अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -49
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -49 - पंकज अवधिया
पिछले सोमवार को पारम्परिक चिकित्सको के साथ घने वनो मे घूमता रहा। दिन मे जंगली जानवर से मुलाकात होने की सम्भावना कम ही रहती है। साथ चल रहे लोग बताते रहे कि यहाँ भालू बहुत है, यह तेन्दुए का रास्ता है आदि-आदि। पर इनसे मुलाकात नही हुयी। मैने पहले भी लिखा है कि मै इनसे मिलना पसन्द नही करता। मेरा ध्यान वनस्पतियो पर रहता है। शाम तक घने जंगल को पैदल पार करते हुये हम दूसरे छोर तक पहुँच गये। वहाँ गाडी बुलवा ली थी। रात को जब फिर उसी रास्ते से गाडी मे बैठकर निकले तो आश्चर्य का ठिकाना नही रहा। पहले लोमडियो, फिर वनबिलाव, भालुओ को देखा और दो बार तेंदुआ दिखायी पडा। जंगली सुअर भी दिखायी पडे। हमारे साथ सफर कर रहे एक नये व्यक्ति ने हमे कुछ और ही समझ लिया था। हर जानवर को देखकर वह कहता रहा, साहब, इसका सींग मिल जायेगा मर्दाना शक्ति बढाने के लिये, इसकी पूँछ के बाल मिल जायेंगे भूत भगाने के लिये, इसके सिर की हड्डी मिल जायेगी वशीकरण के लिये, इसके दाँत दिलवा दूँ क्या, आपको नजर नही लगेगी आदि-आदि। मैने उसे शांत करते हुये कहा कि क्यो फालतू की बात कर रहे हो। इस पर उसने अकड कर कहा कि नही सुनना है तो मत सुनो पर आप जैसे बहुत से शहरी लोग इनकी माँग करते है। मुँह-माँगी कीमत देते है। असर नही होता है तो शहर के पढे-लिखे लोग क्यो इतने पैसे देकर इन्हे खरीदते है?
मै पिछले कई वर्षो से वन्य जीवो के अवैध व्यापार से सम्बन्धित अखबारी कतरनो का एकत्रण कर रहा हूँ। हाल के वर्षो मे ऐसी खबरे अखबार मे लगातार आ रही है। कभी तेन्दुए की खाल के साथ कोई पकडाता है तो कभी बाघ और भालू के अंगो के साथ। अखबारो मे जप्त किये गये अंग के साथ तस्करो की तस्वीरे छपती रहती है। तस्करो को इस तरह सतर्कता से पकडना सराहनीय काम है पर मेरा मन इस बात को लेकर अधिक चिंतित है कि आखिर क्यो ऐसी घटनाए बढ रही है? क्या शिकार से पहले ही तस्करो को रोका नही जा सकता? अखबार बताते है कि ऐसे मामलो मे छोटे लोग पकडे जाते है पर असली पहुँच वाले लोग बच जाते है इसीलिये ऐसी घटनाए रुकने का नाम नही लेती है। मैने अपने अनुभव से पाया है कि शहरी लोगो के अन्ध-विश्वास के चलते इस तरह के शिकार बहुत तेजी से बढे है। पैसो की चाह और खरीददारो की कभी न खत्म होने वाली कतार इसको खुलेआम बढावा दे रही है। उस दिन सफर मे चल रहा नया व्यक्ति जिस बेबाकी से अंग उपलब्ध करवाने की बात कह रहा था उससे तो लगता था कि जैसे कानून का डर उसे है ही नही।
पिछले कुछ समय से छत्तीसगढ मे पर्यटन व्यवसाय मे अच्छी-खासी उन्नति हुयी है। देश-विदेश से पर्यटक आ रहे है। अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष दोनो ही रुप से अवैध शिकार के मामले इनसे जुडे नजर आते है। बहुत से पर्यटन स्थलो मे पार्किग स्थल पर बहुत से ऐसे सन्दिग्ध लोग मिल जायेंगे जो इस तरह के अंगो को बेचने के लिये तत्पर दिखेंगे। छापामार तरीके से की गयी कार्यवाहियो से इन पर अंकुश लग सकता है पर मुझे लगता है कि शहरो मे भी जागरुकता की जरुरत है। बडी मछ्लियो को पकडने की जरुरत है। राज्य के बुजुर्ग वनो के विनाश और जंगली जानवरो की घटती संख्या से दुखी है। मुँह के कैसर से जूझ रहे एक बुजुर्ग ने बताया कि भगवान मेरे किये की सजा मुझे दे रहा है। अपनी जवानी के दिनो मे वे बाघ को दोनाली से मारकर रातोरात खाल को जावा मोटरसाइकल मे डालकर धमतरी पहुँचा दिया करते थे। उन्हे उस समय अपने पर बडा नाज था पर अब अपने गाँव के बदलते हुये वातावरण को देखकर वे अपने को इसके लिये दोषी मानते है। मुझसे यह सब कहते हुये वे बार-बार अपना सिर पीटते रहे दुख मे। पर अब तो बहुत देर हो चुकी है।
