अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -94
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -94 - पंकज अवधिया
आस्ट्रेलिया मे हाल ही लगी जंगली आग की खबर ने मुझे परेशान कर दिया। मेरे बहुत से वैज्ञानिक मित्र वहाँ पर है। समाचार पत्रो के अनुसार 200 से अधिक लोग इस आग के शिकार हो चुके है। अभी भी कई जगहो पर आग फैली हुयी है। मैने अपने एक मित्र राड को सन्देश भेजा और हाल-चाल जानना चाहा। मैने सन्देश मे लिखा कि मै आस्ट्रेलिया की वनस्पतियो के बारे मे ज्यादा नही जानता पर यदि प्रभावित क्षेत्र मे जाना हो तो गौर से देखना कि माँसल पौधो पर आग का क्या असर हुआ है? मुझे लगता है कि जिन क्षेत्रो मे माँसल (succulent) वनस्पतियाँ रही होगी वहाँ आग से नुकसान अपेक्षाकृत कम हुआ होगा। राड का जवाब आ गया। उन्होने बताया कि वे पश्चिमी आस्ट्रेलिया मे है, आग से 3500 किमी दूर। भले ही आग ने उन्हे प्रभावित नही किया हो पर यह पूरे आस्ट्रेलिया के लिये एक सबक है। माँसल वनस्पतियो और आग की विभीषिका उनके शब्दो मे पढे “As for succulents, Australia has very few native succulents, certainly no native Cactaceae. Most of the Flora is to some extent fire adapted but certainly not for fires of the magnitude being experienced now where everything is burnt to the ground even huge hardwood trees, just nothing left but ash even the houses burnt have been reduced to piles less than 30cm.
Most of the fires are in native bushland and so far over 500,000 Ha has
been affected and hundreds of communities.” यानि आस्ट्रेलिया मे केक्टस की तरह माँसल पौधे नही के बराबर है। यहाँ के पौधे हर साल लगने वाली इस आग से सबक सीख कर उसके अनुकूल हो गये है पर इस बार आग इतनी तीव्र थी कि बडे पेड और लोगो के घर जल गये और 30 सेमी ऊँची राख के ढेर मे बदल गये। यह सब दुखी करने वाला है पर यह जानकर तसल्ली हुयी कि राड कुशल है।
मैने अपने जीवन मे जंगल की आग को फैलते कई बार देखा है। गर्मी के मौसम मे वनोपज संग्रहकर्ता सुविधा के लिये जंगल की जमीन पर आग लगा देते है ताकि सूखी पत्तियाँ जल जाये और जगह साफ हो जाये। जगह साफ होने से गिरे हुये फल-फूल का एकत्रण आसान हो जाता है। आग लगा दी जाती है पर इसे बुझाया नही जाता। पलक झपकते ही इसका फैलाव बढ जाता है और पूरा जंगल चपेट मे आ जाता है। असंख्य वनस्प्तियाँ नष्ट हो जाती है और वन्य-प्राणियो को जान से हाथ धोना पडता है। जंगल विभाग कई तरह के उपाय अपनाता है। गाँव स्तर पर समितियाँ बनायी जाती है। आग पर नजर रखने वाले रक्षक तैनात किये जाते है। ये रक्षक सूखी पत्तियो को नियंत्रित दशा मे जलाकर आग लगने की सम्भावना को खत्म कर देते है। आग को फैलने से रोकने के लिये इन्हे प्रशिक्षित किया जाता है। आग प्राकृतिक कारणो से भी लगती है। बहुत बार जंगल विभाग के लालची कर्मचारियो को भी इसके लिये दोषी ठहराया जाता है।
