अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -93

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -93 - पंकज अवधिया

हवलदार ने आते ही पूछा कि किससे इलाज करवाया था? रोगी ने कहा कि पहले एक पारम्परिक चिकित्सक के पास गया था और फिर एक एलोपैथ के पास। यह कहकर वह बेहोश हो गया। हवलदार ने पारम्परिक चिकित्सक के घर का रुख किया और रोगियो की भीड की परवाह न करते हुये उसे थाने मे बिठा दिया। वह एलोपैथ के पास भी गया पर डाक्टर ने रोगियो का हवाला देते हुये बाद मे आने को कहा। पारम्परिक चिकित्सक से थाने मे पूछा गया कि क्या जहर दिये हो रोगी को? पारम्परिक चिकित्सक ने कहा कि मैने तो नाडी देखते ही कह दिया था कि यह मेरे बस का नही है। मैने कोई दवा नही दी। पारम्परिक चिकित्सक की बात अनसुनी कर दी गयी। दिन गुजर गया। रोगी को फिर होश आया तो उससे पूछा गया। उसने कहा कि पारम्परिक चिकित्सक का कोई कुसूर नही है। उन्होने तो केवल नब्ज देखी थी। दवा तो मैने डाक्टर से ली थी। उसे खाते ही मेरी हालत खराब हो गयी। डाक्टर को लाया गया। उसे भी अचरज हो रहा था। काफी देर बाद पता चला कि रोगी ने जल्द आराम की आशा मे दोहरी खुराक ले ली थी। पारम्परिक चिकित्सक को घर जाने की अनुमति मिल गयी। देश भर के लाखो पारम्परिक चिकित्सको के प्रति सरकार का यही रवैया है। जब चाहे उठाकर थाने मे बिठा दिया जाता है। एक देहाती मेले मे बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सक अपना दर्द बता रहे थे। यह रोजमर्रा की बात होने के बाद भी वे बिना किसी शिकायत के जनसेवा मे लगे रहते है।

मै जब भी पारम्परिक चिकित्सको से मिलता हूँ तो यह पूछ लेता हूँ कि पुलिस परेशान तो नही कर रही है? ज्यादातर मामलो मे सुकून भरा जवाब मिलता है कि थानेदार और सिपाही न केवल अपने लिये दवा ले जाते है बल्कि रिश्तेदारो को भी लाते है। सरायपाली के एक पारम्परिक चिकित्सक ने तो थानेदार द्वारा खुश होकर लिखा गया प्रमाण-पत्र भी सजा रखा है। जिस तरह आधुनिक चिकित्सा प्रणाली आम रोगो से लोगो को मुक्त नही करवा पा रही है, उससे पारम्परिक चिकित्सको के पास रोगियो की संख्या बढती जा रही है। बहुत से जाने-माने पारम्परिक चिकित्सको के घर के सामने लाल और पीली बत्ती गाडियाँ खडी दिख जाती है। हाल ही मे मेरे एक परिचित के बच्चे का पैर टूट गया। वे मंत्रालय मे उच्च पद पर है। उन्होने डाक्टर की शरण लेने की बजाय सीधे खैरागढ का रुख किया और पारम्परिक चिकित्सक से ही जडी-बूटियो का प्लास्टर लगवाया। फिर हर हफ्ते बच्चे को लेकर गाडी जाती रही। वे चाहते तो आधुनिक डाक्टरो की कतार लग जाती पर उन्होने पारम्परिक चिकित्सक को ही चुना। शहरी मानसिकता मे तेजी से आ रहा यह परिवर्तन गौर करने योग्य है।
छत्तीसगढ के पारम्परिक चिकित्सको पर मै लगातार लिख रहा हूँ। हिन्दी मे भी और अंग्रेजी मे भी। मेरे लेख देश भर मे छपते है जिससे लोगो को लगता है कि एक बार छत्तीसगढ जाकर वहाँ के पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान का लाभ उठाया जाये। हाल ही मे राजस्थान से किसी सज्जन का फोन आया कि हम रायपुर स्टेशन आ गये है और अब गंतव्य की ओर रवाना हो रहे है। आपका धन्यवाद जो आपने अपने लेख मे यहाँ के पारम्परिक चिकित्सको के बारे मे लिखा। आपके दर्शन करना है। मैने उनसे कहा कि आप यदि घर आना चाहे तो आ सकते है। उन्होने रहस्य खोला कि मै अकेला लौटते मे आ जाऊँगा। अभी तो हम लोग 70 से अधिक के समूह मे आये। इतना बडा समूह? उन्होने कहा कि सब के सब इलाज करवाने आये है। साथ मे राजस्थान से उपहार भी लेकर आये है। एक रेल के डिब्बे मे भरकर लोग पारम्परिक चिकित्सको के पास आ रहे है, इससे बढकर क्या खुशखबरी हो सकती है। पूरा देश पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान से लाभांवित हो रहा है और अब पारम्परिक चिकित्सको के पास जा रहा है तो फिर क्यो नही इन पारम्परिक चिकित्सको की सेवाओ को अवैध करार देने वाले काले कानून को समाप्त किया जाये?