अपनी जंगल यात्रा के दौरान मैने नाना प्रकार के पक्षी देखे पर अच्छा कैमरा नही होने के कारण कम ही तस्वीरे ले पाया। नीलकंठ ने बार-बार ध्यान खीचा। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको ने हाथ जोडने का एक भी मौका नही छोडा जब-जब भी इस पक्षी से हमारी मुलाकात हुयी। वे तांत्रिक साहित्यो मे छपी इस बात को धता बताते रहे कि इस पक्षी के दर्शन माने अनर्थ की आशंका। ये साहित्य दावा करते है कि यदि यात्रा करते समय यह दिख जाये तो यात्रा मे विघ्न आ सकता है। चोरी हो सकती है। यहाँ तक कि जान भी जा सकती है। ये साहित्य ऐसे कपोल-कल्पित दावो का कोई आधार नही बताते है। मैने बचपन से ही आम लोगो को इस पक्षी को विशेष आदरभाव से देखते पाया है। दशहरे के दिन इसका दिख जाना बहुत ही शुभ माना जाता है। नीलकंठ का शिकार भी इसी आस्था के कारण कम किया जाता है। चलिये, हम इस पीढी के लोग सारे पक्षियो के साथ अच्छी बाते जोड दे। साल के 365 दिनो मे अलग-अलग पक्षियो को देखने को शुभ घटना से जोड दे ताकि यही आस्था आने वाली पीढीयो से इनकी रक्षा कर सके। पारम्परिक चिकित्सको की ऐसी सलाहे मुझे जँचती है। पर्यावरण को बचाने के लिये हमे अब किसी भी तरह का विकल्प चुनने मे संकोच नही करना चाहिये। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
इस लेखमाला को चित्रो से सुसज्जित करके और नयी जानकारियो के साथ इकोपोर्ट मे प्रकाशित करने की योजना है। इस विषय मे जानकारी जल्दी ही उपलब्ध होगी इसी ब्लाग पर।
पिछले सोमवार को पारम्परिक चिकित्सको के साथ घने वनो मे घूमता रहा। दिन मे जंगली जानवर से मुलाकात होने की सम्भावना कम ही रहती है। साथ चल रहे लोग बताते रहे कि यहाँ भालू बहुत है, यह तेन्दुए का रास्ता है आदि-आदि। पर इनसे मुलाकात नही हुयी। मैने पहले भी लिखा है कि मै इनसे मिलना पसन्द नही करता। मेरा ध्यान वनस्पतियो पर रहता है। शाम तक घने जंगल को पैदल पार करते हुये हम दूसरे छोर तक पहुँच गये। वहाँ गाडी बुलवा ली थी। रात को जब फिर उसी रास्ते से गाडी मे बैठकर निकले तो आश्चर्य का ठिकाना नही रहा। पहले लोमडियो, फिर वनबिलाव, भालुओ को देखा और दो बार तेंदुआ दिखायी पडा। जंगली सुअर भी दिखायी पडे। हमारे साथ सफर कर रहे एक नये व्यक्ति ने हमे कुछ और ही समझ लिया था। हर जानवर को देखकर वह कहता रहा, साहब, इसका सींग मिल जायेगा मर्दाना शक्ति बढाने के लिये, इसकी पूँछ के बाल मिल जायेंगे भूत भगाने के लिये, इसके सिर की हड्डी मिल जायेगी वशीकरण के लिये, इसके दाँत दिलवा दूँ क्या, आपको नजर नही लगेगी आदि-आदि। मैने उसे शांत करते हुये कहा कि क्यो फालतू की बात कर रहे हो। इस पर उसने अकड कर कहा कि नही सुनना है तो मत सुनो पर आप जैसे बहुत से शहरी लोग इनकी माँग करते है। मुँह-माँगी कीमत देते है। असर नही होता है तो शहर के पढे-लिखे लोग क्यो इतने पैसे देकर इन्हे खरीदते है?
