रोगो को हरने वाली राखियाँ बन्धवाये इस रक्षाबन्धन मे
मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-60
- पंकज अवधिया
रोगो को हरने वाली राखियाँ बन्धवाये इस रक्षाबन्धन मे
पारम्परिक चिकित्सको के साथ इस जंगल यात्रा के दौरान जब एक गाँव मे एक और जानकार को साथ लेने के लिये रुके तो पता चला कि वे बीमार है। तेज ज्वर से तडप रहे है। दवाए उन्हे दी जा रही थी पर फिर भी ज्वर कम नही हो रहा था। वे लगभग बेसुध थे और ज्वर बढने पर प्रलाप भी करते थे। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको ने खेतो का रुख किया। क्लिंग नामक एक खरप्तवार को चुना और फिर उसकी जडे खोदने लगे। ताजी जड को नीले धागे मे पिरोया और फिर उसे रोगी की कलाई मे बाँध दिया। मुझे बताया गया कि अब ज्वर कम होने लगेगा। रोगी के परिजनो को हिदायत दी गयी कि जैसे जी ज्वर कम हो नीले धागे की सहायता से बन्धी जड कलाई से निकाल ले और फिर नीले की जगह लाल धागा बाँध दे। जब ज्वर पूरी तरह से चला जाय तो काले धागे का प्रयोग करे। ज्वर उतरने के चौबीस घंटो के बाद इस जड को या तो पास की नदी मे प्रवाहित कर दे या पुराने पीपल के नीचे गाड दे। इन तमाम निर्देशो के बाद हमने आगे की राह पकडी। शाम को जब लौटे तो रोगी की हालत काफी सुधरी हुयी थी। गाँव के बहुत से लोग जमा थे। वे पारम्परिक चिकित्सको का ही इंतजार कर रहे थे। बहुत से किसानो ने बताया कि क्लिंग को वे कचरे के रुप मे देखते आये है। पहली बार उन्होने इसके जीवनदायिनी गुणो के बारे मे जाना है।
मुझे याद आता है टीबी का एक रोगी जिसे आधुनिक चिकित्सको ने साफ कह दिया था कि अब बचने की कोई उम्मीद नही है। वह रोगी घर के एक कोने ने पडा रहता था। कोई उसके पास नही जाता था। वह मौत का इंतजार कर रहा था और मौत थी कि आती ही नही थी। पारम्परिक चिकित्सको को जब यह पता चला तो वे भाग कर आ गये। वे अंतिम समय तक प्रयास करते रहते है। वे कभी भी हथियार नही डालते। आधुनिक चिकित्सा के महारथियो को भी पारम्परिक चिकित्सको की यह जीवटता भाती है इसलिये भले ही वे अपने रोगियो को मुम्बई, दिल्ली भेजे पर जब उनके परिवार मे संकट आता है तो पारम्परिक चिकित्सको का रुख करते है। टीबी के उस रोगी को पारम्परिक चिकित्सको ने मछलियो और वनस्पतियो की सहायता से फिर से चंगा कर दिया। पर लम्बे संघर्ष ने रोगी की जीवनी शक्ति को कम कर दिया था। पारम्परिक चिकित्सको ने उसे अनोखा उपाय बताया।
अपने साथ जंगल ले जाकर उन्होने ग्यारह तरह की जडो की पहचान करवायी। रोगी को रोज मुँह अन्धेरे जंगल जाना होता। वह विशेष जड एकत्र करता और फिर दिन भर उसे काले धागे की सहायता से कलाई मे बाँधे रहता। दूसरे दिन दूसरी जड का इसी तरह प्रयोग करता। ग्यारह दिनो तक ग्यारह अलग-अलग जडो के अनोखे प्रयोग से उसे लाभ हुआ। पारम्परिक चिकित्सको का कहना था कि वैसे ही रोगी ने इतनी अधिक औषधीयो का सेवन कर लिया है इसलिये और अधिक औषधीयो के सेवन की बजाय यह जरुरी है कि ऐसे अनोखे उपाय अपनाये जाये। यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि अलग-अलग रंगो के धागो के प्रयोग के पीछे वैज्ञानिक कारण है। अपने शोध दस्तावेजो मे मैने इस विषय़ मे विस्तार से लिखा है। यदि आप जानना चाहे तो उन आलेखो को पढे।
