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Showing posts from August, 2009

जहरीली पिचकारी चलाते कीडे, पौरुष शक्ति बढाने वाले अनोखे कन्द और बरसाती नाले

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-62 - पंकज अवधिया जहरीली पिचकारी चलाते कीडे, पौरुष शक्ति बढाने वाले अनोखे कन्द और बरसाती नाले “अरे, पुल से पानी थोडा ही तो ऊपर है। गाडी आराम से निकल जायेगी। और फिर हम भी साथ है। पानी मे बही तो तुरंत सम्भाल लेंगे। देखिये न पीछे कितनी लम्बी कतार लग गयी है। अब आगे बढिए भी। हमारे दो सौ हमे दे दीजिये।“ सामने बरसाती नाला था जो लबालब भरा था। पुल दिख नही रहा था और फिर भी स्थानीय लोग हमारी गाडी को पार कराने अमादा थे। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको और सहायको ने हौसला दिया और मैने गाडी आगे बढा दी। आधा पुल तो पार हो गया पर उसके बाद गढ्ढे ही गढ्ढे थे। शायद पानी की तेज धार ने पुल को काट दिया था। ऐसे फँसे कि गाडी पूरा जोर लगाने के बाद भी टस से मस नही हुयी। फिर पानी का एक रेला आया और उसने गाडी को अपने साथ ले जाने की कोशिश की। सबने आखिरी जोर लगाने की कोशिश की और फिर ले देकर गाडी ने पुल पार कर लिया। हमारी जान मे जान आयी। मैने कान पकडे कि अब दोबारा ऐसा जोखिम नही उठायेंगे। इस जोखिम से एक लाभ हुआ। सामने हरा-भरा जंगल था जो हमारा ही इंतजार कर रहा था। साथी जंगल मे बिखर गये और मै तस

दस्तावेजीकरण की राह तकता भारतीय कृषि से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-61 - पंकज अवधिया दस्तावेजीकरण की राह तकता भारतीय कृषि से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान रात गहरा रही थी। एक स्थान पर आग जलाकर हम लोग खुले मे बैठे थे। आस-पास कुछ दूरी तक खेत थे और फिर उसके बाद जंगल शुरु होते थे। रात उन बुजुर्ग किसानो के साथ गुजारनी थी जो जंगली सुअरो से अपनी फसल की रक्षा के लिये खेतो पर पहरा दे रहे थे। हमारी गाडी पास ही खडी थी। गाडी मे सोने की बजाय मैने मचान पर बैठना उचित समझा। फिर जब नीचे आग जल गयी तो हम सब नीचे आकर बैठ गये। बुजुर्ग किसानो से पारम्परिक कृषि की बात होने लगी। उन दिनो की बात जब कृषि जंगलो पर निर्भर थी। बुजुर्ग किसान तब पारम्परिक धान की खेती करते थे। इनमे से बहुत से औषधीय धान भी थे। औषधीय धान पास के नगर मे रहने वाले राज परिवार के लिये उगाया जाता था। राजा के पारम्परिक चिकित्सक यानि राजवैद्य अपनी निगरानी मे इन्हे उगवाते और फिर शाही गाडियो मे लदवाकर नगर ले जाते। उस समय औषधीय धान की खेती किसान और पारम्परिक चिकित्सक मिलकर करते थे। कृषि की शुरुआत से लेकर फसल की कटाई तक जंगल से एकत्र की गयी वनस्पतियाँ अहम भूमिका निभाती थी। पारम्परिक चिकित्स

रोगो को हरने वाली राखियाँ बन्धवाये इस रक्षाबन्धन मे

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-60 - पंकज अवधिया रोगो को हरने वाली राखियाँ बन्धवाये इस रक्षाबन्धन मे पारम्परिक चिकित्सको के साथ इस जंगल यात्रा के दौरान जब एक गाँव मे एक और जानकार को साथ लेने के लिये रुके तो पता चला कि वे बीमार है। तेज ज्वर से तडप रहे है। दवाए उन्हे दी जा रही थी पर फिर भी ज्वर कम नही हो रहा था। वे लगभग बेसुध थे और ज्वर बढने पर प्रलाप भी करते थे। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको ने खेतो का रुख किया। क्लिंग नामक एक खरप्तवार को चुना और फिर उसकी जडे खोदने लगे। ताजी जड को नीले धागे मे पिरोया और फिर उसे रोगी की कलाई मे बाँध दिया। मुझे बताया गया कि अब ज्वर कम होने लगेगा। रोगी के परिजनो को हिदायत दी गयी कि जैसे जी ज्वर कम हो नीले धागे की सहायता से बन्धी जड कलाई से निकाल ले और फिर नीले की जगह लाल धागा बाँध दे। जब ज्वर पूरी तरह से चला जाय तो काले धागे का प्रयोग करे। ज्वर उतरने के चौबीस घंटो के बाद इस जड को या तो पास की नदी मे प्रवाहित कर दे या पुराने पीपल के नीचे गाड दे। इन तमाम निर्देशो के बाद हमने आगे की राह पकडी। शाम को जब लौटे तो रोगी की हालत काफी सुधरी हुयी थी। गाँव के बहुत से