मै पिछले कई वर्षो से वन्य जीवो के अवैध व्यापार से सम्बन्धित अखबारी कतरनो का एकत्रण कर रहा हूँ। हाल के वर्षो मे ऐसी खबरे अखबार मे लगातार आ रही है। कभी तेन्दुए की खाल के साथ कोई पकडाता है तो कभी बाघ और भालू के अंगो के साथ। अखबारो मे जप्त किये गये अंग के साथ तस्करो की तस्वीरे छपती रहती है। तस्करो को इस तरह सतर्कता से पकडना सराहनीय काम है पर मेरा मन इस बात को लेकर अधिक चिंतित है कि आखिर क्यो ऐसी घटनाए बढ रही है? क्या शिकार से पहले ही तस्करो को रोका नही जा सकता? अखबार बताते है कि ऐसे मामलो मे छोटे लोग पकडे जाते है पर असली पहुँच वाले लोग बच जाते है इसीलिये ऐसी घटनाए रुकने का नाम नही लेती है। मैने अपने अनुभव से पाया है कि शहरी लोगो के अन्ध-विश्वास के चलते इस तरह के शिकार बहुत तेजी से बढे है। पैसो की चाह और खरीददारो की कभी न खत्म होने वाली कतार इसको खुलेआम बढावा दे रही है। उस दिन सफर मे चल रहा नया व्यक्ति जिस बेबाकी से अंग उपलब्ध करवाने की बात कह रहा था उससे तो लगता था कि जैसे कानून का डर उसे है ही नही।
पिछले कुछ समय से छत्तीसगढ मे पर्यटन व्यवसाय मे अच्छी-खासी उन्नति हुयी है। देश-विदेश से पर्यटक आ रहे है। अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष दोनो ही रुप से अवैध शिकार के मामले इनसे जुडे नजर आते है। बहुत से पर्यटन स्थलो मे पार्किग स्थल पर बहुत से ऐसे सन्दिग्ध लोग मिल जायेंगे जो इस तरह के अंगो को बेचने के लिये तत्पर दिखेंगे। छापामार तरीके से की गयी कार्यवाहियो से इन पर अंकुश लग सकता है पर मुझे लगता है कि शहरो मे भी जागरुकता की जरुरत है। बडी मछ्लियो को पकडने की जरुरत है। राज्य के बुजुर्ग वनो के विनाश और जंगली जानवरो की घटती संख्या से दुखी है। मुँह के कैसर से जूझ रहे एक बुजुर्ग ने बताया कि भगवान मेरे किये की सजा मुझे दे रहा है। अपनी जवानी के दिनो मे वे बाघ को दोनाली से मारकर रातोरात खाल को जावा मोटरसाइकल मे डालकर धमतरी पहुँचा दिया करते थे। उन्हे उस समय अपने पर बडा नाज था पर अब अपने गाँव के बदलते हुये वातावरण को देखकर वे अपने को इसके लिये दोषी मानते है। मुझसे यह सब कहते हुये वे बार-बार अपना सिर पीटते रहे दुख मे। पर अब तो बहुत देर हो चुकी है।
अपनी जंगल यात्रा के दौरान मैने नाना प्रकार के पक्षी देखे पर अच्छा कैमरा नही होने के कारण कम ही तस्वीरे ले पाया। नीलकंठ ने बार-बार ध्यान खीचा। साथ चल रहे पारम्परिक चिकित्सको ने हाथ जोडने का एक भी मौका नही छोडा जब-जब भी इस पक्षी से हमारी मुलाकात हुयी। वे तांत्रिक साहित्यो मे छपी इस बात को धता बताते रहे कि इस पक्षी के दर्शन माने अनर्थ की आशंका। ये साहित्य दावा करते है कि यदि यात्रा करते समय यह दिख जाये तो यात्रा मे विघ्न आ सकता है। चोरी हो सकती है। यहाँ तक कि जान भी जा सकती है। ये साहित्य ऐसे कपोल-कल्पित दावो का कोई आधार नही बताते है। मैने बचपन से ही आम लोगो को इस पक्षी को विशेष आदरभाव से देखते पाया है। दशहरे के दिन इसका दिख जाना बहुत ही शुभ माना जाता है। नीलकंठ का शिकार भी इसी आस्था के कारण कम किया जाता है। चलिये, हम इस पीढी के लोग सारे पक्षियो के साथ अच्छी बाते जोड दे। साल के 365 दिनो मे अलग-अलग पक्षियो को देखने को शुभ घटना से जोड दे ताकि यही आस्था आने वाली पीढीयो से इनकी रक्षा कर सके। पारम्परिक चिकित्सको की ऐसी सलाहे मुझे जँचती है। पर्यावरण को बचाने के लिये हमे अब किसी भी तरह का विकल्प चुनने मे संकोच नही करना चाहिये। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
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