूमिका निभाते है पर मुझे याद आता है कि एक गाँव मे एक बुजुर्ग व्यक्ति हर बार हमारे साथ चलने को आतुर दिखता। मुझसे वह बार-बार साथ ले चलने की बात करता। पर पारम्परिक चिकित्सको को वह फूटी आँखो नही सुहाता था। उस बुजुर्ग ने बिना पारिश्रमिक साथ चलने की गुहार भी की पर किसी ने उसकी नही सुनी। उसे जोड के असहनीय दर्द से परेशानी थी। आधुनिक चिकित्सालय दर्द शामको की खुराक देते थे। दवाओ का असर खत्म होते ही फिर दर्द से उसकी हालत खस्ता हो जाती थी। हमारे साथ दलदली क्षेत्रो मे जाकर वह अपनी जानकारी के अनुसार जडी-बूटी लाना चाहता था ताकि उसकी समस्या जड से समाप्त हो जाये। अकेले जाने से वह डरता था कि कही दलदल उसे ही अपनी सेवा के लिये न रोक ले। हम उसकी बतायी जडी-बूटी लाने को तैयार थे पर वह नाम बताने के लिये तैयार नही था। समस्या के समाधान के लिये मैने खुलकर पारम्परिक चिकित्सक और दल के दूसरे लोगो से बात की। सबने दोटूक कह दिया कि आप उसे नही जानते। यदि वो गया तो हममे से कोई वापस नही लौटेगा। वह “मसनहा” है।
मुझे याद आता है एक काला सा बुजुर्ग व्यक्ति अपने गाँव मे जिसे खेत-खलिहानो से दूर रहने की सख्त हिदायत थी। वह गल्ती से भी बस्ती की तरफ आता तो लोग दरवाजे बन्द कर लेते थे। गाँव के पंच उसे और उसके परिवार को सजा दिलवाने मे जरा भी देर नही करते थे। बालमन को ये बाते समझ नही आती थी। कुछ बडा हुआ तो गाँव के बच्चो ने आँखे चौडी कर बताया कि वह “मसनहा” है। वह जिस खेत मे जाता है वह बंजर हो जाता है। खडी फसल बरबाद हो जाती है। घर उजड जाते है। मेरा मन इसे मानने को तैयार नही होता था। किसने इसे “मसनहा” घोषित किया? मैने पूछा। “गाँव के बैगा ने।“ बच्चो ने एक स्वर मे कहा। मै बडे ही कौतूहल से उस बुजुर्ग आदमी को देखा करता था। घर से हिदायत थी कि बच्चे उससे दूर ही रहे। वह आम आदमी की तरह दिखता था। उसके चेहरे मे कोई शिकायत का भाव नही दिखता था। उसने शायद इसे नियति मान लिया था। बचपन मे उसके मन मे शायद विद्रोह जागा हो पर सम्भवत: इस लडाई मे स्वयम को अकेला पाकर सीने की आग पर पानी पड गया हो। अब बैगा की बात कौन टाले? वह बुजुर्ग अपने खेतो मे जा सकता था। खेती कर सकता था। उसका तथाकथित बुरा प्रभाव उसकी अपनी खेती पर नही पडता था। भला यह कौन सी बात हुयी? मन सोचता था। जब उसके खेत की फसल को कुछ नही हो रहा है तो भला दूसरे के खेतो को वह क्या नुकसान पहुँचा पायेगा? समय बीतता गया पर “मसनहा” शब्द और उसका खौफ दिमाग के किसी हिस्से मे पडा रहा।
पिछले सप्ताह ही मै दुर्ग क्षेत्र के एक बुजुर्ग से जलवायु परिवर्तन की बाते कर रहा था। एक घंटे से अधिक समय तक वह व्यक्ति कैमरे के सामने भयमुक्त होकर अपनी बाते कहता रहा। टोनही से लेकर चटिया-मटिया तक के बारे मे खुलकर चर्चा हुयी। बात “मसनहा” तक भी पहुँची। उन्होने कहा कि जब से बिजली आयी है टोनही तो गाँव से गायब हो गयी पर “मसनहा” अभी भी है। “क्या आप उनसे भेंट करवा सकते है?” वे बोले, बिल्कुल, अभी करवा देता हूँ। थोडी देर मे एक अधेड व्यक्ति मेरे सामने खडा था। बिल्कुल सामान्य-सा व्यक्ति पर गाँव वालो की माने तो खेतो को बंजर करने की जादुई शक्ति से युक्त व्यक्ति। इस अन्ध-विश्वास को आज के युग मे उसी बेशरमी के साथ खडा देखकर मै चकित रह गया।
आपने तीन तरह के व्यक्तियो के बारे मे ऊपर पढा जिन्हे “मसनहा” कह दिया गया था। ये तीनो अपनी जगह एकदम अकेले और बेबस है। पूरा समाज उनके विरुद्ध खडा है। इसमे पढे-लिखे लोग भी है। वे जानते है कि यह महज अन्धविश्वास है पर फिर भी समाज का भय उन्हे ऐसा बातो से किनारा करने को मजबूर किये हुये है। मै अपने जीवन मे ऐसे दसो व्यक्तियो से मिला हूँ। छत्तीसगढ मे इन दिनो विदेशो से आकर अन्ध-विश्वास पर शोध करने वालो की होड लगी है। अन्ध-विश्वास पर विश्वविद्यालयीन स्तर पर शोध-ग्रंथ तैयार किये जा रहे है। फिल्मे बनायी जा रही है। पर इन जीवित “मसनहा” की सुध लेने वाला कोई नही है। यह लेखमाला ही है जिसके माध्यम से पहली बार हमारे समाज मे व्याप्त कोढ के समान इस अन्ध-विश्वास की बात सामने आ रही है।
