अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -23

अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -23 - पंकज अवधिया
कुछ वर्ष पहले मै सतना से अमरकंटक जा रहा था सडक मार्ग से। यह व्यवसायिक दौरा था और हमे अमरकंटक मे जडी-बूटियो की उपलब्धता की जानकारी एकत्र करनी थी। हम तीन लोग थे और ड्रायवर को मिलाकर चार। गाडी मारुति वैन थी। रास्ते मे जब हमारी व्यापारिक चर्चा खत्म हो गयी तो इधर-उधर की बाते होने लगी। अन्ध-विश्वास पर भी लम्बी बात हुयी। इस बीच हमारा ध्यान ड्रायवर की ओर गया जो हर मन्दिर के आगे हार्न बजाता था। उसे भी पट्टी पढाकर ऐसा करने से मना कर दिया गया। फिर भी मौका पाकर वह हार्न बजा ही लेता था। शाम का समय था हम जंगल से गुजर रहे थे कि अचानक ड्रायवर ने गाडी रोक दी। उसके चेहरे मे डर था। वह सामने देख रहा था एकटक। हमने भी उस दिशा मे देखा तो रास्ते मे बीचो-बीच कुछ सामान पडा नजर आया। ड्रायवर ने साफ कह दिया कि किसी ने जादू का सामान फेका है अब मै इस रास्ते से नही जाऊँगा। तो फिर किधर से जाओगे? हमने पूछा तो बोला कि बगल वाले कच्चे रास्ते से चलेंगे। हमे रास्ता नही दिखा। वैसे ही यह मध्यप्रदेश की सडक थी। मुख्य मार्ग ही कच्चे रास्ते के समान था। हमने पास जाकर इसे देखने का मन बनाया। ड्रायवर के चेताने के बावजूद हम लोग उस स्थान तक पहुँच गये। एक छोटी सी खुली पेटी औन्धे पडी थी। काला रिबन था, चूडियाँ भी थी। हमारे साथ चल रहे सज्जन ने सुझाव दिया कि पास के गाँव मे चलकर इसके विषय मे छानबीन की जाये। ड्रायवर का मानना था कि किसी भयानक बला को उतारने के लिये यह सब किया गया है। इन्हे छूने या देखने मात्र ही से यह बला किसी दूसरे को लग सकती है।

हम गाँव पहुँचे और एक टपरेनुमा होटल मे बैठ गये। चाय बनाने को कहा फिर सज्जन ने नाटक शुरु किया। होटल वाले से कहने लगे कि उन्हे नजर लग गयी है। सब जगह घाटा ही घाटा हो रहा है। आपके गाँव का नाम सुना है इसलिये आये है। होटल वाले को यह बिल्कुल भी अटपटा नही लगा। उसने तपाक से एक तांत्रिक का पता दे दिया। तांत्रिक के पास पहुँचे तो उसके पास पीडितो की लम्बी लाइन थी। हमारा नम्बर आया तो उसने दक्षिणा लेकर सामानो की सूची दे दी। हमे वही सब लेकर आना था जो हमने रास्ते मे पडा देखा था। अब प्रश्न खडा हुआ कि अनजाने गाँव मे इन सामग्रियो का जुगाड कैसे हो? उपाय तांत्रिक के पास ही था। उसने तीन दुकानो का नाम दिया और कहा कि वहाँ से सामग्री ले आये। रात को रुके और फिर पौ फटते ही विशेष पूजा करवा दी जायेगी। हम वापस होटल पहुँचे। सज्जन ने होटल वाले को कुछ लालच दिया तो राज खुल गया। यह चार दोस्तो का साझा व्यापार था। पेटी, रिबन और चूडी बेचने वाले तांत्रिक के अपने थे। पिछले दो वर्षो से सब कुछ आराम से चल रहा था। मैने पूछा कि खूब माल बेचते होंगे ये लोग तो होटल वाले ने एक मजेदार बात बतायी। उसने राज खोला कि विशेष स्थानो मे ही इन सामानो को फिकवाया जाता है ताकि कुछ दिनो बाद उनके नौकर जाकर उन्हे एकत्र कर लाये। याने रिसाइक्लिंग हो रही थी। मुझे देश के उन धार्मिक स्थलो की याद आ गयी जहाँ नारियल के साथ अक्सर ऐसा होता है। नीचे नारियल खरीदो और पहाडी पर जब भगवान को चढाओ तो दूसरा नारियल प्रसाद के रुप मिलता है। हमारा नारियल फिर नीचे की दुकांनो मे बिकने चला जाता है। बहरहाल, सारा राज खुलने के बाद सज्जन हमारी ओर मुखातिब हुये और बोले कि इतने छोटे से गाँव मे जब इतने संगठित रुप से व्यापार चल सकता है तो आप सोचिये हमारे शहरो से अन्ध-विश्वास का कितना बडा बाजार होगा और इस व्यापार से लाभ पा रहे लोग कभी नही चाहेंगे कि अन्ध-विश्वास खत्म हो। उस तांत्रिक का बडा प्रभाव था गाँव मे। इसलिये हम लोग आगे बढ गये। बाद मे सज्जन ने स्थानीय अखबारो मे इसपर काफी कुछ लिखा।