बीज यात्रा, पारम्परिक चिकित्सक और रक्षा के साथ बीजबन्धन का प्रस्ताव

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-59 - पंकज अवधिया बीज यात्रा, पारम्परिक चिकित्सक और रक्षा के साथ बीजबन्धन का प्रस्ताव सुबह देर से उठा तो थकान हावी थी। अपने कमरे तक पहुँचा तो एक पैकेट पडा हुआ था। मैने उसके बारे मे पूछताछ की तो बताया गया कि अम्बिकापुर से आये किसी व्यक्ति ने यह पैकेट दिया है। मैने पैकेट खोला तो उसमे एक अंकुरित हो रहा बीज था। यह बीज था अंकोल का। सारी थकान पल मे दूर हो गयी और इस नन्हे बीज से सारा अतीत याद आ गया। लगभग एक दशक पहले जब मै सरगुजा क्षेत्र मे वानस्पतिक सर्वेक्षण कर रहा था तब वहाँ के पारम्परिक चिकित्सको से एक अघोषित समझौता हुआ था। यह समझौता था बीजो के आदान-प्रदान का। हम जिस भी वनस्पति पर चर्चा करते उसके बीज आपस मे बाँट लेते और उपयुक्त स्थान पर उसे रोप देते। उस बीज से नये पौधे निकलते और जब कालांतर मे उसमे फल लगते तो पहले बीज को वापस उसी पारम्परिक चिकित्सक को दे देते जिससे मूल बीज को प्राप्त किया था। बीज को पारम्परिक चिकित्सक फिर किसी को दे देते थे। इस तरह यह क्रम चलता रहता था। मैने बस्तर से एकत्र किया गया अंकोल का बीज सरगुजा के एक युवा पारम्परिक चिकित्सक को दिया तो

अच्छे स्वास्थ्य के लिये मच्छरो का प्रयोग, रेडियो साक्षात्कार और अंतरराष्ट्रीय दबाव

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-58 - पंकज अवधिया अच्छे स्वास्थ्य के लिये मच्छरो का प्रयोग, रेडियो साक्षात्कार और अंतरराष्ट्रीय दबाव “हाँ तो बताइये कैसे बनता है मच्छरो का काढा? क्या किलो भर मच्छरो की जरुरत होती है या टन भर? कैसे पीते है इस काढे को?” कनाडा के सीबीसी रेडियो के सम्पादक मार्क विंकलर ने तो जैसे प्रश्नो की बौछार ही कर दी। पिछले सप्ताह वे अपने किसी रेडियो कार्यक्रम के लिये मेरा साक्षात्कार ले रहे थे। दरअसल उन्होने मेरा एक शोध आलेख पढ लिया था जो मच्छरो के सम्भावित उपयोग के बारे मे था। यह शोध पत्र है तो दिलचस्प पर वर्ष 2003 मे प्रकाशित होने के बाद विज्ञान जगत ने इसमे अधिक रुचि नही दिखायी। इस पर आगे काम नही हुये और न ही मुझसे मार्क की तरह किसी ने विस्तार से पूछा। बाटेनिकल डाट काम ने यह अवश्य बताया कि यह आलेख उन आलेखो मे से है जिन्हे सबसे ज्यादा यानि हजारो मे हिट्स मिलती रही है। ये तो कनाडा के मार्क थे जिन्हे मन हुआ कि इस शोध के बारे मे वे मुझसे विस्तार से पूछे। एक घंटे के साक्षात्कार से पहले उन्होने बता दिया था कि कुछ भी लाइव नही है इसलिये आराम से बात की जाये। शुरु मे वे ऐसे ही