अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -96
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -96 - पंकज अवधिया
“आजकल शहरो से किस तरह के रोगी ज्यादा आते है?” मैने एक पारम्परिक चिकित्सक से पूछा जिनके पास रोज सैकडो लोग आते है दूर-दूर से। “गैस से होने वाली नाना प्रकार की तकलीफ से प्रभावित रोगी” उन्होने जवाब दिया। “यह सब आधुनिक जीवनशैली के कारण है ना? क्या आपकी औषधियाँ मुक्ति दिलवा देती है इस समस्या से?” उन्होने राज खोला कि हम औषधियाँ देते है पर ज्यादातर मामलो मे खान-पान बदलने से ही सब ठीक हो जाता है। “खान-पान माने तला-भुंजा मसालेदार भोजन मना करते होंगे?” इस पर पारम्परिक चिकित्सक ने जो कहा वो आँखे खोलने वाला था। वे तले-भुंजे से ज्यादा जहरीले रसायनयुक्त भोजन से परहेज की बात कर रहे थे। “ मै अपने खेत मे उगाया हुआ चावल, दाल और सब्जी दे देता हूँ और एक हफ्ते इसी को खाने कहकर उन्हे वापस भेज देता हूँ। साथ मे झूठ-मूठ की पुडियाँ दे देता हूँ। एक हफ्ते बाद वे ठीक होकर आ जाते है। तब मै राज खोलता हूँ कि पुडियाँ मे कुछ नही था। यह तो जैविक विधि अर्थात बिना रासायनिक खाद और दवा से उगायी हुयी सब्जियो और चावल-दाल का असर है। उनसे कहता हूँ कि इन्हे आजमाओ और फिर इस समस्या को भूल जाओ। जहरीले भोजन को खाओगे तो रोज धीरे-धीरे मौत की ओर बढोगे। कुछ लोग मेरी बात मानते है पर ज्यादातर लोग कहते है कि आप तो दवा दे दो। अब शहर मे जहर मुक्त खाना कहाँ मिलेगा? वे भी बेचारे क्या करे। शहर मे तो उगा नही सकते और रोज गाँव नही आ सकते।“ पारम्परिक चिकित्सक ने जो कहा वह कमोबेश पूरे देश के महानगरो पर फिट बैठता है।
छत्तीसगढ मे सरना नामक धान की किस्म बडे पैमाने पर बोई जाती है। किसान कहते है कि मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियो मे भी यह किस्म कुछ न कुछ दे जाती है। कृषि की पढाई के दौरान हमे बताया जाता था कि किसानो को इस किस्म को लगाने की बजाय नयी उन्नत किस्मो को लगाने की सलाह देनी चाहिये। राज्य मे अन्य किस्मो की तरह इसकी खेती भी रासायनिक खेती के रुप मे होती है। रसायनो का अन्धाधुन्ध प्रयोग होता है। जिस साल सबसे तेज रासायनो से कीडे नही मरते उस साल किसान स्वयम नये प्रयोग करते है और कई तरह के रसायनो को मिलाकर डालते है। इससे कीडे तो कम हो जाते है पर चावल विषयुक्त हो जाता है। “सरना मतलब मरना” ये बात राज्य के बहुत से पारम्परिक चिकित्सक कहते है। वे इस किस्म की बुराई नही करते बल्कि इसकी खेती मे रसायनो के बढ रहे प्रयोग के बारे मे ऐसा कहते है। श्वेतकुष्ठ से लेकर नाना प्रकार कैसर अब नये रुपो मे दिखायी पड रहे है। पहले ये शहरी बीमारियाँ कहलाती थी। पहले किसान बेचने के लिये उगाये जा रहे धान मे रसायनो का प्रयोग करते थे और अपने प्रयोग के लिये उगाये गये धान मे कितने भी कीडे लग जाये इसकी परवाह नही करते थे। वे रसायनमुक्त चावल का उपयोग अपने और परिवार के लिये करते थे। पर नयी