मुझे याद आता है गर्मियो की एक रात हम जीप से अमरकंटक मार्ग पर थे। घाटी मे चढाई जारी थी। अचानक ही ऊपर लगी भीषण आग हमे दिखायी दी। हम सावधानीपूर्वक ऊपर बढते गये। हमारे साथ चल रहे लोगो ने कहा कि इस क्षेत्र के जंगल अधिकारी के सिर पर बन आयी होगी। उसकी तो रात मुश्किल से कटेगी। अचानक हमारी जीप के सामने से कुछ जानवर भागे। आग से डरकर वे बदहवास भाग रहे थे। रात के एक बजे थे। हमे तो आग बुझाता कोई नही दिखा। आस्ट्रेलिया के पास तो सैकडो फायर फायटर है। वे विशेष रुप से प्रशिक्षित है। फिर हेलीकाप्टर से भी आग बुझाने वाले रसायनो का छिडकाव किया जाता है। ऐसा विदेशो मे ही होता है। हमारे देश मे तो ऐसे फायर फायटर है नही और ऐसा प्रशिक्षित समूह बनाने की योजना भी नही है। अमरकंटक का जंगल धू-धू कर जलता रहा। एक पहाडी गाँव मे हम रुके तो सन्नाटा पसरा हुआ था। आग दूर थी।शौच के लिये उठे एक व्यक्ति से हमने कुछ पूछ्ना चाहा तो उसने कहा कि हर साल ऐसी आग लगती है। कोई खास बात नही है।
हमने आग की तस्वीरे लेनी चाही पर प्रकाश की समुचित व्यवस्था न होने के कारण हमारे कैमरो ने अच्छी तस्वीरे नही ली। कुछ दूर चलने पर अचानक ही कुछ लोग आग की दिशा मे बढते नजर आये। हमने सोचा कि ये जंगल विभाग के रक्षक होंगे पर उनके हाथो मे औजार देखकर यह समझने मे देर नही लगी कि ये शिकारी है और जानवरो की बेबसी का लाभ उठाने यहाँ आये है। हमे देखकर वे चौके। हमने अंजान बनते हुये उनसे बात करने की कोशिश की। ड्रायवर ने बीडीयाँ सुलगायी तो वे खुल गये। पता चला कि वे शिकारी कम तांत्रिक (ज्यादा) थे। जंगल की आग मे खतरा उठाते हुये रात को जानवरो का शिकार करने के उनके विशेष कारण थे। उनका दावा था कि आग लगने पर कुछ जानवर विचित्र व्यव्हार करते है। ऐसे जानवरो पर तांत्रिको की नजर होती है। उन्हे ही वे मारने की कोशिश करते है। आपने इस लेखमाला मे पहले पढा है कि कैसे बन्दर की खोपडी की साधना करने वाले तांत्रिक डाल से अपने आप गिरने वाले बन्दर को ही चुनते है? इसी तरह गोरोचन वाली गाय की पहचान उसकी विशेष हरकतो से की जाती है। आमतौर पर गाये किनारे पर खडे होकर पानी पीती है। वे पानी के अन्दर नही जाती है। पर तांत्रिक दावा करते है कि गोरोचन वाली गाय तालाब मे प्रवेश करके पानी पीती है और उसका पेट पानी मे डूबा रहता है। गाय वाली बात को अन्ध-विश्वास मानते हुये मैने ग्रामीणो से इस बारे मे पूछा। गाय को ध्यान से देखा। चरवाहो ने इस बात की पुष्टि की। पर बिना देखे कहाँ विश्वास होता है? हाल ही मे जंगल के एक सरोवर मे गायो के झुंड को चरवाहे पानी पिला रहे थे। मै आस-पास के पहाडॉ की तस्वीरे ले रहा था। अचानक ही एक ऐसी गाय पर नजर पडी जो भीड से हटकर थी और बीच मे पानी मे डूबकर पानी पी रही थी। मैने तस्वीर उतारी और विडीयो भी लिया। चरवाहो ने इसे विशेष गाय की संज्ञा दी। पर यह निश्चित नही हो पाया कि यह गोरोचन से युक्त है या नही। गोरोचन का तांत्रिक महत्व तो है पर मेरी रुचि इसके औषधीय महत्व पर रही है। मैने इससे सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय़ ज्ञान का दस्तावेजीकरण किया है। अपस्मार की चिकित्सा मे पारम्परिक चिकित्सक इसका प्रयोग सफलतापूर्वक करते है। मैने सन्दर्भ ग्रंथ खंगाल डाले पर न प्राचीन और न ही आधुनिक ग्रंथो मे गाय के इस विशेष व्यवहार का कारण मिला। बन्दर और गाय की तरह ही तांत्रिक बहुत से वन्य-प्राणियो के विचित्र व्यवहार की जानकारी रखते है। मै तांत्रिको के साथ रहा और उन्हे पूरा सुना इसलिये यह सब जान पाया और फिर इस सब का वैज्ञानिक विश्लेषण कर पाया। कुछ सालो की शिक्षा के बाद मै भी साहब बनकर इन्हे और इनके अनुभव को सिरे से नकार कर उन्हे अन्ध-विश्वासी कह देता तो यह सब शायद ही जान पाता। चलिये अब आग पर लौटे।