मेरे मित्र मुझे आमतौर पर विवाह के दिन आमंत्रित करने की बजाय विवाह के पाँच दिन पहले आमंत्रित करना पसन्द करते है। वे एडी-चोटी का जोर लगा देते है। मुझे जाना ही होता है। पर मै खाली हाथ तो जा नही सकता। मेरे पास नीले धागो मे गुथी ताजी जड होती है। इस जड को सलीके से वर की कलाई मे बाँध देता हूँ। अब पाँच दिनो तक वर को इसे पहने रहना होता है। ज्यादातर मित्र समझते है कि इसके प्रयोग से उनकी कामशक्ति बढेगी। बहुत से मित्र तो ऐसा दावा भी करते है पर यह अधूरा सच है। मुझे पारम्परिक चिकित्सको से इस अनूठे प्रयोग का पता चला। वे जब भी किसी बीमार पडने वाले व्यक्ति से मिलते है तो इस जड को बिना विलम्ब कलाई मे बाँध देते है। इससे शरीर का बिगडा हुआ संतुलन सही रुप मे आ जाता है और व्यक्ति बीमार पडने से बच जाता है। ऐसी जडो को पारम्परिक चिकित्सक विवाह समरोहो मे भी प्रयोग करते है। वे वर और वधू दोनो के लिये जडो का प्रयोग सुझाते है। उनका कहना है कि वर-वधू के लिये ये दिन बहुत महत्वपूर्ण है। ये जरुरी है कि इन दिनो मे वे प्रसन्न रहे और रोगो से बचे रहे। यह पारम्परिक ज्ञान कारगर है और बहुत अधिक उपयोगी है। आज के समय मे इसका और भी अधिक महत्व है। मैने स्वाइन फ्लू के लिये जो उपाय सुझाये थे उनमे जडो का ऐसा अनूठा प्रयोग भी शामिल था।
अपने वर्षो के अनुभव से मैने जडो और दूसरे वानस्पतिक भागो के हजारो प्रयोगो के विषय मे जानकारियाँ एकत्र की है। बहुत से ऐसे प्रयोगो को आधुनिक विज्ञान की कसौटी मे भी कसा गया है। भारत ही नही बल्कि दुनिया के दूसरे भागो मे भी पारम्परिक चिकित्सक ऐसे प्रयोग सदियो से करते आ रहे है। मै इन प्रयोगो को नयी पीढी के बीच लोकप्रिय करना चाहता हूँ ताकि वे स्वस्थ रह सके। मै इस पारम्परिक ज्ञान के उपयोग से ऐसी राखियाँ बनाने के पक्ष मे हूँ जो भाईयो को रोगो से और आज की दुनिया के मानसिक तनावो से मुक्त रख सके। देश भर मे पारम्परिक चिकित्सको के मार्गदर्शन मे ऐसी राखियाँ बने और भाईयो की कलाईयो मे सजे।
इस वर्ष के रक्षाबन्धन मे तो ऐसी राखियो की उम्मीद करना सही नही है पर मुझे विश्वास है कि आने वाले वर्षो मे इस ओर आम लोगो का ध्यान जायेगा। मै आपको आश्वस्त करना चाहता हूँ कि हर वर्ष जिस तरह पारम्परिक चिकित्सक और दूसरे लोग रक्षाबन्धन के दिन मेरे पास आते है वैसे ही आप आयेंगे तो ऐसे रक्षाबन्धनो से आपका भी स्वागत किया जायेगा। हम इस परम्परा को वर्ष मे कई बार अपनाते है और लाभांवित होते है।
