अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -92

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -92 - पंकज अवधिया

छत्तीसगढ अपने तालाबो के लिये पूरी दुनिया मे जाना जाता है। मुझे याद आता है कि जब मैने वनस्पतियो से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय़ ज्ञान का दस्तावेजीकरण आरम्भ किया था तब से ही मै प्रदेश के अलग-अलग तालाबो के जल और उनके औषधीय गुणो के बारे मे जानकारी एकत्र करता रहा। मैने प्रदेश के जल स्त्रोतो से सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय़ ज्ञान पर काफी कुछ लिखा है। मुझे याद आता है कि कुछ वर्ष पहले राजधानी रायपुर के समीप स्थित आरंग नगर के पास रसनी के दो तालाबो से मैने बडी मात्रा मे जल एकत्र किया था और वहाँ से सैकडो किलोमीटर दूर पारम्परिक चिकित्सको के पास बतौर उपहार पहुँचाया था। रसनी के तालाब सडक के बायी और दायी ओर है। इन तालाबो के विषय मे बताया जाता है कि ये कभी नही सूखते। मैने हमेशा इनमे पानी देखा है। यहाँ के लोग भले ही इसे साधारण तालाब माने पर दूर-दूर के पारम्परिक चिकित्सक इसके जल को रोग विशेष मे उपयोगी मानते रहे है। वे रोगियो को न केवल इसमे स्नान करने को कहते है बल्कि जल के प्रयोग से दवाए भी बनाते है। और तो और, इस जल से नाना प्रकार की वनस्पतियो को सीचा जाता है ताकि वे औषधीय गुणो से परिपूर्ण हो जाये। पारम्परिक चिकित्सको के लिये ये गंगा जल से कम नही है। इन तालाबो के आस-पास उग रही वनस्पतियाँ विशेष औषधीय गुणो से परिपूर्ण मानी जाती है। मैने यहाँ मन्दिर के पास स्थित बेल और पुराने पीपल के बारे मे बहुत लिखा है। उडीसा के पारम्परिक चिकित्सक जब इस मार्ग से गुजरते है तो इन तालाबो का जल पीने और पीपल की छाँव सुस्ताने का मौका नही छोडते। इन तालाबो की इतनी अधिक महिमा होने के बावजूद कभी प्रशासन की ओर से इनके लिये कुछ नही किया गया। कल इन तालाबो के पास से एक बार फिर गुजरा तो मै रो पडा।

फोर लेन सडक का निर्माण होने के कारण तालाबो को पाटा जा रहा है। तालाब अब अपनी अंतिम साँसे गिन रहे है। मै यह सब देखकर हतप्रभ रह गया। पास ही पीपल के पेड की लाश पडी हुयी थी। किसी शक्तिशाली आधुनिक मशीन ने उसे बेरहमी और बेशरमी से उखाड दिया था। मै लाश तक पहुँचा तो उसमे जान नही थी। यह वही पीपल था जिसने असंख्य मनुष्यो की जान बचायी थी। आज जब मनुष्य़ की बारी आयी तो उसने इसे नेस्तनाबूत करने मे जरा भी देर नही लगायी। मै अनगिनत बार इस पीपल के साये मे बैठा चुका हूँ। इस बार मेरी हिम्मत उससे नजरे मिलाने की नही हुयी। सडक बनाने वालो ने तो ग्राम देवता को नही बख्शा था तो भला इन पेडो की क्या बिसात? बेल का महान पेड भी मुझे नही दिखा। पल भर मे ही माँ प्रकृति की इस अनुपम भेट को बरबाद कर दिया गया। मै तस्वीरे लेने लगा तो कुछ गाँव वाले एकत्र हो गये। उन्होने मुझे पत्रकार समझा और शिकायत भरे लहजे मे कहा कि हमे मुआवजा नही मिला है। यह केन्द्र सरकार की सडक है। मैने रुन्धे गले से पूछा कि इस पीपल को बचाने कोई सामने नही आया? तो वे बोले, हमारी एक भी नही सुनी गयी।