तांत्रिको की मंशा सुनकर मन हुआ कि डपट कर उन्हे वहाँ से भगा दिया जाये। यह भी उत्सुकता हुयी कि उनके इस शिकार को देखे। साथ चल रहे लोगो ने आगे बढने की सलाह दी क्योकि तांत्रिक नशे मे धुत थे और घातक हथियारो से लैस भी। हम आगे बढ गये। कुछ दिनो बाद हम फिर वहाँ से गुजरे तो हमे एक बडा इलाका साफ मिला। चारो ओर आग से हुयी तबाही का मंजर था। हमने वापस आकर सारे प्रमुख अखबार देखे पर यह समाचार किसी मे नही था। पत्रकार मित्रो ने बताया कि ऐसे समाचार कभी छपते ही नही। अखबार शहरो की चिंता करते है। एक सोने की चैन की लूट होने पर नगर बन्द की नौबत आ जाती है पर करोडो का वनस्पतियाँ जल जाने की खबर अखबारो मे जगह नही पाती। किसी की जिम्मेदारी तय नही होती और अगले साल आग को इस तरह अनदेखा करने का लाइसेंस अधिकारियो को मिल जाता है। मैने इस घटना पर आधारित बहुत से लेख लिखे। ऐसी सभाओ मे इस मुद्दे को उठाया जहाँ जिम्मेदार योजनाकार उपस्थित थे पर उनके कानो मे जूँ तक नही रेंगी।
ऐसी आग पारम्परिक चिकित्सको को बहुत मायूस कर देती है। आपने पहले पढा है कि कैसे वे वनस्पतियो को पीढीयो तक सहजते रहते है और पारम्परिक विधियो से औषधीय गुण सम्पन्न बनाते रहते है। एक ही आग से उनकी पीढीयो की मेहनत मिट्टी मे मिल जाती है। पिछले साल पारम्परिक चिकित्सक ऐसे ही एक स्थान पर आग बुझने पर ले कर गये। एक जला हुआ पुराना पेड दिखाते हुये बोले कि इस पेड ने कैसर के सैकडो रोगियो को राहत पहुँचायी है। इस तरह का एक ही पेड इस इलाके मे था। मेरे परदादा ने इसे दादा को और दादा ने मेरे पिता को सौपा था। मै इसे अपने बेटे को सौपने की तैयारी मे था। अब मेरे रोगियो का क्या होगा? पारम्परिक चिकित्सक चिंतित भी थे और दुखी भी। एक आग ने सब बरबाद कर दिया। मैने जंगल विभाग के एक अधिकारी को यह सब बताया तो सिगरेट का धुँआ छोडते हुये वे बोले, सब बकवास है। ऐसे हम एक-एक पेड बचाते रहे तो सारी जिन्दगी इसमे ही खप जायेगी। बी प्रेक्टिकल। व्यव्हारिक बनो। ऐसी बाते करने वालो से दूर रहो। अधिकारी का जवाब सुनने के बाद मैने उनसे दूर रहना ही उचित समझा। शायद सारा ही देश ऐसे गैर-जिम्मेदार लोगो के हाथ मे है।
बहुत साल पहले नेपाल से आये एक वैज्ञानिक ने बताया था कि उनके दादा वन विभाग के ठेकेदार थे अंग्रेजो के समय। हिमालय की तराई मे उन्होने बहुत से ऐसे पेडो के बारे मे सुना था जिन पर आग का असर नही होता या कम होता है। उस वैज्ञानिक की बात से प्रेरित होकर मैने भी अपने अनुभवो से ऐसे पेडो की सूची तैयार की । मुझे लगता है भारत, आस्ट्रेलिया और दुनिया के उन देशो मे जहाँ एक ही स्थान पर बार-बार आग लगती है ऐसी वनस्पतियो की कतारे लगाकर आग के फैलाव को मानव आबादी से दूर रखा जा सकता है। हो सकता है कि अभी यह विचार छोटा लगे पर मुझे लगता है कि ऐसे ही प्रयास सही मायने मे लोगो को जंगल की आग से राहत दिलवा पायेंगे। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