ज्यादातर पारम्परिक चिकित्सक जनहित मे इस पारम्परिक ज्ञान को सार्वजनिक करने के पक्ष मे है पर वे इसके गलत व्यवसायिक उपयोग के भय से भी प्रभावित है। उन्होने “रुद्राक्ष माफिया” को फलते-फूलते और उनके हाथो गरीबो को लुटते देखा है। उन्होने यह भी देखा है कि प्राचीन भारतीय योग कैसे कुछ लोगो की बपौती बन गया है और कैसे इस पारम्परिक ज्ञान से छदम बाबा लोग अरबो कमा रहे है। उन्हे लगता है कि पारम्परिक ज्ञान को सार्वजनिक करते ही कही चैनल वाले बाबाओ की गिद्ध दृष्टि उन पर न गड जाये। उनका डर गलत नही है। मै अपने लेखो मे बार-बार लिखता हूँ कि जब आयुर्वेद पर हर भारतीय का बराबर हक है तो क्यो कुछ कम्पनियाँ और बाबा इस पर अपना वर्चस्व कायम किये हुये है? आयुर्वेद से देश को खरबो की आमदनी होती है और दुनिया भर मे इसका बाजार है तो फिर भारतीयो को इसका लाभ मुफ्त मे मिलना चाहिये। ठीक उसी तरह जैसे पेट्रोल से कमाने वाले अरब देश अपने नागरिको को हिस्सा देते है। क्यो भारतीय पारम्परिक ज्ञान से बने शीतोप्लादि और मधुमेहहर चूर्ण जैसे उत्पाद मनमानी कीमत पर बिकते है जबकि वे हमारे ही जंगल से हमारे ही पारम्परिक ज्ञान के आधार पर बने है। किसने चन्द लोगो को इससे लाभ कमाने का आधिकार दिया है? इस पर खुलकर चर्चा होनी चाहिये।
कल की जंगल यात्रा मुझे राखियो के लिये करनी पडेगी। इस बार जो मित्र और परिजन आने वाले है वे ऐसी रखियाँ चाहते है जो उन्हे कम से कम एक दिन मानसिक तनाव से दूर रख सके और चैन की नीन्द सुला सके। उन्हे निराश करने का मेरा मन बिल्कुल नही है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
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रोगो को हरने वाली राखियाँ बन्धवाये इस रक्षाबन्धन मे
पारम्परिक चिकित्सको के साथ इस जंगल यात्रा के दौरान जब एक गाँव मे एक और जानकार को साथ लेने के लिये रुके तो पता चला कि वे बीमार है। तेज ज्वर से तडप रहे है। दवाए उन्हे दी जा रही थी पर फिर भी ज्वर कम नही हो रहा था। वे लगभग बेसुध थे और ज्वर बढने पर प्रलाप भी करते थे। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको ने खेतो का रुख किया। क्लिंग नामक एक खरप्तवार को चुना और फिर उसकी जडे खोदने लगे। ताजी जड को नीले धागे मे पिरोया और फिर उसे रोगी की कलाई मे बाँध दिया। मुझे बताया गया कि अब ज्वर कम होने लगेगा। रोगी के परिजनो को हिदायत दी गयी कि जैसे जी ज्वर कम हो नीले धागे की सहायता से बन्धी जड कलाई से निकाल ले और फिर नीले की जगह लाल धागा बाँध दे। जब ज्वर पूरी तरह से चला जाय तो काले धागे का प्रयोग करे। ज्वर उतरने के चौबीस घंटो के बाद इस जड को या तो पास की नदी मे प्रवाहित कर दे या पुराने पीपल के नीचे गाड दे। इन तमाम निर्देशो के बाद हमने आगे की राह पकडी। शाम को जब लौटे तो रोगी की हालत काफी सुधरी हुयी थी। गाँव के बहुत से लोग जमा थे। वे पारम्परिक चिकित्सको का ही इंतजार कर रहे थे। बहुत से किसानो ने बताया कि क्लिंग को वे कचरे के रुप मे देखते आये है। पहली बार उन्होने इसके जीवनदायिनी गुणो के बारे मे जाना है।
