अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -52

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -52 - पंकज अवधिया

मुम्बई के एक सज्जन को कही से खबर लगी कि मै मधुमेह पर पिछले चौदह सालो से एक रपट लिख रहा हूँ तो वे अपने बीमार पिता को लेकर बिना किसी सूचना के घर पर आ धमके। उनके पिता को मधुमेह था और उन्हे देखकर लगता था कि रोग बढी हुयी अवस्था मे था। उन्होने मुझसे चिकित्सा करने को कहा। मैने उन्हे बताया कि मै चिकित्सक नही हूँ, महज पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण करता हूँ। इस पर वे किसी अनुभवी पारम्परिक चिकित्सक के पास ले चलने की जिद करने लगे। उनकी हालत देखकर मना करते नही बना। उनके लडके ने बताया कि हालत बहुत बुरी है। आनन-फानन मे गाडी की व्यवस्था की गयी और फिर सैकडो किलोमीटर का लम्बा सफर आरम्भ हुआ।

पारम्परिक चिकित्सक के पास मोबाइल नही होता है इसलिये इस बात की चिंता थी कि कही हमारा जाना व्यर्थ न हो जाये। पर हमारी मेहनत बेकार नही गयी और जब हम पहुँचे तो पारम्परिक चिकित्सक ने बाहर आकर हमारा स्वागत किया। रोगी की जाँच करने के बाद उन्होने चिकित्सा करने की हामी भर दी। पर यह शर्त रखी कि उन्हे रुकना होगा। कब तक? जब तक हालात काबू मे न आ जाये। दूर-दराज का जंगल के अन्दर का गाँव था। ऐसे मे कहाँ रुका जाये? यह समस्या थी। आस-पास बडा शहर नही था जहाँ से रोज आने-जाने की व्यवस्था की जा सके। पारम्परिक चिकित्सक ने कहा कि चिंता न करे। सब इंतजाम हो जायेगा। उनहोने हमारे ठहरने के लिये अपने घर मे ही व्यवस्था कर दी पर रोगी को गाँव से बाहर बनी एक झोपडी मे रहने की सलाह दी। यह झोपडी पुराने पेडो के साये मे थी और बाहर से देखने पर सामान्य झोपडी की तरह दिखती थी। पर अन्दर जाने पर आम झोपडियो से एकदम अलग दिखती थी। अन्दर विशेष गन्ध भरी थी। इसके एक भाग मे रोगी को रहना था। हम लोग उनसे मिलने नही जा सकते थे। पारम्परिक चिकित्सक और उनके सहयोगी ही पूरे समय वहाँ रहने वाले थे। रोगी को बदन खुला रखने को कहा गया जबकि पारम्परिक चिकित्सक सहित हम सब शरीर को पूरी तरह ढके हुये थे। यहाँ रोगी को बीस दिनो तक रहना था और औषधीयो का सेवन करना था। चिकित्सा चौबीसो घंटे चलनी थी। उस समय भी जब रोगी गहरी निद्रा मे रहे। बीस दिनो मे रोगी की दशा के अनुसार झोपडी के विभिन्न भागो मे उन्हे रखा जाना था। बीस दिन बाद फिर पास ही बनी एक अन्य झोपडी मे जाना था। नयी बनी झोपडी मे जाने के बाद इस झोपडी को तोड देना था।

मुम्बई जैसे महानगर से आये उन सज्जन के पिता अर्थात रोगी दवा लेने को तो तैयार हो गये पर झोपडी मे रहने से मना कर दिया। वे जिद मे अड गये क़ि बस दवा लेकर जाने दिया जाये। पारम्परिक चिकित्सक ने कह दिया कि करेंगे तो पूरी चिकित्सा अन्यथा नही। क्योकि इससे रोगी की हालत मे सुधार शायद ही हो। आखिरकार हम लोग वापस आ गये। रास्ते भर वे सज्जन और उनके पिता झोपडी के बारे मे मजाक उडाते रहे और उसे अन्ध-विश्वास बताते रहे। मै चुपचाप खिडकी से बाहर देखता रहा। मैने छत्तीसगढ के इस अनूठे पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के विषय मे विस्तार से लिखा है। हजारो किस्म की औषधीय झोपडियाँ (Traditional Healing Huts) एक समय राज्य की पारम्परिक चिकित्सा की अहम भाग रही पर आज केवल कुछ ही पारम्परिक चिकित्सक इस ज्ञान का प्रयोग कर रहे है। इस तरह यह अद्भुत ज्ञान इतिहास मे खो जाने की कगार पर खडा है। यह तो हमारा सौभाग्य था कि पारम्परिक चिकित्सक ने रोगी को विशेष झोपडी मे रहने को कहा। पर हमारा शहरी समाज इसके महत्व को नही जानता और न ही जानना चाहता है। इसलिये वह इस पर हँसता है और बुजुर्गो का मजाक उडाता है।