पीढी मे रसायनो के प्रति ऐसा अन्ध-विश्वास जागा कि अब सभी धानो मे जम कर रसायनो का प्रयोग होता है। इसके कारण गाँव भी रोगो के घर बनने लगे है। यह अजीब सा मंजर लगता है कि गाँव के रोगी शहर का रुख कर रहे है और शहर के रोगी गाँव का। यहाँ रायपुर मे तो रोगी के बस से उतरते ही एजेंट उन्हे पहचान लेते है और फिर प्रलोभन शुरु होता है एक से बढकर एक महंगे अस्पतालो का। यह पूरी प्रक्रिया तो आपको जानी –पहचानी लगेगी पर इसमे कृषि रसायनो की अहम भूमिका को हम नजरान्दाज कर देते है। कृषि रसायन बेचने वाली कम्पनियाँ जमकर मेहनत कर रही है। कृषि रसायन प्रयोग करने वाले किसानो को पुरुस्कृत किया जा रहा है। विक्रेताओ को दुनिया भर की सैर करायी जा रही है। उनके घर महंगे उपहार पहुँचाये जा रहे है। जैविक खेती के प्रशंसको का माखौल उडाया जा रहा है। भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान दिखावे के लिये जैविक खेती की बात कर रहा है पर उसके आस्तिन मे कृषि रसायन बनाने वाली कम्पनियाँ मजे से रह रही है। महंगे विज्ञान सम्मेलनो के प्रायोजक ये ही लोग होते है। वेलेंटाइन डे पर मोर्चा निकालने वाले कभी इस मूल मुद्दे पर भी तो सोचे। दम है तो इन कम्पनियो और उन्हे शरण देने वाले विशेषज्ञो के खिलाफ आवाज बुलन्द करे। इस मौत के बाजार पर अंकुश लगाये ताकि आम भारतीयो को दो वक्त का शुद्ध खाना तो मिल सके।
“शहरो मे भी शुद्ध सब्जियाँ मिल सकती है। इसके लिये हम लोगो ने अनूठा प्रयोग किया। हमारी कालोनी के बीच मे एक सार्वजनिक उद्यान है। हम वहाँ रोज सुबह घूमने जाते है। उद्यान का एक हिस्सा खाली पडा था। हमने माली को पैसे दिये और हमारे लिये सब्जी उगाने को कहा। जैविक विधि से हमने सब्जिया उगायी तो धीरे-धीरे इसे लेने वाले बढने लगे। लोग दुगुने दाम देने के लिये तैयार हो गये। इससे जो आमदनी होती उससे हम लोगो ने उद्यान को सुन्दर बनाना शुरु किया। कुछ पैसे अधिकारियो को भी खिलाये ताकि हो-हल्ला ना हो। कालोनी मे सब्जी वालो को ग्राहक कम मिलने लगे। उन्होने भी रास्ता निकाला कि हम पास के गाँव से वैसी ही सब्जियाँ लेकर आयेंगे पर दाम कुछ अधिक लेंगे। हम तैयार हो गये। हममे से कोई भी गाँव मे जाकर यह सुनिश्चित कर लेता है कि गाँव की खेती मे कुछ गडबड तो नही हो रही है। धीरे से हमने उद्यान मे सब्जी उगानी बन्द कर दी। गाँव के दूसरे लोग भी हमारी विधि से सब्जी उगाने और बेचने का मन बना रहे है। यदि चाह हो तो राह भी है। शहर मे इतना पैसा कमाते है वो सब एक झटके मे रोगो के इलाज मे चला जाता है। हमने तो इससे सबक लिया है।