“लाइसेंस मिलेगा तो ठीक रहेगा न?” यह प्रश्न भी मै पारम्परिक चिकित्सको से अक्सर पूछ लेता हूँ। हालाँकि मुझे मालूम है कि यह एक कठिन प्रक्रिया है। पारम्परिक चिकित्सक प्रसन्न हो जाते है पर रविवार को बागबहरा के एक पारम्परिक चिकित्सक से मैने यह कहा तो उनके माथे पर बल आ गये। मैने कारण पूछा तो बोले कि अभी लाइसेंस नही है तो भी सेवा कर रहे है। लाइसेंस होने से सरकार जब भी बुलायेगी दौड कर जाना होगा। मुझे हँसी आ गयी। मैने कहा “ पर थाने वाले परेशान नही करेंगे।“ इस पर वे कुछ आश्वस्त दिखे। उस दिन मै और भी बहुत से पारम्परिक चिकित्सको से मिला। इनमे से कुछ वे थे जिनसे मै दस वर्षो पहले मिला था। उनकी आँखो मे ढेरो प्रश्न थे। कुछ सोच रहे थे कि शायद मेरे आने से कुछ खुशखबरी मिले। पर मेरे पास उनके लिये कुछ खास नही था। बुजुर्ग पारम्परिक चिकित्सको ने नयी पीढी के लालच के बारे मे शिकायत की। बताया कि कैसे उनके बच्चे अधिक लाभ की चाह मे बाजारु दवाओ को रोगियो को दे रहे है। पीढीयो के विश्वास से रोगी आ रहे है देश के कोने-कोने से। जब वे ऐसा छल देखते है तो उनका विश्वास जाता रहता है। आस-पास के जंगलो के तेजी से कटने के कारण अब वनस्पतियो की उपलब्धता कम हो गयी है। इन वनस्पतियो के लिये अब उन्हे रायपुर पर निर्भर रहना पडता है जहाँ जडी-बूटियो मे मिलावट अब आम बात होती जा रही है।

हाल ही मे एक देहाती मेले मे उडीसा से आए कुछ पारम्परिक चिकित्सको से मुलाकात हुयी। वे लोकवा या लकवा (पैरालिसिस) की चिकित्सा कर रहे थे। रोगियो की भीड लगी हुयी थी। वे नुस्खो के बारे मे बता रहे थे बिना संकोच के। मुझे आश्चर्य हुआ। जब उन्होने बरकस नामक वनस्पति के उपयोग के बारे मे बताना शुरु किया तो मैने कहा कि यह तो आयुर्वेद के ग्रंथो मे लिखा नुस्खा है। भाषा भी वैसी ही थी। पारम्परिक चिकित्सको ने बताया कि यह किताबो मे लिखा नुस्खा ही है। पारम्परिक चिकित्सको से ऐसा सुनने की उम्मीद नही थी। उनके नुस्खे ठीक उसी स्वरुप मे ग्रन्थो मे नही मिलते। साथ ही ग्रंथो मे लिखे ज्यादातर नुस्खो का विस्तार उनके पास मिल जाता है। मै अपने व्याख्यानो मे यह उदाहरण देता हूँ। चरक सन्हिता ने एक नुस्खा है पक्षाघात के लिये। उसके विषय मे बहुत कम लिखा गया है। पर जब मैने इसी नुस्खे को पकडकर देश भर के हजारो पारम्परिक चिकित्सको से बात की तो आपको आश्चर्य होगा कि इस पर आधारित जानकारी के लिये हजारो पन्ने कम पड गये। अभी भी नयी जानकारियाँ मिल रही है। यह छोटा सा उदाहरण हमे अहसास कराता है कि पारम्परिक चिकित्सकीय़ का दस्तावेजीकरण कितना जरुरी है। चलिये, उडीसा के पारम्परिक चिकित्सको पर लौटे।

उन्होने खुलासा किया कि एक स्थानीय संस्था उन पर लगातार दबाव बना रही है कि वे अपने मूल नुस्खो को भूल जाये और उनके द्वारा बताये गये नुस्खो का प्रचार करे। जडी-बूटियाँ भी उनसे ले। उस संस्था ने मूल नुस्खे अपने पास रख लिये है। कुछ पारम्परिक चिकित्सक इसके लिये तैयार हुये। शेष ने हाथ खडे कर दिये। संस्था ने हामी भरने वालो के पक्ष मे प्रमाण-पत्र जारी कर दिये और मानदेय की व्यवस्था कर दी। शेष को नीम-हकीम घोषित कर दिया गया। यह स्तब्ध करने वाला समाचार था। नीम-हकीम घोषित किये गये पारम्परिक चिकित्सको ने थक-हार कर यह काम छोड दिया। ऐसे समाचार मन मे आग लगा देते है। सोचता हूँ काश मै दो या तीन होता ताकि अपने एक रुप को पारम्परिक चिकित्सको का संगठन बनाने और उनके हक की लडाई लडने के लिये कुर्बान कर देता। यदि पारम्परिक चिकित्सक एक हो जाये तो ऐसी कपटी संस्था का नामोनिशान मिट जाये। कभी-कभी इस उलझन मे भी पड जाता हूँ कि शेष जीवन मे भी इसी तरह लिखता रहूँ या जमीन पर इस संघर्ष के लिये कूद पडूँ। जो भी करना है जल्दी करना होगा। नही तो वे दिन दूर नही जब देश के इन पारम्परिक चिकित्सको की बाते मेरे लेखो तक ही सीमित रह जायेगी। (क्रमश:)


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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इस देश में पारंपरिक चिकित्सक कभी समाप्त नहीं होंगे। बस उन का सही इस्तेमाल न हो सकने का दुःख है।

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