आस्ट्रेलिया मे हाल ही लगी जंगली आग की खबर ने मुझे परेशान कर दिया। मेरे बहुत से वैज्ञानिक मित्र वहाँ पर है। समाचार पत्रो के अनुसार 200 से अधिक लोग इस आग के शिकार हो चुके है। अभी भी कई जगहो पर आग फैली हुयी है। मैने अपने एक मित्र राड को सन्देश भेजा और हाल-चाल जानना चाहा। मैने सन्देश मे लिखा कि मै आस्ट्रेलिया की वनस्पतियो के बारे मे ज्यादा नही जानता पर यदि प्रभावित क्षेत्र मे जाना हो तो गौर से देखना कि माँसल पौधो पर आग का क्या असर हुआ है? मुझे लगता है कि जिन क्षेत्रो मे माँसल (succulent) वनस्पतियाँ रही होगी वहाँ आग से नुकसान अपेक्षाकृत कम हुआ होगा। राड का जवाब आ गया। उन्होने बताया कि वे पश्चिमी आस्ट्रेलिया मे है, आग से 3500 किमी दूर। भले ही आग ने उन्हे प्रभावित नही किया हो पर यह पूरे आस्ट्रेलिया के लिये एक सबक है। माँसल वनस्पतियो और आग की विभीषिका उनके शब्दो मे पढे “As for succulents, Australia has very few native succulents, certainly no native Cactaceae. Most of the Flora is to some extent fire adapted but certainly not for fires of the magnitude being experienced now where everything is burnt to the ground even huge hardwood trees, just nothing left but ash even the houses burnt have been reduced to piles less than 30cm.
Most of the fires are in native bushland and so far over 500,000 Ha has
been affected and hundreds of communities.” यानि आस्ट्रेलिया मे केक्टस की तरह माँसल पौधे नही के बराबर है। यहाँ के पौधे हर साल लगने वाली इस आग से सबक सीख कर उसके अनुकूल हो गये है पर इस बार आग इतनी तीव्र थी कि बडे पेड और लोगो के घर जल गये और 30 सेमी ऊँची राख के ढेर मे बदल गये। यह सब दुखी करने वाला है पर यह जानकर तसल्ली हुयी कि राड कुशल है।
मैने अपने जीवन मे जंगल की आग को फैलते कई बार देखा है। गर्मी के मौसम मे वनोपज संग्रहकर्ता सुविधा के लिये जंगल की जमीन पर आग लगा देते है ताकि सूखी पत्तियाँ जल जाये और जगह साफ हो जाये। जगह साफ होने से गिरे हुये फल-फूल का एकत्रण आसान हो जाता है। आग लगा दी जाती है पर इसे बुझाया नही जाता। पलक झपकते ही इसका फैलाव बढ जाता है और पूरा जंगल चपेट मे आ जाता है। असंख्य वनस्प्तियाँ नष्ट हो जाती है और वन्य-प्राणियो को जान से हाथ धोना पडता है। जंगल विभाग कई तरह के उपाय अपनाता है। गाँव स्तर पर समितियाँ बनायी जाती है। आग पर नजर रखने वाले रक्षक तैनात किये जाते है। ये रक्षक सूखी पत्तियो को नियंत्रित दशा मे जलाकर आग लगने की सम्भावना को खत्म कर देते है। आग को फैलने से रोकने के लिये इन्हे प्रशिक्षित किया जाता है। आग प्राकृतिक कारणो से भी लगती है। बहुत बार जंगल विभाग के लालची कर्मचारियो को भी इसके लिये दोषी ठहराया जाता है।