मैने इस लेखमाला मे पहले लिखा है कि रायपुर से आरंग के बीच के सैकडो पेड फोर लेन की भेट चढ गये। इनमे से बहुत से कैसर जैसे जटिल रोगो की चिकित्सा मे प्रयोग हो रहे थे। माँ प्रकृति ने खुले मन से छत्तीसगढ को सौगाते दी है पर यहाँ के योजनाकार और राजनेता इसकी कद्र नही जानते। यहाँ के राजनेता राजिम मे कुम्भ का आयोजन करवा कर अपनी भक्ति का सबूत दे सकते है पर सैक़डो पेडो को कटवाते वक्त उनके मुँह से उफ तक नही निकलती। वे इस बात से अनिभिज्ञ है शायद कि इस तरह की हत्याओ से उनका बरसो का कमाया पुण्य एक झटके मे ही बेकार हो जाता है। हमारे मुख्यमंत्री आयुर्वेद के चिकित्सक है। मै उनसे आमने-सामने कभी नही मिला पर यह दुख होता है कि दिव्य औषधीय गुणो से युक्त रसनी की वनस्पतियाँ व तालाब के जल और प्रदेश भर मे हो रही पेडो की अन्धाधुन्ध कटायी पर वे मौन धारण किये हुये है। उन्हे इस सब की जानकारी नही है या सब जानकर ऐसा कर रहे है, इनमे से कोई भी बात होने पर वे जिम्मेदारी से नही बच सकते है। प्रकृति प्रेमी उस दिन की प्रतीक्षा मे है जब वे अपने चाटुकारो के छदम घेरे से निकल कर बाहर आयेंगे। फोर लेन सडके और बाजार तो कही और भी बन सकते है पर माँ प्रकृति द्वारा सदियो मे बानाये गये उपहारो को फिर से बना पाना मनुष्य़ के बस मे नही है।

सर्वेक्षण के लिये हाल ही मे बागबहरा, पिथौरा और सिरपुर क्षेत्रो मे जाना हुआ है। मैने इन क्षेत्रो मे लम्बे समय तक काम किया है। बहुत सी वनस्पतियो से गहरे सम्बन्ध हो गये है। जब इन वनस्पतियो के पास से मै गुजरता हूँ तो गाडी रुकवाकर एक बार “समधी भेट” की तर्ज पर गले मिल लेता हूँ। मुझे तो असीम संतोष होता है। आते-जाते लोग बडी हैरत भरी निगाह से यह सब देखते रहते है। इस बार इन क्षेत्रो मे बहुत से परिजन नही मिले। कुछ तो ठूँठ की शक्ल मे थे जबकि बाकी पूरी तरह से गायब थे। रास्ते मे बहुत सी महिलाओ को पेडो की लाशे ढोते देखा। वे बिना किसी डर के मुख्य मार्ग मे लाशो सहित जा रही थी। पूरे प्रदेश मे पेडो का इस तरह कटना जारी है। बिना किसी रोक-टोक। पेडो को जलाउ लकडी के रुप मे इस्तमाल किया जाता है। माँ प्रकृति की बरसो की मेहनत पल भर मे जल कर खाक हो जाती है। जनसंख्या बढती जा रही है इसलिये जंगलो पर दबाव भी। बगारपाली गाँव के एक बुजुर्ग से मैने पूछा कि एक दशक पहले मै यहाँ आया था तो इतने जंगल थे कि दिन मे अन्धेरा हो जाता था। दस साल के अन्दर इतनी भयावह स्थिति कैसे हो गयी? वे बोले, यह जनता की करामत है। सबको जला दिया। हमारे गाँव के लिये अब लकडी नही बची है। जितने पेड है उनकी रक्षा हम करते है ताकि आने वाले दिनो मे लकडी मिलती रहे। पास के गाँव वालो ने अपना जंगल खत्म कर दिया है। अब वे चोरी-छिपे हमारे जंगल से लकडी ले जाते है। ऐसा ही चलता रहा तो अब लकडी के लिये खून-खराबा होगा। मै बुजुर्ग की बाते सुन रहा था। यह भी सोच रहा था कि आगे पाँच-दस सालो मे क्या होगा? इनके पास जलाउ लकडी का कोई विकल्प नही है। जंगल खत्म हो गये तो ये खाना कैसे पकायेंगे? मै तो दस साल आगे की चिंता कर रहा हूँ। पर राजनेता इससे दूर है। जब आग लगेगी तब ही वे कुँआ खोदेंगे। स्थिति बहुत ही भयावह है।