“ महाराष्ट्र के एक महानगर से एक पाठक इस लेखमाला को पढकर यह लिखते है। मैने उन्हे धन्यवाद दिया और आस-पास उग रहे बेकार समझे जाने वाले पौधो पर आधारित बहुत से नुस्खे दिये जिससे वे सब्जियो मे लगने वाले कीडो से फसल की रक्षा कर सके। मुझे लगता है कि ऐसी पहल पूरे देश मे हो तो रसायनयुक्त खाद्य पदार्थ बेचने वाले ग्राहक के लिये तरस जायेंगे। जब ग्राहक नही मिलेंगे तो इसकी खेती कम होगी और नयी पीढी के किसान जैविक खेती की ओर भागेंगे। किसानो का यह रुझान जनता की गाढी कमायी पर शोध का प्रपंच कर रहे कृषि अनुसन्धान संस्थानो को नीन्द से उठायेगा और वे मजबूर होकर इस पर काम करेंगे। शराबबन्दी के लिये गाँधी जी ने आन्दोलन किया था। अब एक बार कृषि रसायन बन्दी के लिये ऐसे ही आन्दोलन की जरुरत है ताकि पीढीयो तक भारतीय रोग मुक्त रह सके।
“तो हम आर्गेनिक फुड ले सकते है। वो भी तो बाजार मे है।“ कुछ लोग ऐसा कहते है। निश्चित ही उनके पास यह एक अच्छा विकल्प है पर इस तरह के उत्पादो को बेचने वाली फर्मो के क्रियाकलापो पर नजर जरुरी है। जिस तरह आर्गेनिक फुड बेचने वाली फर्मो की बाढ आयी हुयी है उसी तरह इन्हे प्रमाण पत्र देने वाली संस्थाए भी कुकुरमुत्ते की तरह बढ गयी है। बहुत सी ऐसी संस्थाओ के लोगो से जब लम्बी बातचीत होती है तो अन्दर ही अन्दर चल रहे भ्रष्टाचार की गन्ध सतह पर आती है। दिल्ली की एक प्रसिद्ध संस्था के आउटलेट मे मुझे आमंत्रित किया गया और बताया गया कि हम जो चावल की दुबराज किस्म यहाँ बेचते है वह तो आपके ही राज्य के एक बडे किसान हमे देते है। मैने उनसे कहा कि यह तो अच्छी बात है। क्या आप मेरी उनसे मुलाकात का प्रबन्ध कर देंगे? मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया गया। संस्था के एक प्रतिनिधि के साथ मै किसान के खेत पहुँचा। साधन-सम्पन्न किसान को देखकर ऐसा नही लगा कि मै किसी देशी किसान से मिल रहा हूँ। पर खेती देखी तो मै अभिभूत हो गया। एक खेत दिखाने के बाद बोले कि बाकी खेत दूरी पर है। फिर कभी चलेंगे। हम वापस लौटे। किसान ने भेट स्वरुप महुए की शराब दी। मै तो नही पीता पर प्रतिनिधि ने देर करने मे समझदारी नही समझी। महुए के इस करिश्माई पानी ने बोतल मे तो शालीनता दिखायी पर हलक के नीचे उतरी तो प्रतिनिधि से सब उगलवा दिया। पता चला कि एक खेत को दिखाकर दूसरे खेतो से बडी मात्रा मे कृषि रसायन युक्त चावल की आपूर्ति की जाती है। इस प्रतिनिधि से लेकर टेस्टिंग लैब तक सभी बिके हुये है। दिल्ली के आउटलेट मे आने वाले खुलेआम ठगे जा रहे है। इसलिये कभी-कभी मुझे लगता है कि अपनी निगरानी मे ही सब कुछ करना जरुरी सा हो गया है।
“लोग इतनी जल्दी नही जागेंगे। उन्हे दिवस और सप्ताह मनाने की आदत हो गयी है। क्यो न साल का एक दिन या एक सप्ताह ऐसा चुना जाये जब अलग-अलग माध्यमो से आम लोगो से उस समयावधि तक जहरयुक्त भोजन न करने की अपील की जाये। देख, यह सब अपने बूते पर करना होगा। सरकार से उम्मीद बेकार है। आम लोगो का जागना मतलब कृषि रसायन कम्पनियो को खरबो का नुकसान। वे हम सबके पीछे नहा-धोकर पडेंगे। इन सबके लिये तैयार हो तो शुरुआत करे इसी साल से।“ मेरे मित्र की यह सलाह मुझे जँच रही है। मैने इस लेखमाला मे इसे स्थान देकर देशवासियो के लिये विचार-विमर्श का रास्ता खोल दिया है। मुझे लगता है कि देश इस सकारात्म्क पहल को हाथो-हाथ लेगा। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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“आजकल शहरो से किस तरह के रोगी ज्यादा आते है?” मैने एक पारम्परिक चिकित्सक से पूछा जिनके पास रोज सैकडो लोग आते है दूर-दूर से। “गैस से होने वाली नाना प्रकार की तकलीफ से प्रभावित रोगी” उन्होने जवाब दिया। “यह सब आधुनिक जीवनशैली के कारण है ना? क्या आपकी औषधियाँ मुक्ति दिलवा देती है इस समस्या से?” उन्होने राज खोला कि हम औषधियाँ देते है पर ज्यादातर मामलो मे खान-पान बदलने से ही सब ठीक हो जाता है। “खान-पान माने तला-भुंजा मसालेदार भोजन मना करते होंगे?” इस पर पारम्परिक चिकित्सक ने जो कहा वो आँखे खोलने वाला था। वे तले-भुंजे से ज्यादा जहरीले रसायनयुक्त भोजन से परहेज की बात कर रहे थे। “ मै अपने खेत मे उगाया हुआ चावल, दाल और सब्जी दे देता हूँ और एक हफ्ते इसी को खाने कहकर उन्हे वापस भेज देता हूँ। साथ मे झूठ-मूठ की पुडियाँ दे देता हूँ। एक हफ्ते बाद वे ठीक होकर आ जाते है। तब मै राज खोलता हूँ कि पुडियाँ मे कुछ नही था। यह तो जैविक विधि अर्थात बिना रासायनिक खाद और दवा से उगायी हुयी सब्जियो और चावल-दाल का असर है। उनसे कहता हूँ कि इन्हे आजमाओ और फिर इस समस्या को भूल जाओ। जहरीले भोजन को खाओगे तो रोज धीरे-धीरे मौत की ओर बढोगे। कुछ लोग मेरी बात मानते है पर ज्यादातर लोग कहते है कि आप तो दवा दे दो। अब शहर मे जहर मुक्त खाना कहाँ मिलेगा? वे भी बेचारे क्या करे। शहर मे तो उगा नही सकते और रोज गाँव नही आ सकते।“ पारम्परिक चिकित्सक ने जो कहा वह कमोबेश पूरे देश के महानगरो पर फिट बैठता है।
छत्तीसगढ मे सरना नामक धान की किस्म बडे पैमाने पर बोई जाती है। किसान कहते है कि मुश्किल से मुश्किल परिस्थितियो मे भी यह किस्म कुछ न कुछ दे जाती है। कृषि की पढाई के दौरान हमे बताया जाता था कि किसानो को इस किस्म को लगाने की बजाय नयी उन्नत किस्मो को लगाने की सलाह देनी चाहिये। राज्य मे अन्य किस्मो की तरह इसकी खेती भी रासायनिक खेती के रुप मे होती है। रसायनो का अन्धाधुन्ध प्रयोग होता है। जिस साल सबसे तेज रासायनो से कीडे नही मरते उस साल किसान स्वयम नये प्रयोग करते है और कई तरह के रसायनो को मिलाकर डालते है। इससे कीडे तो कम हो जाते है पर चावल विषयुक्त हो जाता है। “सरना मतलब मरना” ये बात राज्य के बहुत से पारम्परिक चिकित्सक कहते है। वे इस किस्म की बुराई नही करते बल्कि इसकी खेती मे रसायनो के बढ रहे प्रयोग के बारे मे ऐसा कहते है। श्वेतकुष्ठ से लेकर नाना प्रकार कैसर अब नये रुपो मे दिखायी पड रहे है। पहले ये शहरी बीमारियाँ कहलाती थी। पहले किसान बेचने के लिये उगाये जा रहे धान मे रसायनो का प्रयोग करते थे और अपने प्रयोग के लिये उगाये गये धान मे कितने भी कीडे लग जाये इसकी परवाह नही करते थे। वे रसायनमुक्त चावल का उपयोग अपने और परिवार के लिये करते थे। पर नयी पीढी मे रसायनो के प्रति ऐसा अन्ध-विश्वास जागा कि अब सभी धानो मे