मुझे याद आता है गर्मियो की एक रात हम जीप से अमरकंटक मार्ग पर थे। घाटी मे चढाई जारी थी। अचानक ही ऊपर लगी भीषण आग हमे दिखायी दी। हम सावधानीपूर्वक ऊपर बढते गये। हमारे साथ चल रहे लोगो ने कहा कि इस क्षेत्र के जंगल अधिकारी के सिर पर बन आयी होगी। उसकी तो रात मुश्किल से कटेगी। अचानक हमारी जीप के सामने से कुछ जानवर भागे। आग से डरकर वे बदहवास भाग रहे थे। रात के एक बजे थे। हमे तो आग बुझाता कोई नही दिखा। आस्ट्रेलिया के पास तो सैकडो फायर फायटर है। वे विशेष रुप से प्रशिक्षित है। फिर हेलीकाप्टर से भी आग बुझाने वाले रसायनो का छिडकाव किया जाता है। ऐसा विदेशो मे ही होता है। हमारे देश मे तो ऐसे फायर फायटर है नही और ऐसा प्रशिक्षित समूह बनाने की योजना भी नही है। अमरकंटक का जंगल धू-धू कर जलता रहा। एक पहाडी गाँव मे हम रुके तो सन्नाटा पसरा हुआ था। आग दूर थी।शौच के लिये उठे एक व्यक्ति से हमने कुछ पूछ्ना चाहा तो उसने कहा कि हर साल ऐसी आग लगती है। कोई खास बात नही है।
हमने आग की तस्वीरे लेनी चाही पर प्रकाश की समुचित व्यवस्था न होने के कारण हमारे कैमरो ने अच्छी तस्वीरे नही ली। कुछ दूर चलने पर अचानक ही कुछ लोग आग की दिशा मे बढते नजर आये। हमने सोचा कि ये जंगल विभाग के रक्षक होंगे पर उनके हाथो मे औजार देखकर यह समझने मे देर नही लगी कि ये शिकारी है और जानवरो की बेबसी का लाभ उठाने यहाँ आये है। हमे देखकर वे चौके। हमने अंजान बनते हुये उनसे बात करने की कोशिश की। ड्रायवर ने बीडीयाँ सुलगायी तो वे खुल गये। पता चला कि वे शिकारी कम तांत्रिक (ज्यादा) थे। जंगल की आग मे खतरा उठाते हुये रात को जानवरो का शिकार करने के उनके विशेष कारण थे। उनका दावा था कि आग लगने पर कुछ जानवर विचित्र व्यव्हार करते है। ऐसे जानवरो पर तांत्रिको की नजर होती है। उन्हे ही वे मारने की कोशिश करते है। आपने इस लेखमाला मे पहले पढा है कि कैसे बन्दर की खोपडी की साधना करने वाले तांत्रिक डाल से अपने आप गिरने वाले बन्दर को ही चुनते है? इसी तरह गोरोचन वाली गाय की पहचान उसकी विशेष हरकतो से की जाती है। आमतौर पर गाये किनारे पर खडे होकर पानी पीती है। वे पानी के अन्दर नही जाती है। पर तांत्रिक दावा करते है कि गोरोचन वाली गाय तालाब मे प्रवेश करके पानी पीती है और उसका पेट पानी मे डूबा रहता है। गाय वाली बात को अन्ध-विश्वास मानते हुये मैने ग्रामीणो से इस बारे मे पूछा। गाय को ध्यान से देखा। चरवाहो ने इस बात की पुष्टि की। पर बिना देखे कहाँ विश्वास होता है? हाल ही मे जंगल के एक सरोवर मे गायो के झुंड को चरवाहे पानी पिला रहे थे। मै आस-पास के पहाडॉ की तस्वीरे ले रहा था। अचानक ही एक ऐसी गाय पर नजर पडी जो भीड से हटकर थी और बीच मे पानी मे डूबकर पानी पी रही थी। मैने तस्वीर उतारी और विडीयो भी लिया। चरवाहो ने इसे विशेष गाय की संज्ञा दी। पर यह निश्चित नही हो पाया कि यह गोरोचन से युक्त है या नही। गोरोचन का तांत्रिक महत्व तो है पर मेरी रुचि इसके औषधीय महत्व पर रही है। मैने इससे सम्बन्धित पारम्परिक चिकित्सकीय़ ज्ञान का दस्तावेजीकरण किया है। अपस्मार की चिकित्सा मे पारम्परिक चिकित्सक इसका प्रयोग सफलतापूर्वक करते है। मैने सन्दर्भ ग्रंथ खंगाल डाले पर न प्राचीन और न ही आधुनिक ग्रंथो मे गाय के इस विशेष व्यवहार का कारण मिला। बन्दर और गाय की तरह ही तांत्रिक बहुत से वन्य-प्राणियो के विचित्र व्यवहार की जानकारी रखते है। मै तांत्रिको के साथ रहा और उन्हे पूरा सुना इसलिये यह सब जान पाया और फिर इस सब का वैज्ञानिक विश्लेषण कर पाया। कुछ सालो की शिक्षा के बाद मै भी साहब बनकर इन्हे और इनके अनुभव को सिरे से नकार कर उन्हे अन्ध-विश्वासी कह देता तो यह सब शायद ही जान पाता। चलिये अब आग पर लौटे।
