Consultation in Corona Period-7
Consultation in Corona Period-7
Pankaj Oudhia पंकज अवधिया
"पिता जी, आपको अखबारों में छपने वाले लेखों के माध्यम से जानते हैं। वे जाने-माने पारंपरिक चिकित्सक है और पीढ़ियों से हमारा परिवार पारंपरिक चिकित्सा करता आया है। मेरे पिताजी ने कोरोना के लिए एक कारगर फार्मूला बनाया है पर उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि वे इसे किसे दिखाएं ताकि यह आम जनता के लिए काम आ सके। इसीलिए उन्होंने मुझसे कहा है कि मैं यह फार्मूला आपके पास भेजूं ताकि आप इसकी परीक्षा कर ले और अपने माध्यम से सरकार तक पहुंचा दें।" व्हाट्सएप में जब यह संदेश मिला तो मैंने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि आप मुझे किसी भी प्रकार का फार्मूला न भेजें बल्कि इसे सीधे सरकार को भेजें.
ऐसे दसों संदेश कोरोनावायरस काल में मुझे मिलते रहे हैं. इंटरनेट में लगातार उपस्थिति और मेरे लेखों के कारण शायद लोग मुझे फार्मूले भेज रहे हैं या वे सोचते हैं कि मेरी राजनीतिक पहुंच अच्छी है. यदि दूसरी बात है तो यह उनकी गलतफहमी है।
बहरहाल, देशभर के लोग लगातार पूछते रहे कि कोरोना से संबंधित उनके पास जो फार्मूले है उन्हें कैसे सरकार तक पहुंचाया जाए?
भारत सरकार ने एक पोर्टल बनाया था जिसमें कोरोनावायरस सम्बन्धित शोध प्रस्ताव भेजने की व्यवस्था की गई थी पर यह तकनीकी भाषा में था और इसकी अंतिम तारीख 30 अप्रैल की थी।
क्लिष्ट भाषा होने के कारण आम लोग इसे समझ नहीं पाए और अपने ज्ञान को सरकार तक नहीं पहुंचा पाए।
सरकार तक मेरी भी सीधी पहुंच नहीं थी। मैं अपने ही फार्मूले को लेकर उनसे संपर्क करने की कोशिश कर रहा था।
मेरे मन में ख्याल आया कि क्यों न लोगों से कहा जाए कि वे नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन से संपर्क करें पर मुझे याद आया कि पारंपरिक चिकित्सकों और पारंपरिक ज्ञान पर वे अब काम नहीं कर रहे हैं।
बहुत पहले मैं अहमदाबाद गया था बतौर विशेषज्ञ देश भर से भेजे गए फार्मूलों में से शीर्ष तीन फार्मूले जांचने के लिए जो कि सही मायने में उपयोगी थे पर वहां जब मैंने गोपनीयता की धज्जियां उड़ती देखी तो मेरा मन उचट गया।
पारंपरिक चिकित्सकों और आम लोगों के फार्मूले जो मना करने के बावजूद मुझे बताए गए वे बहुत ज्यादा उपयोगी लगे और यह भी लगा कि इनमें थोड़ा बहुत सुधार करके कोरोना के लिए इन्हें प्रभावी बनाया जा सकता है।
सही रास्ता तो यह था कि ये फार्मूले सीधे सरकार के पास पहुंचते और सरकार उन्हें आश्वस्त करती कि किसी भी हालत में ये फार्मूले वैज्ञानिकों द्वारा अपने नाम पर नहीं कर लिए जाएंगे।
उसके बाद फार्मूला पर क्लिनिकल ट्रायल्स होते और सफलता मिलने पर वैज्ञानिकों के अलावा फार्मूले के मूल निर्माणकर्ता यानि पारंपरिक चिकित्सकों को भी उतना ही श्रेय मिलता।
मुझे यहां छत्तीसगढ़ के एक पारंपरिक चिकित्सक श्री हनुमत प्रसाद वर्मा की याद आ रही है जिन्होंने मुझे बताया था कि उन्होंने सिकल सेल एनीमिया का इलाज ढूंढ निकाला है। उनके पास रोगियों की लाइन लगी रहती थी और वे मुफ्त में अपनी दवा देकर लोगों को राहत प्रदान करते थे।