लीजिये मै अपने दम पर बिना किसी आर्थिक सहायता के देश के पारम्परिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण करता रहा और दिल्ली मे बैठे 200 से अधिक वैज्ञानिको ने देश के पारम्परिक चिकित्सकीय़ ज्ञान का एक डेटाबेस बना लिया। यह डेटाबेस यूरोप के पेटेंट कार्यालय को दे दिया है। डेटाबेस बनाने वाली सरकारी संस्था का कहना है कि अब कोई भी यूरोपीय देशो मे भारतीय ज्ञान पर आधारित पेटेंट लेगा तो यह डेटाबेस उस पेटेण्ट को वही रोक देगा। इससे देश के ज्ञान का दुरुपयोग रुकेगा। इस डेटाबेस से सम्बन्धित समाचार दुनिया भर मे छप रहे है। इन समाचारो के अनुसार इसमे दो लाख से अधिक पारम्परिक नुस्खे है और तीन करोड से अधिक पन्ने है। यह बात कुछ अटपटी लगती है। केवल दो लाख नुस्खे? जो विज्ञानी देश के समृद्ध पारम्परिक ज्ञान से परिचित है वे निश्चित ही इन नुस्खो को ज्ञान सागर मे एक बून्द के समान कहेंगे। समाचार बताते है कि इस डेटाबेस मे केवल उन नुस्खो को शामिल किया गया है जो पब्लिक डोमेन मे थे। अर्थात ग्रंथो के रुप मे प्रकाशित थे। तभी इतने कम नुस्खे है इसमे। जितना ज्ञान हमारे पारम्परिक चिकित्सको के पास अलिखित रुप मे है, उसकी तुलना मे पुस्तक मे प्रकाशित ज्ञान न के बराबर है और ऐसा लगता है कि डेटाबेस बनाने वाले इस अल्प ज्ञान को ही दुनिया मान बैठे है। इस समाचार मे यह नही लिखा है कि इस कार्य मे कितने पैसे खर्च हुये? निश्चित ही करोडो हुये होंगे। बडे लोगो की बडी बात। मै तो अपने डेटाबेस की बात कर सकता हूँ जिसमे दो लाख से अधिक ऐसे नुस्खे है जिनका वर्णन भारतीय ग्रंथो मे नही है। इनमे 35,000 से अधिक नुस्खे तो केवल कैंसर के है। डेटाबेस का वर्तमान आकार 1000 जीबी है या कहे 1 टीबी। और ये दिनोदिन बढ रहा है। यह निज डेटाबेस उस सरकारी डेटाबेस से कई गुना बडा है। समाचार मे यह भी कहा गया है कि इसे आम लोग नही देख पायेंगे। क्या आम भारतीय भी नही? यदि इसका जवाब हाँ है तो यह ठीक नही है। देश का पारम्परिक चिकित्सकीय़ ज्ञान आम भारतीयो का ज्ञान भी है। यूरोप को देने से पहले इसे भारतीयो के लिये उपलब्ध कराया जाना चाहिये ताकि भारतीय इसके उपयोग से रोगो से मुक्त हो सके। समाचार के अनुसार इस डेटाबेस को अमेरिकी पेटेण्ट कार्यालय को भी दिया जाना है। भले ही इससे हमारे वैज्ञानिक देश के पारम्परिक ज्ञान की रक्षा की बात कर रहे हो पर मुझे तो लन्दन के एक जाने-माने वनस्पति विशेषज्ञ का व्याख्यान याद आता है। वे कहते है कि नया नुस्खा बनाने वालो को आधारभूत नुस्खा चाहिये होता। इसे पाते ही वे ऐसा परिवर्तन करते है आधारभूत नुस्खा गायब हो जाता है। जैसे मान लीजिये तुलसी और गुड का कोई आधारभूत नुस्खा है। दवा कम्पनियाँ इनमे से तुलसी से रासायनिक तत्व निकालेंगी और उनके प्रयोग का दावा पेश करेंगी। अव आधारभूत नुस्खे मे तो ताजी पत्तियो का प्रयोग बताया गया है। रसायन का नामोनिशान नही है। फिर गुड की जगह स्टीविया डाल दिया जायेगा। हो सकता है भारतीय़ स्टीविया डाल दिया जाये। इस तरह आधारभूत नुस्खे के आधार पर नया नुस्खा आ जाता है और उसका आसानी से पेटेंट हो जाता है। सरकारी डेटाबेस यदि गलत हाथो मे पहुँच गया तो दवा कम्पनियो को पका पकाया (रेडीमेड) माल मिल जायेगा। तब ज्ञान भारतीयो का रहेगा, मेहनत भी हमारी रहेगी पर पीढीयो तक सक्षम विदेशी दवा कम्पनियाँ मजा करती रहेंगी। ऐसा होने की उम्मीद ज्यादा दिखती है।

मैने इस लेखमाला मे वन्य प्राणियो के अंगो से जुडे अन्ध-विश्वास पर खुलकर लिखा है। परसो सिरपुर के मेले मे साही (Hystrix indica) के सभी अंगो को खुलेआम बिकता देख मै सकते मे आ गया। सभी अंगो को तांत्रिक शक्तियो के लिये बेचे जा रहे थे। ऊँचे दामो पर। उडीसा से आये तांत्रिको के पास और भी दुर्लभ वन्य प्राणियो के अंग थे। पता नही देश मे वन्य प्राणी संरक्षण की दुहायी देने वाले कहाँ सो रहे है? (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित

Comments

लगता है सरकारे आखे मूंदे बैठी है।जंगलो की कटाई अब आम होती जा रही है। पता नही कोई ध्यान क्यों नही दे रहा।चिंता का विषय है। बहुत ही उपयोगी जानकारीयां मिल रही हैं आपके इस लेख माला से।धन्यवाद।
पंकज जी, आप का हर लेख हमेशा चौंकाता भी है और अनेक अनुमानों की पुष्टि भी करता है। आप से न मिल पाना मेरी बहुत बड़ी हानि है। देखते हैं कब मिल पाना होता है?

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