दस्तावेजीकरण की राह तकता भारतीय कृषि से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान

मेरी जंगल डायरी से कुछ पन्ने-61
- पंकज अवधिया
दस्तावेजीकरण की राह तकता भारतीय कृषि से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान


रात गहरा रही थी। एक स्थान पर आग जलाकर हम लोग खुले मे बैठे थे। आस-पास कुछ दूरी तक खेत थे और फिर उसके बाद जंगल शुरु होते थे। रात उन बुजुर्ग किसानो के साथ गुजारनी थी जो जंगली सुअरो से अपनी फसल की रक्षा के लिये खेतो पर पहरा दे रहे थे। हमारी गाडी पास ही खडी थी। गाडी मे सोने की बजाय मैने मचान पर बैठना उचित समझा। फिर जब नीचे आग जल गयी तो हम सब नीचे आकर बैठ गये। बुजुर्ग किसानो से पारम्परिक कृषि की बात होने लगी। उन दिनो की बात जब कृषि जंगलो पर निर्भर थी। बुजुर्ग किसान तब पारम्परिक धान की खेती करते थे। इनमे से बहुत से औषधीय धान भी थे। औषधीय धान पास के नगर मे रहने वाले राज परिवार के लिये उगाया जाता था। राजा के पारम्परिक चिकित्सक यानि राजवैद्य अपनी निगरानी मे इन्हे उगवाते और फिर शाही गाडियो मे लदवाकर नगर ले जाते। उस समय औषधीय धान की खेती किसान और पारम्परिक चिकित्सक मिलकर करते थे।

कृषि की शुरुआत से लेकर फसल की कटाई तक जंगल से एकत्र की गयी वनस्पतियाँ अहम भूमिका निभाती थी। पारम्परिक चिकित्सक जंगल से इन वनस्पतियो को लाते और उनके सत्व तैयार किये जाते। इन सत्वो से जमीन को सींचा जाता। उसके बाद बीजो को उपचारित किया जाता और फिर पूरी फसल के दौरान कई बार इसका छिडकाव किया जाता। यह कृषि उस समय दूसरे किसानो द्वारा की जा रही खेती से एकदम भिन्न थी। बुजुर्ग किसान बताते है कि इस कृषि से उपज कम होती थी पर गुणवत्ता विशेषकर औषधीय गुण चरम पर होते थे। राज परिवार इन्हे नियमित भोजन मे प्रयोग करता था। दूर देश से आने वाले मित्रो और मेहमानो को भी इसे बतौर उपहार दिया जाता था।

मैने बुजुर्गो किसानो से कृषि मे उपयोग होने वाली वनस्पतियो के विषय मे पूछना शुरु किया तो उन्होने दसो वनस्पतियो के नाम बताये। यह भी बताया कि कब उन्हे एकत्र करना है और कैसे सत्व बनाना है? उन्होने कहा कि बहुत सी वनस्पतियाँ अब जंगल मे खोजे नही मिलती है। जडी-बूटियो के व्यापारियो ने जंगल के जंगल साफ कर दिये है। राज परिवार को धान देने से पहले कुछ मात्रा मे वे इसे अपने परिवार के लिये भी रख लेते थे। बुजुर्ग किसान अपने मजबूत काले बालो और अपनी अच्छी सेहत का राज उस समय खाये गये औषधीय धान को देते है और फिर आहे भरकर कहते है कि काश, हमे अभी भी वैसा ही अन्न खाने को मिलता तो परिजन बार-बार बीमार नही पडते। आज बुजुर्ग किसानो के पास पडा यह पारम्परिक ज्ञान रुपी खजाना उनके किसी काम का नही है। वे अब इसे भूलते जा रहे है। कभी ही इसकी चर्चा की जाती है। जब मैने इसमे रुचि दिखायी तो सारी रात वे बिना थके इसके विषय मे बताते रहे।

