अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -95

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -95 - पंकज अवधिया
“वर्ष 2004 मे नाइजीरिया मे चुडैलो की तलाश करने वाले ओझाओ ने जहरीला काढा पिलाकर 27 महिलाओ और पुरुषो को मार दिया। कुछ समय पहले एक बूढे व्यक्ति ने अपने बेटे की हत्या कर दी इस शक पर कि उस बेटे ने अपने तीन भाईयो को जादू से मार डाला। किसी बीमारी से उस व्यक्ति के तीन बेटे एक के बाद एक मर गये थे। पंकज जी, जो आप लिख रहे है वह केवल भारत तक ही सीमित नही है अपितु पूरे विश्व मे व्याप्त है। इसलिये अन्ध-विश्वास के साथ इस जंग को विश्वस्तर का बनाइये ताकि विभिन्न देशो के लोग मिलकर आपके स्वर को बुलन्द कर सके।“ इंटरनेट ने सचमुच दुनिया को छोटा बना दिया है। मै हिन्दी मे इस लेखमाला को लिख रहा है पर दुनिया भर से आ रहे ऐसे सन्देश इशारा करते है कि इसकी गूँज बहुत दूर तक जा रही है। यह सन्देश मुझे आफ्रीका के एक पाठक से मिला। शुद्ध हिन्दी मे लिखा यह सन्देश आत्मियता से भरा था। किसी हिन्दी प्रेमी ने अमेरिका मे इस लेखमाला को पढा और अपने विश्वविद्यालय के नोटिस बोर्ड पर इसके बारे मे जानकारी दी। वहाँ से यह जानकारी किसी छात्र के सहारे आफ्रीका पहुँच गयी। आफ्रीका के इस हिन्दी-प्रेमी ने बिना देर किये लेखमाला को पढ डाला। उनका कहना है कि अब वे अनुमति मिलने पर इस लेखमाला को दुनिया भर की भाषाओ मे प्रकाशित कर इस जंग को विश्वव्यापी करना चाहते है। उनका यह भी कहना है कि अन्ध-विश्वास से सबसे ज्यादा नुकसान महिलाओ और बच्चो का होता है। दुनिया भर मे सबसे ज्यादा मौते इनकी ही हुयी है। यदि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहल की जाये तो भारत मे एक छोटी सी घटना होने पर पूरा विश्व प्रभावित को सहारा देने के लिये तैयार हो सकता है। इसी तरह भारत दुनिया भर के देशो मे फैले अन्ध-विश्वास को समाप्त करने मे अपनी भूमिका निभा सकता है। उन्होने वीकीपीडीया की तर्ज मे एक ऐसा विश्वकोष बनाने का सुझाव दिया है जिसमे दुनिया भर के अन्ध-विश्वासो को दर्ज किया जाये और फिर इन पर वैज्ञानिक चर्चा हो। उनका दावा है कि एक ही तरह के अनगिनत अन्ध-विश्वास पूरी दुनिया मे अलग-अलग रुपो मे फैले हुये है और एक मामले का समाधान इस मंच की सहायता से दूसरे देशो मे फैले ऐसे अन्य मामलो के समाधान के लिये सहायक सिद्ध हो सकता है।