मुझे याद आता है टीबी का एक रोगी जिसे आधुनिक चिकित्सको ने साफ कह दिया था कि अब बचने की कोई उम्मीद नही है। वह रोगी घर के एक कोने ने पडा रहता था। कोई उसके पास नही जाता था। वह मौत का इंतजार कर रहा था और मौत थी कि आती ही नही थी। पारम्परिक चिकित्सको को जब यह पता चला तो वे भाग कर आ गये। वे अंतिम समय तक प्रयास करते रहते है। वे कभी भी हथियार नही डालते। आधुनिक चिकित्सा के महारथियो को भी पारम्परिक चिकित्सको की यह जीवटता भाती है इसलिये भले ही वे अपने रोगियो को मुम्बई, दिल्ली भेजे पर जब उनके परिवार मे संकट आता है तो पारम्परिक चिकित्सको का रुख करते है। टीबी के उस रोगी को पारम्परिक चिकित्सको ने मछलियो और वनस्पतियो की सहायता से फिर से चंगा कर दिया। पर लम्बे संघर्ष ने रोगी की जीवनी शक्ति को कम कर दिया था। पारम्परिक चिकित्सको ने उसे अनोखा उपाय बताया।
अपने साथ जंगल ले जाकर उन्होने ग्यारह तरह की जडो की पहचान करवायी। रोगी को रोज मुँह अन्धेरे जंगल जाना होता। वह विशेष जड एकत्र करता और फिर दिन भर उसे काले धागे की सहायता से कलाई मे बाँधे रहता। दूसरे दिन दूसरी जड का इसी तरह प्रयोग करता। ग्यारह दिनो तक ग्यारह अलग-अलग जडो के अनोखे प्रयोग से उसे लाभ हुआ। पारम्परिक चिकित्सको का कहना था कि वैसे ही रोगी ने इतनी अधिक औषधीयो का सेवन कर लिया है इसलिये और अधिक औषधीयो के सेवन की बजाय यह जरुरी है कि ऐसे अनोखे उपाय अपनाये जाये। यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहूँगा कि अलग-अलग रंगो के धागो के प्रयोग के पीछे वैज्ञानिक कारण है। अपने शोध दस्तावेजो मे मैने इस विषय़ मे विस्तार से लिखा है। यदि आप जानना चाहे तो उन आलेखो को पढे।
मेरे मित्र मुझे आमतौर पर विवाह के दिन आमंत्रित करने की बजाय विवाह के पाँच दिन पहले आमंत्रित करना पसन्द करते है। वे एडी-चोटी का जोर लगा देते है। मुझे जाना ही होता है। पर मै खाली हाथ तो जा नही सकता। मेरे पास नीले धागो मे गुथी ताजी जड होती है। इस जड को सलीके से वर की कलाई मे बाँध देता हूँ। अब पाँच दिनो तक वर को इसे पहने रहना होता है। ज्यादातर मित्र समझते है कि इसके प्रयोग से उनकी कामशक्ति बढेगी। बहुत से मित्र तो ऐसा दावा भी करते है पर यह अधूरा सच है। मुझे पारम्परिक चिकित्सको से इस अनूठे प्रयोग का पता चला। वे जब भी किसी बीमार पडने वाले व्यक्ति से मिलते है तो इस जड को बिना विलम्ब कलाई मे बाँध देते है। इससे शरीर का बिगडा हुआ संतुलन सही रुप मे आ जाता है और व्यक्ति बीमार पडने से बच जाता है। ऐसी जडो को पारम्परिक चिकित्सक विवाह समरोहो मे भी प्रयोग करते है। वे वर और वधू दोनो के लिये जडो का प्रयोग सुझाते है। उनका कहना है कि वर-वधू के लिये ये दिन बहुत महत्वपूर्ण है। ये जरुरी है कि इन दिनो मे वे प्रसन्न रहे और रोगो से बचे रहे। यह पारम्परिक ज्ञान कारगर है और बहुत अधिक उपयोगी है। आज के समय मे इसका और भी अधिक महत्व है। मैने स्वाइन फ्लू के लिये जो उपाय सुझाये थे उनमे जडो का ऐसा अनूठा प्रयोग भी शामिल था।