जम कर रसायनो का प्रयोग होता है। इसके कारण गाँव भी रोगो के घर बनने लगे है। यह अजीब सा मंजर लगता है कि गाँव के रोगी शहर का रुख कर रहे है और शहर के रोगी गाँव का। यहाँ रायपुर मे तो रोगी के बस से उतरते ही एजेंट उन्हे पहचान लेते है और फिर प्रलोभन शुरु होता है एक से बढकर एक महंगे अस्पतालो का। यह पूरी प्रक्रिया तो आपको जानी –पहचानी लगेगी पर इसमे कृषि रसायनो की अहम भूमिका को हम नजरान्दाज कर देते है। कृषि रसायन बेचने वाली कम्पनियाँ जमकर मेहनत कर रही है। कृषि रसायन प्रयोग करने वाले किसानो को पुरुस्कृत किया जा रहा है। विक्रेताओ को दुनिया भर की सैर करायी जा रही है। उनके घर महंगे उपहार पहुँचाये जा रहे है। जैविक खेती के प्रशंसको का माखौल उडाया जा रहा है। भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान दिखावे के लिये जैविक खेती की बात कर रहा है पर उसके आस्तिन मे कृषि रसायन बनाने वाली कम्पनियाँ मजे से रह रही है। महंगे विज्ञान सम्मेलनो के प्रायोजक ये ही लोग होते है। वेलेंटाइन डे पर मोर्चा निकालने वाले कभी इस मूल मुद्दे पर भी तो सोचे। दम है तो इन कम्पनियो और उन्हे शरण देने वाले विशेषज्ञो के खिलाफ आवाज बुलन्द करे। इस मौत के बाजार पर अंकुश लगाये ताकि आम भारतीयो को दो वक्त का शुद्ध खाना तो मिल सके।
“शहरो मे भी शुद्ध सब्जियाँ मिल सकती है। इसके लिये हम लोगो ने अनूठा प्रयोग किया। हमारी कालोनी के बीच मे एक सार्वजनिक उद्यान है। हम वहाँ रोज सुबह घूमने जाते है। उद्यान का एक हिस्सा खाली पडा था। हमने माली को पैसे दिये और हमारे लिये सब्जी उगाने को कहा। जैविक विधि से हमने सब्जिया उगायी तो धीरे-धीरे इसे लेने वाले बढने लगे। लोग दुगुने दाम देने के लिये तैयार हो गये। इससे जो आमदनी होती उससे हम लोगो ने उद्यान को सुन्दर बनाना शुरु किया। कुछ पैसे अधिकारियो को भी खिलाये ताकि हो-हल्ला ना हो। कालोनी मे सब्जी वालो को ग्राहक कम मिलने लगे। उन्होने भी रास्ता निकाला कि हम पास के गाँव से वैसी ही सब्जियाँ लेकर आयेंगे पर दाम कुछ अधिक लेंगे। हम तैयार हो गये। हममे से कोई भी गाँव मे जाकर यह सुनिश्चित कर लेता है कि गाँव की खेती मे कुछ गडबड तो नही हो रही है। धीरे से हमने उद्यान मे सब्जी उगानी बन्द कर दी। गाँव के दूसरे लोग भी हमारी विधि से सब्जी उगाने और बेचने का मन बना रहे है। यदि चाह हो तो राह भी है। शहर मे इतना पैसा कमाते है वो सब एक झटके मे रोगो के इलाज मे चला जाता है। हमने तो इससे सबक लिया है।“ महाराष्ट्र के एक महानगर से एक पाठक इस लेखमाला को पढकर यह लिखते है। मैने उन्हे धन्यवाद दिया और आस-पास उग रहे बेकार समझे जाने वाले पौधो पर आधारित बहुत से नुस्खे दिये जिससे वे सब्जियो मे लगने वाले कीडो से फसल की रक्षा कर सके। मुझे लगता है कि ऐसी पहल पूरे देश मे हो तो रसायनयुक्त खाद्य पदार्थ बेचने वाले ग्राहक के लिये तरस जायेंगे। जब ग्राहक नही मिलेंगे तो इसकी खेती कम होगी और नयी पीढी के किसान जैविक खेती की ओर भागेंगे। किसानो का यह रुझान जनता की गाढी कमायी पर शोध का प्रपंच कर रहे कृषि अनुसन्धान संस्थानो को नीन्द से उठायेगा और वे मजबूर होकर इस पर काम करेंगे। शराबबन्दी के लिये गाँधी जी ने आन्दोलन किया था। अब एक बार कृषि रसायन बन्दी के लिये ऐसे ही आन्दोलन की जरुरत है ताकि पीढीयो तक भारतीय रोग मुक्त रह सके।