पिछले ही लेख मे मै बन्दरो पर चर्चा कर रहा था। बन्दरो की भाषा भले ही आम मनुष्य़ न समझ सके पर बहुत से वनवासी इस भाषा को समझने का दावा करते है। मुझे याद आता है कि काफी पहले मै एक ओझा से मिला था जो कि मानसिक रुप से अस्वस्थ लोगो को ठीक करने मे पारंगत माना जाता था। जब रोगी ओझा के सामने पहुँचता था तो उसे बन्दरो के पिंजरे के पास कुछ घंटो के लिये रख दिया जाता था। ओझा का दावा था कि रोग की तीव्रता के बारे मे जानकारी बन्दरो की हरकतो से हो जाती थी। इसके बाद वह दवा देता था। पर क्या सचमुच बन्दर रोग के निदान (डायग्नोसिस) मे मदद करते थे या फिर यह महज दिखावा था। उस समय तो यह मुझे महज दिखावा ही जान पडा। जैसे बहुत से ज्योतिषी अपनी प्रक्रिया को विश्वसनीय बनाने के लिये तोतो का प्रयोग करते है। पर वास्तव मे इसमे तोतो की कोई भूमिका नही होती है। जंगलो मे पारम्परिक चिकित्सको के साथ जब भी जाना होता है वे बन्दरो को खोजते रहते है। इनसे उनकी धार्मिक आस्था तो जुडी ही है। साथ ही वे बन्दरो के अनुभवो का लाभ भी उठाते है। कौन से जंगली फल खाने योग्य नही है और कौन से नही, यह पता करने मे बन्दरो को अनजाने ही सहायता करते मैने कई बार देखा है। ऊँचे पेडो पर बन्दर हो और आप नीचे से गुजर रहे हो तो वे आप पर नजर रखते है। उनका ध्यान और खीचने के लिये आप लंगडा कर या उछल-उछल कर चले। बन्दरो की ओर न देखे। बस ऐसी चाले चलते रहे। थोडे ही समय मे पूरा झुंड आप पर नजर गडा लेगा। फिर आप झाडियो मे जाकर जंगली फलो को तोडे और मुँह तक लाये। बस इस प्रक्रिया मे ही उनके चेहरे के हाव-भाव बदलने लगते है। यदि फल मीठे होंगे तो उनकी उत्सुकता बढ जायेगी। यदि आपने धतूरा तोड लिया और खाने का प्रपंच करने लगे तो दल मे खलबली मच जायेगी। एक न एक बन्दर उछलेगा और अजीब आवाजे निकालेगा। मैने तो इससे आगे कुछ नही किया पर बहुत से पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि जहरीला फल खाकर बेहोश हो जाने का नाटक करने पर बन्दर उस जहर की काट वाली वनस्पतियो की ओर इशारा करते है। इसके लिये बहुत धैर्य की जरुरत पडती है। और यह एक दुर्लभ घटना है। पर यदि एक बार भी यह उपाय कारगर रहा तो बहुत ही उपयोगी जानकारी मिलती है। मैने पारम्परिक चिकित्सको द्वारा एकत्र की गयी ऐसी दुर्लभ जानकारियो का दस्तावेजीकरण किया है। इनमे से बहुत सी जानकारियो की वैज्ञानिक व्याख्या अभी शेष है। इस तरह की जानकारियाँ यह अहसास कराती है कि माँ प्रकृति ने इस धरती के सभी जीवो को एक-दूसरे का पूरक बनाया। यदि मनुष्य़ सोचे कि धरती पर उसका एकाधिकार हो जाये क्योकि वह सर्वश्रेष्ठ है, तो यह उसकी भूल है। जिस दिन वह इस धरती पर अकेला होगा वह दिन उसके जीवन का अंतिम दिन होगा।