जब मैने युवा किसानो के साथ औषधीय और सगन्ध फसलो की व्यवसायिक खेती आरम्भ की तो यह पारम्परिक ज्ञान मेरे बहुत काम आया। कृषि से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान (Traditional Agricultural Knowedge) के दस्तावेजीकरण के लिये हमारे देश मे पानी की तरह पैसे बहाये गये। गुजरात से लेकर मध्य प्रदेश तक की संस्थाओ ने अरबो हजम किये पर सही मायने मे किसी ने दस्तावेजीकरण नही किया। जमीन पर अधिक समय बिताने की बजाय महानगरो मे महंगे सम्मेलन आयोजित करने मे सारे पैसे लगा दिये गये। इसका यह दुष्परिणाम हुआ कि बहुत सा पारम्परिक ज्ञान बुजुर्ग किसानो के साथ समाप्त हो गया। कृषि की शिक्षा के दौरान मैने इस ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे बहुत रुचि ली पर इस ज्ञान को कहाँ और कैसे संरक्षित करुँ, यह किसी ने नही बताया। अपने गुरुजनो को इस विषय मे बताया तो उन्होने बिना विलम्ब इस ज्ञान को अपना बताकर शोध-पत्र प्रकाशित करवा लिये। किसी ने गुजरात की एक संस्था से सम्पर्क करने को कहा पर जब मैने वहाँ जनता की गाढी कमायी का खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग देखा तो मन नही हुआ कि दस्तावेज उन्हे सौपूँ। सारा ज्ञान मेरे पास सुरक्षित रखा रहा। पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान पर अधिक ध्यान देने के कारण मै इस पर कार्य को आगे नही बढा पाया।

कुछ दिनो पहले गुजरात की उसी संस्था की वेबसाइट पर यह जानकारी पढी कि उन्होने 90,000 से अधिक पारम्परिक तकनीको के विषय मे जानकारी एकत्र की है तो मुझे लगा कि अपने पास संरक्षित ज्ञान को मै भी दस्तावेज की तरह प्रस्तुत करुँ। जब मैने पारम्परिक तकनीको को सूचीबद्ध करना शुरु किया तो केवल कीट नियंत्रण की पारम्परिक कृषि तकनीक ही संख्या मे डेढ लाख से अधिक निकली। मुझे पता नही कि उस संस्था ने इतनी तकनीको की जानकारियाँ जुटाने के लिये कितने करोड फूँके पर मै अपने बारे मे यह कह सकता हूँ कि मैने जो भी खर्चा अपनी जेब से खर्चा। अब मै इस ज्ञान को मूल रुप मे सीजीबीडी डेटाबेस के माध्यम से दस्तावेज के रुप मे प्रकाशित करने की योजना बना रहा हूँ।

अपनी हाल की जंगल यात्रा के दौरान जब भी मैने ऐसे किसानो को ढूढने की कोशिश की जो कि पूरी तरह से पारम्परिक कृषि को अपना रहे है तो मुझे असफलता ही हाथ लगी। छोटे से छोटा किसान भी बिना यूरिया के फसल नही उगा रहा है। पारम्परिक कृषि पारम्परिक चिकित्सको के पास कुछ हद तक बची हुयी है। वह भी कितने दिनो तक इसे बचा पायेंगे, कहा नही जा सकता है। अपनी कृषि की शिक्षा के दौरान मै ऐसे संस्थान या विभाग की परिकल्प्ना किया करता था जो छात्रो को देश की पारम्परिक कृषि के विषय मे बताता। छात्र अपने नये विचारो से इस कृषि के ज्ञान को समृद्ध करते और फिर नयी पीढी की खेती के लिये उसका प्रयोग होता। आज हमारे देश मे तो सरकारी कृषि संस्थान विदेशी एजेंडे पर काम कर रहे है। सारे शोध कार्य विदेशो मे प्रस्तुत किये जा रहे है और हमारे किसान आत्महत्या कर रहे है। मुझे नही लगता कि वे पारम्परिक कृषि ज्ञान की कभी सुध लेंगे। हाँ, विदेशो मे बैठे उनके आका यदि उनसे ऐसा करने को कहेंगे और इसके लिये फंड देंगे तो वे डेढ टाँग से तैयार हो जायेंगे। ऐसे मे निजी प्रयास ही कुछ राहत पहुँचा सकते है पर निजी प्रयास करने वालो को धन और सम्मान की लालसा त्यागनी होगी। मैने इस दिशा मे प्रयास आरम्भ किये है, उम्मीद है और लोग भी जुडेंगे। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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जरुर जुडेंगे ...शुभकामनायें ..!!

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