अपने वर्षो के अनुभव से मैने जडो और दूसरे वानस्पतिक भागो के हजारो प्रयोगो के विषय मे जानकारियाँ एकत्र की है। बहुत से ऐसे प्रयोगो को आधुनिक विज्ञान की कसौटी मे भी कसा गया है। भारत ही नही बल्कि दुनिया के दूसरे भागो मे भी पारम्परिक चिकित्सक ऐसे प्रयोग सदियो से करते आ रहे है। मै इन प्रयोगो को नयी पीढी के बीच लोकप्रिय करना चाहता हूँ ताकि वे स्वस्थ रह सके। मै इस पारम्परिक ज्ञान के उपयोग से ऐसी राखियाँ बनाने के पक्ष मे हूँ जो भाईयो को रोगो से और आज की दुनिया के मानसिक तनावो से मुक्त रख सके। देश भर मे पारम्परिक चिकित्सको के मार्गदर्शन मे ऐसी राखियाँ बने और भाईयो की कलाईयो मे सजे।
इस वर्ष के रक्षाबन्धन मे तो ऐसी राखियो की उम्मीद करना सही नही है पर मुझे विश्वास है कि आने वाले वर्षो मे इस ओर आम लोगो का ध्यान जायेगा। मै आपको आश्वस्त करना चाहता हूँ कि हर वर्ष जिस तरह पारम्परिक चिकित्सक और दूसरे लोग रक्षाबन्धन के दिन मेरे पास आते है वैसे ही आप आयेंगे तो ऐसे रक्षाबन्धनो से आपका भी स्वागत किया जायेगा। हम इस परम्परा को वर्ष मे कई बार अपनाते है और लाभांवित होते है।
ज्यादातर पारम्परिक चिकित्सक जनहित मे इस पारम्परिक ज्ञान को सार्वजनिक करने के पक्ष मे है पर वे इसके गलत व्यवसायिक उपयोग के भय से भी प्रभावित है। उन्होने “रुद्राक्ष माफिया” को फलते-फूलते और उनके हाथो गरीबो को लुटते देखा है। उन्होने यह भी देखा है कि प्राचीन भारतीय योग कैसे कुछ लोगो की बपौती बन गया है और कैसे इस पारम्परिक ज्ञान से छदम बाबा लोग अरबो कमा रहे है। उन्हे लगता है कि पारम्परिक ज्ञान को सार्वजनिक करते ही कही चैनल वाले बाबाओ की गिद्ध दृष्टि उन पर न गड जाये। उनका डर गलत नही है। मै अपने लेखो मे बार-बार लिखता हूँ कि जब आयुर्वेद पर हर भारतीय का बराबर हक है तो क्यो कुछ कम्पनियाँ और बाबा इस पर अपना वर्चस्व कायम किये हुये है? आयुर्वेद से देश को खरबो की आमदनी होती है और दुनिया भर मे इसका बाजार है तो फिर भारतीयो को इसका लाभ मुफ्त मे मिलना चाहिये। ठीक उसी तरह जैसे पेट्रोल से कमाने वाले अरब देश अपने नागरिको को हिस्सा देते है। क्यो भारतीय पारम्परिक ज्ञान से बने शीतोप्लादि और मधुमेहहर चूर्ण जैसे उत्पाद मनमानी कीमत पर बिकते है जबकि वे हमारे ही जंगल से हमारे ही पारम्परिक ज्ञान के आधार पर बने है। किसने चन्द लोगो को इससे लाभ कमाने का आधिकार दिया है? इस पर खुलकर चर्चा होनी चाहिये।
कल की जंगल यात्रा मुझे राखियो के लिये करनी पडेगी। इस बार जो मित्र और परिजन आने वाले है वे ऐसी रखियाँ चाहते है जो उन्हे कम से कम एक दिन मानसिक तनाव से दूर रख सके और चैन की नीन्द सुला सके। उन्हे निराश करने का मेरा मन बिल्कुल नही है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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Updated Information and Links on March 03, 2012
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