दक्षिण आफ्रीका से पधारे एक वैज्ञानिक मित्र ने वन्य-प्राणियो पर लिखे मेरे शोध लेख पढे तो उन्होने कहा कि हमारे यहाँ तो बबून की भाषा कोई नही समझ पाता। मैने पूछा, ऐसा क्यो? उनका जवाब था कि वे अभिशप्त है। और फिर उन्होने एक आफ्रीकी लोक कथा सुनायी। इस कथा के अनुसार पहले बबून बोल सकते थे। एक ओझा ने अपने बेटे को धनुष बनाने के लिये जंगल की झाडियो से पतली डंडियाँ एकत्र करने भेजा तो बबूनो ने उसे घेर लिया। बालक को घेर कर गाने लगे, चिल्लाने लगे कि तुम्हारा पिता अपने आप को बुद्धिमान समझता है। धनुष बनाकार हम सब को मारना चाहता है। हम ऐसा नही होने देंगे। फिर बबूनो ने बालक को मारा और पेड की ऊँची डाल से बाँध दिया। उधर दूर गाँव मे ओझा ने अपनी पत्नी से बेटे के बारे मे पूछा। देर होने पर उसने जादुई मंत्रो का जाप किया तो उसे पेड मे लटके बेटे का चित्र दिख गया। वह उसी पल जंगल की ओर चल पडा। बबून अभी भी मस्ती मे गा रहे थे कि तुम्हारा पिता अपने आप को बुद्धिमान समझता है। धनुष बनाकार हम सब को मारना चाहता है। हम ऐसा नही होने देंगे। ओझा को आते देखकर वे सब सहम गये। पर ओझा ने कहा कि तुम सब ऐसे ही गाते रहो। फिर वह जगलो से नुकीले काँटे तोड लाया। बबून अभी भी मस्ती मे नाच रहे थे। धूल का गुबार उठ रहा था। ओझा ने इसका लाभ उठाया और उनके पिछवाडे मे काँटा गडा दिया। चुभन महसूस होते ही वे गाना भूल गये और अजीब सी आवाज निकालते हुये जंगल मे भाग गये। उसके बाद आज तक किसी को यह समझ नही आया कि बबून आखिर क्या बडबडाते रहते है? ओझा ने जादू से बेटे को फिर से जिन्दा कर दिया।

मै अपनी जंगल यात्रा मे जब रात को यह कहानी सुनाता हूँ तो वनवासी साथी खूब आनन्द लेते है। उन्हे यह कथा अपनी लगती है। वे इसे आफ्रीकी नही मानते है। जो पात्र इस कथा मे है वे हमारे आस-पास भी है। ओझा के पास जादुई शक्ति है और बन्दर की बोली यहाँ भी अबूझ पहेली है। वे “बेन्दरा लाठी” अर्थात बन्दर की लाठी नामक कथा सुनाते है। वह भी इससे ही मिलती-जुलती है। यहाँ ओझा ने धनबहेर (अमलतास) के पेडो मे फल्लियाँ लगने का इंतजार किया फिर इन फल्लियो की सहायता से बन्दरो को सबक सीखाया। आज भी बहुत से भागो मे अमलतास की फल्लियो को बेन्दरा लाठी कहा जाता है। इन कथाओ की समानता मुझे उस आफ्रीकी पाठक के सुझावो की याद दिलाती है जिसके बारे मे मैने ऊपर चर्चा की है। विश्व स्तर पर अन्ध-विश्वास के खिलाफ जंग का सुझाव मुझमे एक नया जोश भर रहा है। मुझे अब जल्दी ही इस दिशा मे पहला कदम बढाना होगा। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित




Updated Information and Links on March 10, 2012

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Comments

Udan Tashtari said…
इस श्रृंखला को मैने भी काफी हद तक पढ़ा है और समय समय पर अपनी पसंद भी जाहिर करता आया हूँ. निश्चित ही आपको इसका अनुवाद करवा कर विश्वस्तर पर ले जाना चाहिये ताकि अधिकाधिक लोग इन अनुभवों का फायदा उठा सकें.

बन्दरों द्वारा मार्गदर्शन का अनुभव रोचक तो है ही साथ ही लॉजिकल भी लगता है.

मेरी शुभकामनाऐं कि आपका यह मिशन सफल रहे और आपके अनुभवों का लाभ विश्वस्तर पर गैर हिन्दी भाषियों को भी मिले.
भारत दुनिया भर के देशो मे फैले अन्ध-विश्वास को समाप्त करने मे अपनी भूमिका निभा सकता है।

आप वाकई सही कहते हैं। इस तरह शायद भारत का सम्मान वापस लौटे।
वानरों के अनुभव का इस से सुन्दर उपयोग हो नहीं सकता।

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