इन दिनो मै मधुमेह की रपट मे इन औषधीय झोपडियो के विषय मे विस्तार से लिख रहा हूँ। कैसर जैसे आधुनिक रोगो से लेकर बुखार जैसे सामान्य रोगो के लिये पारम्परिक चिकित्सा मे ऐसी औषधीय झोपडियो का प्रचलन रहा है। रोग विशेष और रोगी की दशा के अनुसार मिट्टी से लेकर उनमे मिलायी जाने वाली वनौषधियो का चयन किया जाता है फिर औषधीय झोपडियो का निर्माण किया जाता है। रोगी को इन्ही के अन्दर रखकर चिकित्सा की जाती है। ये औषधीय झोपडियाँ विशेष पेडो की छाँव मे बनायी जाती है। इसमे सोने के लिये पलंग विशेष लकडी से बनाये जाते है। खटिया का प्रयोग भी किया जाता है। रोगी को उसमे लिटाकर नीचे से जडी-बूटियो के उबलने से उत्पन्न हुयी भाप को उसके शरीर मे बिखेरा जाता है। रोज अलग-अलग वनस्पतियो से बिछावन तैयार किया जाता है। इस तरह इन औषधीय झोपडियो की हरेक सामग्री रोगी के उपचार के लिये ही बनायी जाती है।

आज वर्तमान पीढी के बहुत कम आमजन इस अनूठे पारम्परिक ज्ञान के विषय मे जानते है। प्राचीन भारतीय ग्रंथो मे इस तरह की औषधीय झोपडियो का वर्णन मिलता है। सोम नामक चमत्कारी औषधी के प्रयोग के दौरान इसी तरह की औषधीय झोपडियो मे उपयोगकर्ता को रखा जाता था। यही शुरु मे उसे दस्त और वमन होते थे और फिर कुछ दिनो बाद नये दाँत और नये बाल के साथ नयी त्वचा प्राप्त होती थी। इस तरह उसका कायाकल्प हो जाता था। सुश्रुत सन्हिता मे सोम के प्रयोग के विषय मे इस तरह की रोचक बाते विस्तार से मिलती है। आज पूरी दुनिया असली सोमलता की तलाश मे है पर उसके प्रयोग के दौरान उपचार मे सहायक औषधीय झोपडियो को भूलती जा रही है।

आधुनिक शहरो के निर्माण मे यह पारम्परिक ज्ञान बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। यदि मकानो और दफ्तरो के निर्माण मे जिस तरह प्राचीन वास्तु शास्त्र का ध्यान रखा जाता है उसी तरह औषधीय झोपडियो से जुडे पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान का उपयोग भी किया जाये तो रोगो के घर हमारे शहर रोगमुक्त हो सकेंगे। मच्छर जैसे कीटो से रक्षा हो पायेगी। मै तो इस ज्ञान के उपयोग से ऐसा शहर बसाने की परिकल्पना करता हूँ जहाँ रोग विशेष के रोगियो को बसाया जाये। जैसे मधुमेह के रोगियो के लिये एक छोटा सा शहर। इस शहर मे रहकर वे काम भी करे और रोग से मुक्त भी होते रहे। ऐसे भी शहर जो इन रोगो से हमारी रक्षा कर सके। शायद इस तरह हम इस पारम्परिक ज्ञान को बचा पायेंगे और मानव-कल्याण मे पीढीयो तक उपयोग कर पायेंगे। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

-इस लेखमाला को चित्रो से सुसज्जित करके और नयी जानकारियो के साथ इकोपोर्ट मे प्रकाशित करने की योजना है। इस विषय मे जानकारी जल्दी ही उपलब्ध होगी इसी ब्लाग पर।

- शुरु से यह लेखमाला पढेंगे तो आपको ज्यादा आनन्द आयेगा।

Comments

Udan Tashtari said…
बहुत जानकारीपूर्ण पोस्ट. इस तरह के प्रयासों को कारपोरेट सेक्टर में भी प्रमोट करना आहिये ताकि कालोनी आदि बनाते समय इस तरह की बातों का ध्यान रखें.

आगे इन्तजार है.

Popular posts from this blog

अच्छे-बुरे भालू, लिंग से बना कामोत्तेजक तेल और निराधार दावे

स्त्री रोग, रोहिना और “ट्री शेड थेरेपी”

अहिराज, चिंगराज व भृंगराज से परिचय और साँपो से जुडी कुछ अनोखी बाते