तांत्रिको की मंशा सुनकर मन हुआ कि डपट कर उन्हे वहाँ से भगा दिया जाये। यह भी उत्सुकता हुयी कि उनके इस शिकार को देखे। साथ चल रहे लोगो ने आगे बढने की सलाह दी क्योकि तांत्रिक नशे मे धुत थे और घातक हथियारो से लैस भी। हम आगे बढ गये। कुछ दिनो बाद हम फिर वहाँ से गुजरे तो हमे एक बडा इलाका साफ मिला। चारो ओर आग से हुयी तबाही का मंजर था। हमने वापस आकर सारे प्रमुख अखबार देखे पर यह समाचार किसी मे नही था। पत्रकार मित्रो ने बताया कि ऐसे समाचार कभी छपते ही नही। अखबार शहरो की चिंता करते है। एक सोने की चैन की लूट होने पर नगर बन्द की नौबत आ जाती है पर करोडो का वनस्पतियाँ जल जाने की खबर अखबारो मे जगह नही पाती। किसी की जिम्मेदारी तय नही होती और अगले साल आग को इस तरह अनदेखा करने का लाइसेंस अधिकारियो को मिल जाता है। मैने इस घटना पर आधारित बहुत से लेख लिखे। ऐसी सभाओ मे इस मुद्दे को उठाया जहाँ जिम्मेदार योजनाकार उपस्थित थे पर उनके कानो मे जूँ तक नही रेंगी।
ऐसी आग पारम्परिक चिकित्सको को बहुत मायूस कर देती है। आपने पहले पढा है कि कैसे वे वनस्पतियो को पीढीयो तक सहजते रहते है और पारम्परिक विधियो से औषधीय गुण सम्पन्न बनाते रहते है। एक ही आग से उनकी पीढीयो की मेहनत मिट्टी मे मिल जाती है। पिछले साल पारम्परिक चिकित्सक ऐसे ही एक स्थान पर आग बुझने पर ले कर गये। एक जला हुआ पुराना पेड दिखाते हुये बोले कि इस पेड ने कैसर के सैकडो रोगियो को राहत पहुँचायी है। इस तरह का एक ही पेड इस इलाके मे था। मेरे परदादा ने इसे दादा को और दादा ने मेरे पिता को सौपा था। मै इसे अपने बेटे को सौपने की तैयारी मे था। अब मेरे रोगियो का क्या होगा? पारम्परिक चिकित्सक चिंतित भी थे और दुखी भी। एक आग ने सब बरबाद कर दिया। मैने जंगल विभाग के एक अधिकारी को यह सब बताया तो सिगरेट का धुँआ छोडते हुये वे बोले, सब बकवास है। ऐसे हम एक-एक पेड बचाते रहे तो सारी जिन्दगी इसमे ही खप जायेगी। बी प्रेक्टिकल। व्यव्हारिक बनो। ऐसी बाते करने वालो से दूर रहो। अधिकारी का जवाब सुनने के बाद मैने उनसे दूर रहना ही उचित समझा। शायद सारा ही देश ऐसे गैर-जिम्मेदार लोगो के हाथ मे है।
बहुत साल पहले नेपाल से आये एक वैज्ञानिक ने बताया था कि उनके दादा वन विभाग के ठेकेदार थे अंग्रेजो के समय। हिमालय की तराई मे उन्होने बहुत से ऐसे पेडो के बारे मे सुना था जिन पर आग का असर नही होता या कम होता है। उस वैज्ञानिक की बात से प्रेरित होकर मैने भी अपने अनुभवो से ऐसे पेडो की सूची तैयार की । मुझे लगता है भारत, आस्ट्रेलिया और दुनिया के उन देशो मे जहाँ एक ही स्थान पर बार-बार आग लगती है ऐसी वनस्पतियो की कतारे लगाकर आग के फैलाव को मानव आबादी से दूर रखा जा सकता है। हो सकता है कि अभी यह विचार छोटा लगे पर मुझे लगता है कि ऐसे ही प्रयास सही मायने मे लोगो को जंगल की आग से राहत दिलवा पायेंगे। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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