नित नयी वनस्पतियो की खोज मे जंगल मे भटकते समय बहुत से तांत्रिको से मुलाकात होती है। उनमे से बहुत तो काफी करीब आ जाते है। एक बार एक बुजुर्ग तांत्रिक से मैने पूछा कि आप भी जानते हो कि यह सब अन्ध-विश्वास है फिर इसको बढावा क्यो? उसने जवाब दिया कि हम लोगो से यह बोलना छोड भी दे कि बला ने पकड लिया है तो भी वे हमारे पास आयेंगे इसकी शिकायत लेकर। यदि हम उन्हे कह देंगे कि यह मन का भ्रम है तो वे हमे नकारा समझ के दूसरे तांत्रिक के पास चले जायेंगे। भले ही बला हटाने की सारी प्रक्रिया बेकार लगे पर इससे प्रभावित का ध्यान बँटता है। वह आस्था से सामान लाता है। हमारे हाव-भाव को देखता है और फिर लम्बी पूजा मे बैठता है। अंत मे किसी निर्जन स्थान मे जाकर पीठ की तरफ इन सामानो को फेक आता है और भूलकर भी पीछे नही देखता है। उसके बाद उसके मनोविकार दूर हो जाते है और वह सामान्य जीवन मे लौट आता है। उसने दावा किया कि गाँव से लेकर विदेशो तक से भारतीय इस कार्य के लिये तांत्रिको की मदद लेते है। मुझे तांत्रिक की इस बात से होम्योपैथी की दवा रहित गोलियो जिसे कि प्लेसिबो कहा जाता है की याद आती है। दवायुक्त गोलियाँ देने के बाद चिकित्सक रोगी को एक महिने बाद आने को कहते है पर रोज दवा खाने का आदी रोगी इससे संतुष्ट नही होता है। ऐसे मे चिकित्सक उसे प्लेसिबो दे देते है। चिकित्सा शास्त्र के सन्दर्भो ग्रंथो मे ऐसे ढेरो शोध है जिसमे दावा किया गया है कि बहुत से रोगो मे विशेषकर मनोरोगो मे जब दवा रहित गोलियाँ, रोगियो को यह बता कर दी गयी कि इसमे दवा है तो भी रोगी स्वस्थ्य हो गये। यह उनके आत्मबल और इच्छा शक्ति का प्रभाव माना गया। तो क्या तांत्रिक अपने स्थान पर सही है? भले ही उनकी विधि डर पैदा करती हो पर क्या चन्द पैसे लेकर लोगो से डर हटाने का जो कार्य वो कर रहे है वह एक तरह की चिकित्सा है? इसका जवाब कभी किसी ने खोजने की कोशिश नही की। जैसे सभी प्रोफेशन मे ठग होते वैसे ही यह मान ले कि तांत्रिको मे ऐसे लोग ज्यादा ही है। पर बहुत से ऐसे भी तांत्रिक है जो पूरी प्रक्रिया के पैसे भी नही लेते है। क्या ऐसे तेजी से कम हो रहे तांत्रिको के ज्ञान को नयी पीढी तक पहुँचाने का बीडा हमारा कोई संस्थान उठायेगा? यह सब पढना उन लोगो को निश्चित ही अटपटा लग रहा होगा जो मन मे वैज्ञानिक की वह छवि बनाये बैठे है जो बिना तर्क के पारम्परिक ज्ञान को अन्ध-विश्वास कह देगा। मुझे लगता है सभी बातो को तार्किक कसौटी मे कसना चाहिये। समाज मे खुलकर इसपर चर्चा होनी चाहिये।

अन्ध-विश्वास के विरुद्ध जन-जागृति अभियान के दौरान जब भी हमने तांत्रिको को पकडा तो वे इस पर खुली चर्चा की गुहार करते नजर आये। पर हम तो अपने ही को सही मानते रहे। उनकी एक न सुनी और हमारा दल उन्हे पुलिस के हवाले करता रहा। कुछ अभियानो के बाद मुझे लगा कि इस विधा के बारे मे विस्तार से जाना जाये ताकि सही तरीके से इसका विरोध किया जा सके तर्क के साथ। मैने बीस हजार से भी अधिक रुपये खर्च कर फुटपाथ मे बिकने वाली पुस्तको से लेकर विश्वविद्यालयो के पुस्तकालयो मे उपलब्ध ग्रंथो को बाजर से खरीदा और उन्हे पढा। मुझे इस बात का अहसास हुआ कि सस्ते साहित्य आधी अधूरी जानकारी देते है और इस विधा को बदनाम करते है। मूल ग्रंथो मे भी बहुत से दावे समझ नही आते है जैसे वशीकरण या गुप्त धन की प्राप्ति के दावे पर वनस्पतियो के विषय मे बहुत सी ऐसी बाते है जो आधुनिक सन्दर्भ ग्रंथो मे नही मिलती है। बहुत सी जानकारियाँ अब लोगो के सामने आ रही है। प्राचीन चिकित्सा ग्रंथो और इन साहित्यो मे बहुत सी बाते एक जैसी लिखी गयी। यह हमारा दुर्भाग्य है कि अंग्रेजो की नीतियो के कारण यह विधा जस की तस है। इसमे कुछ नया नही जोडा गया बल्कि इसे अन्ध-विश्वास बताकर इसके अस्तित्व के खात्मे की तैयारी है।