“तो हम आर्गेनिक फुड ले सकते है। वो भी तो बाजार मे है।“ कुछ लोग ऐसा कहते है। निश्चित ही उनके पास यह एक अच्छा विकल्प है पर इस तरह के उत्पादो को बेचने वाली फर्मो के क्रियाकलापो पर नजर जरुरी है। जिस तरह आर्गेनिक फुड बेचने वाली फर्मो की बाढ आयी हुयी है उसी तरह इन्हे प्रमाण पत्र देने वाली संस्थाए भी कुकुरमुत्ते की तरह बढ गयी है। बहुत सी ऐसी संस्थाओ के लोगो से जब लम्बी बातचीत होती है तो अन्दर ही अन्दर चल रहे भ्रष्टाचार की गन्ध सतह पर आती है। दिल्ली की एक प्रसिद्ध संस्था के आउटलेट मे मुझे आमंत्रित किया गया और बताया गया कि हम जो चावल की दुबराज किस्म यहाँ बेचते है वह तो आपके ही राज्य के एक बडे किसान हमे देते है। मैने उनसे कहा कि यह तो अच्छी बात है। क्या आप मेरी उनसे मुलाकात का प्रबन्ध कर देंगे? मेरा अनुरोध स्वीकार कर लिया गया। संस्था के एक प्रतिनिधि के साथ मै किसान के खेत पहुँचा। साधन-सम्पन्न किसान को देखकर ऐसा नही लगा कि मै किसी देशी किसान से मिल रहा हूँ। पर खेती देखी तो मै अभिभूत हो गया। एक खेत दिखाने के बाद बोले कि बाकी खेत दूरी पर है। फिर कभी चलेंगे। हम वापस लौटे। किसान ने भेट स्वरुप महुए की शराब दी। मै तो नही पीता पर प्रतिनिधि ने देर करने मे समझदारी नही समझी। महुए के इस करिश्माई पानी ने बोतल मे तो शालीनता दिखायी पर हलक के नीचे उतरी तो प्रतिनिधि से सब उगलवा दिया। पता चला कि एक खेत को दिखाकर दूसरे खेतो से बडी मात्रा मे कृषि रसायन युक्त चावल की आपूर्ति की जाती है। इस प्रतिनिधि से लेकर टेस्टिंग लैब तक सभी बिके हुये है। दिल्ली के आउटलेट मे आने वाले खुलेआम ठगे जा रहे है। इसलिये कभी-कभी मुझे लगता है कि अपनी निगरानी मे ही सब कुछ करना जरुरी सा हो गया है।
“लोग इतनी जल्दी नही जागेंगे। उन्हे दिवस और सप्ताह मनाने की आदत हो गयी है। क्यो न साल का एक दिन या एक सप्ताह ऐसा चुना जाये जब अलग-अलग माध्यमो से आम लोगो से उस समयावधि तक जहरयुक्त भोजन न करने की अपील की जाये। देख, यह सब अपने बूते पर करना होगा। सरकार से उम्मीद बेकार है। आम लोगो का जागना मतलब कृषि रसायन कम्पनियो को खरबो का नुकसान। वे हम सबके पीछे नहा-धोकर पडेंगे। इन सबके लिये तैयार हो तो शुरुआत करे इसी साल से।“ मेरे मित्र की यह सलाह मुझे जँच रही है। मैने इस लेखमाला मे इसे स्थान देकर देशवासियो के लिये विचार-विमर्श का रास्ता खोल दिया है। मुझे लगता है कि देश इस सकारात्म्क पहल को हाथो-हाथ लेगा। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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