अब फिर दलदली क्षेत्र के उस बुजुर्ग पर लौटे। दलदली क्षेत्र के उस बुजुर्ग को साथ ले चलने कोई तैयार नही हुआ। जब मैने अलग से दूसरे गाँव के लोगो की सहायता से उसकी मुराद पूरी करनी चाही तो दल के सदस्यो ने साफ कह दिया कि “मसनहा” से सम्बन्ध रखोगे तो आजीवन हमसे दूर रहना होगा। आपको हम पानी तक नही पिला पायेंगे। ये तेवर मुझे रोकते रहे पर ऐसा लम्बे समय तक नही हो पाया। मैने बिना दल को बताये उस बुजुर्ग को शहर बुलवाया और फिर दूसरे रास्ते से एक अन्य दल की सहायता से उसे जंगल ले गया। उस बुजुर्ग के पास जानकारियो का अम्बार था। उसे जंगल के चप्पे-चप्पे का पता था। पहले उसने अपने काम की जडी-बूटी एकत्र की और फिर हमे दुर्लभ वनस्पतियो जैसे तेलिया कन्द, लक्षमण कन्द, काला अंकोल, जगमंडल कान्दा और ऐसी ही जाने कितनी जडी-बूटियो के विषय मे बताया। उसने कहा कि वह इन वनस्पतियो के माध्यम से अपने क्षेत्र को रोगमुक्त कर सकता है पर उससे जुडी बाते उसे ऐसा करने से रोक देती है। उसकी दी वनस्पति को विष-तुल्य माना जाता है।
बचपन मे जिस व्यक्ति को “मसनहा” बताया गया था वह अब दुनिया मे नही है। वह बेवजह ही आजीवन अपमानित होता रहा। मेरी इच्छा थी कि बडे होकर उसे समाज की मुख्य धारा मे लाने का प्रयास करुँ पर यह सम्भव नही हो पाया। तीसरा व्यक्ति जो कि कुछ समय पूर्व ही मिला, अब मेरे एक मित्र के खेत की देखभाल कर रहा है। मित्र ने सब कुछ जानकर भी उसे अपने घर मे रखा है। हम चाहते है कि क्षेत्र के लोग प्रत्यक्ष रुप से देखे कि “मसनहा” के खेत मे जाने से फसलो का कोई बिगाड नही होता। न ही किसी का घर उजडता है। मेरा उद्देश्य नयी पीढी को यह सब दिखाना है ताकि आने वाले समय मे जब तांत्रिक उन्हे भ्रमित करने की कोशिश करे तो वे अपनी आवाज बुलन्द कर सके और निर्दोष इस अन्ध-विश्वास के शिकार न बने सके।
जिस गाँव मे यह सब हो रहा है वहाँ के बैगा को यह सब जँच नही रहा है। कुछ दिनो पहले वह मेरी गाडी के पास आया और फिर अन्दर झाँक कर आँखे लाल कर मुझसे कहा कि “मसनहा” का साथ छोड दे, अभी भी समय है, नही तो जिन्दगी भर कुँवारा ही रहेगा। बैगा की इस बात को झुठलाने की इच्छा मन मे जाग रही है पर देखिये कब यह सम्भव हो पाता है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
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Dichanthium caricosum as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Pilwan Toxicity (Research Documents on Toxicity of
Herbal Remedies),
Dichrocephala integrifolia as Allelopathic ingredient to
enrich herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous
Traditional Medicines) used for Pindru Toxicity (Research Documents on
Toxicity of Herbal Remedies),
Dichrostachys cinerea as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Pintar Toxicity (Research Documents on Toxicity of
Herbal Remedies),
Dicliptera cuneata as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Pintari Toxicity (Research Documents on Toxicity of
Herbal Remedies),
Dicoma tomentosa as Allelopathic ingredient to enrich herbs
of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Pipal Toxicity (Research Documents on Toxicity of Herbal
Remedies),
Digera muricata Allelopathic ingredient to enrich herbs of
Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional Medicines)
used for Nodi Toxicity (Research Documents on Toxicity of Herbal Remedies),
Digitalis purpurea Allelopathic ingredient to enrich herbs
of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Narkanto Toxicity (Research Documents on Toxicity of
Herbal Remedies),
Dillenia indica as Allelopathic ingredient to enrich herbs
of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Oropa Toxicity (Research Documents on Toxicity of Herbal
Remedies),
Dillenia pentagyna as Allelopathic ingredient to enrich
herbs of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Padal Bel Toxicity (Research Documents on Toxicity of
Herbal Remedies),
Dimocarpus longan as Allelopathic ingredient to enrich herbs
of Pankaj Oudhia’s Complex Herbal Formulations (Indigenous Traditional
Medicines) used for Pado Toxicity (Research Documents on Toxicity of Herbal
Remedies),
Comments
वैसे टोनही के बारे में तो सैकड़ों बार पढ़ा है, इस क्षेत्र में। लेकिन ये 'मसनहा' के बारे में आज पहली बार पढ़ र्हा हूँ।
जंग जारी रखिये।
आप द्वारा की जा रही वनौषधियों की खोज भी सराहनीय है। बधाई स्वीकारें।