आपने बहुत-सी ऐसी वनस्पतियो के विषय मे पढा होगा जिनकी जड को प्रसव के समय जूडे मे बाँधने से प्रसव आसानी से हो जाता है। चिरचिटा उनमे से एक वनस्पति है। इसका प्रयोग प्राचीन चिकित्सा ग्रंथो मे मिलता है। तंत्र से सम्बन्धित ग्रंथो मे भी। छतीसगढ और झारखंड के पारम्परिक चिकित्सक भी इसका प्रयोग करते है। मैने पहले-पहल इसके विषय मे जाना तो प्रयोग की इच्छा जागी। अपने गाँव मे आम लोगो की सहायता से इसे आजमाया। उनके लिये भी यह प्रयोग नया था इसलिये हम असफल रहे। मन मे खिन्नता जागी। जैसा किताब मे लिखा था वैसा ही तो हमने किया था। फिर मन मे विद्रोह पैदा हुआ और बहुत से व्याख्यानो मे मैने कह दिया कि यह सब कोरी बाते है। वनस्पतियो के प्रयोग से आसान प्रसव नही होता।

बस्तर मे आयोजित एक व्याख्यान मे भी मैने ऐसा कुछ कह दिया। झारखन्ड से आयी एक अतिथि जो कि आदिवासी थी, ने व्याख्यान के बाद मुझसे प्रयोग विधि जाननी चाही। मेरी बाते सुनकर वह बहुत देर तक हँसती रही फिर बोली किताब से पढोगे तो ऐसा ही होगा। आयोजको की मदद से हम पास के गाँव मे गये और वहाँ एक महिला पर इसका प्रयोग आरम्भ किया। मैने ध्यान से देखना शुरु किया। जडे लाल धागे की सहायता से गर्दन की नसो पर बाँधी गयी। सरल प्रसव के बाद तुरंत हटा दी गयी। इस प्रक्रिया के बाद जड को दूध मे डुबोया गया और फिर कुछ समय बाद एक पुराने पीपल की छाँव मे इसे गाड दिया गया। आदिवासी अतिथि ने कहा कि यह एक सामान्य प्रक्रिया है पर इसके वैज्ञानिक आधार को वह भी नही जानती। मै इस जमीनी ज्ञान से अभिभूत हो गया और अपने व्याख्यानो मे इसे बताने लगा। मुझे अन्ध-विश्वास हटाने वाली संस्था के मंच से ऐसी बाते न कहने की हिदायत मिली। मै तर्क करता रहा पर इसे अन्ध-विश्वास ही कहा जाता रहा। कुछ समय बाद कोलकाता मे एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ जिसमे दुनिया भर के दिग्गज वैज्ञानिक आये। अतिथि वक्ता के रुप मे मै भी आमंत्रित था। ब्रिटेन से आये एक वैज्ञानिक ने झारखंड के कुछ भागो मे किये गये सर्वेक्षणो के आधार पर लोगो को बताया कि कैसे चिरचिटा के प्रयोग से सरल प्रसव हो सकता है। उन्होने अपने देश मे इसे आजमाया और सफलता भी पायी। कोई आश्चर्य नही कि किसी उत्पाद के रुप मे यह वनस्पति हमारे ही देश मे बिकने आ जाये और तब तक हम इस दिव्य ज्ञान को अन्ध-विश्वास बताकर उससे पर्दा किये बैठे रहे। (क्रमश:)

(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

© सर्वाधिकार सुरक्षित




Updated Information and Links on March 15, 2012

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अवधिया जी, आप ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात रखी है। हमें प्रकृति से और प्राकृतिक सिस्टमों से सीखना चाहिए। हमारे शरीर में गुर्दे खून से अपशिष्ट को अलग करते हैं। उस के बाद अपशिष्ट से जरूरत से अधिक जल को पुनः प्राप्त कर मूत्र को गाढ़ा बनाते हैं। हमारे अंधविश्वास हो सकता है कूड़ा हों। लेकिन उन में से जो कुछ हमारे काम का है उसे हमें वापस ले कर शेष को त्याग देना चाहिए।

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