उस समय मैं तिल्दा में पारंपरिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण कर रहा था। मैंने उनसे अनुमति ली। फार्मूले के बारे में विस्तार से जानकारी मांगी और फिर उनसे कहा कि यदि इसका दस्तावेजीकरण हो जाए तो यह पेटेंट से बच जाएगा।
उन्होंने कहा कि पूरा फार्मूला बताने की बजाय 35 जड़ी बूटियों वाले इस फार्मूले के एक घटक के बारे में ही बताया जाए और फिर देखा जाए कि पब्लिक डोमेन में यह जानकारी पहुंचने पर कैसे उनकी सहायता हो सकती है। मैंने उनकी बात मानी।
पब्लिक डोमेन पर जब यह जानकारी पहुंची तो बिलासपुर यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर ने बिना किसी देरी के इस एक घटक में पपीता मिलाकर एक नया फार्मूला तैयार कर लिया और आनन-फानन में अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट ले लिया।
पेटेंट में उन्होंने बहुत से लोगों का नाम लिखा जो कि इससे होने वाली कमाई के हकदार होते पर उस पारंपरिक चिकित्सक को भूल गए जिन्होंने अपने ज्ञान से इस फार्मूले को विकसित किया था।
बेशर्मी की हद तो तब हो गई जब उन्होंने पेटेंट पत्रक में मेरे आलेख और उस पारंपरिक चिकित्सक का नाम भी लिखा। पेटेंट में भागीदार के रूप में पारंपरिक चिकित्सक को शामिल नहीं किया।
बाद में उस समय के समाचार चैनल सहारा समय ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया पर बात कुछ आगे नहीं बढ़ी।
यह तो अच्छा था कि हमने एक ही घटक के बारे में जानकारी उजागर की थी और उससे सिकल सेल एनीमिया का उपचार नहीं होता था।
बाकी 34 घटकों को हमने छुपा कर रखा था। नकल के लिए अकल की आवश्यकता होती है।
प्रोफेसर साहब ने नकल अच्छी की पर अकल का प्रयोग नहीं किया। यही कारण है कि आज तक उनके पेटेंट को पूछने वाला कोई नहीं आया।
हमारे देश के पारंपरिक चिकित्सक सदा से इसी अन्याय के शिकार होते रहे हैं और उनकी आवाज उठाने वाला कोई नहीं है।
सबसे पहले इसराइल ने यह दावा किया था कि उसने वैक्सीन बना लिया है। उसके बाद दुनिया भर से दावे होते रहे और अभी तक हो रहे हैं। लाखों लोग इस दुनिया को छोड़ कर चले गए। वैक्सीन कब आएगी कोई नहीं जानता।
मैंने विश्व स्वास्थ संगठन को सम्बोधित किए गए अपने ट्वीट में यह लिखा था कि आप दुनिया के पारंपरिक चिकित्सकों की ओर ध्यान दें और जब तक वैक्सीन का निर्माण नहीं हो जाता तब तक उनके ज्ञान की सहायता से दुनिया को बचाने का प्रयास करें।
यह बात मैंने फरवरी में कही थी पर मेरी बात को अनसुना कर दिया गया।
अभी भी देर नहीं हुई है। भारत सरकार यदि चाहे तो कोरोना के लिए उपाय सुझाने वाले देश के असंख्य लोगों के नुस्खे वह एक डेटाबेस के रूप में अपने पास रख सकती है और सक्षम वैज्ञानिकों की टीम बनाकर उस पर अनुसंधान कर सकती है। यह जरूरी है कि अनुसंधान के दौरान नुस्खे के जानकारों को भी शामिल किया जाए और उनकी राय भी ली
जाए।
यदि ये नुस्खे कारगर निकले तो उनके हितों की अनदेखी न की जाए।
पारंपरिक ज्ञान का अकूत भंडार रखने वाले भारत के लिए यह एक स्वर्णिम अवसर है कोरोना के विरुद्ध सशक्त हथियार विकसित करने का।
इससे भारत दुनिया भर में सदियों के लिए अपना सिक्का जमा सकता है।
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