अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -28
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -28 - पंकज अवधिया
औषधीय और सगन्ध फसलो की व्यवसायिक खेती के क्षेत्र मे वर्ष विशेष मे अचानक ही किसी फसल की माँग बढती है और किसानो के साथ मिलकर वह फसल लगायी जाती है। उत्पाद बेचकर किसान फिर पारम्परिक खेती मे लग जाते है। वनौषधि विशेषज्ञ होने के कारण अक्सर कम्पनी के लोग सम्पर्क करते रहते है। वे मुझसे फसल उत्पादन की जैविक विधि पूछते है फिर किसानो को मार्गदर्शन का काम सौपते है। अभी तक मैने 100 से अधिक फसलो की खेती मे दुनिया भर के लोगो का मार्गदर्शन किया है। इस दौरान मुझे बडे ही दिलचस्प अनुभव हुये है। यहाँ मै विश्वास और अन्ध-विश्वास से जुडे अनुभवो की बात करुंगा।
कुछ वर्षो पहले रायपुर के पास मुझे बच (एकोरस कैलामस) नामक औषधीय फाल की खेती के लिये अनुबन्धित किया गया। मुझे प्रतिदिन किसानो से मिलने जाना होता था। सफेद रंग की एम्बेसडर उपलब्ध करवायी गयी थी। मै सबसे पहले पूरे प्रक्षेत्र का भ्रमण करता और फिर किसानो से चर्चा करता। हर दिन मै भ्रमण के दौरान दूर खडे एक व्यक्ति को देखता था। उसकी नजर मेरी ओर होती थी। नजर मिलने से पहले ही वह दूसरी ओर देखने लगता था। साल भर तक यही सिलसिला चलता रहा। जब फसल तैयार हुयी और कन्दो को खोदने की बारी आयी तो मैने एक दिन उस व्यक्ति को फार्म पर पाया। वह हाथ जोडे खडा था। उसके चेहरे पर आदर का भाव था। मेरे पहुँचते ही उसने बढकर पैर छूने की कोशिश की। मै पीछे हटा और इस सब का कारण पूछा। किसानो ने बताया कि वह गाँव का ओझा था। दरअसल वह बच की खेती से परेशान था। बच एक सुगन्धित वनस्पति है। भूत उतारने के लिये ओझा अक्सर इसका आँतरिक और बाहरी प्रयोग करते है। इसका धुँआ दिमाग को चैतन्य बना देता है। यही कारण है कि मानसिक रोग की अवस्था से रोगी असली दुनिया मे आ जाता है धुँए के शरीर के अन्दर पहुँचते ही। देश के बहुत से भागो मे मृगी के दौरे के समय इसे सुँघाया भी जाता है। ओझा इसकी पूजा करते है और जंगलो से इसे एकत्र करके लाते है। वे मानते है कि इसे इधर-उधर ऐसे ही लगा देने से गाँव की हवा बदल जाती है। वे इसे देवनाशन कहते है। एक भी पौधा दिखने पर वे इसे उखाड कर ही दम लेते है। यह भी सुनने मे आता है कि ओझा को बस मे करने के लिये उसके दुश्मन इसे लगा देते है। जब इस ओझा ने मुझे बडी मात्रा मे इसे खेतो मे लगाते देखा तो वह भयभीत हो गया। उसने किसानो को डराया पर शायद किसान नही डरे। उन्होने मुझे इसके बारे मे बताना उचित नही समझा उस समय। वह ओझा यह भी मानता था कि इसे उगाना सरल नही है। मैने इतने बडे क्षेत्र मे इसे उगाया था इसलिये अब वह मेरी सत्ता स्वीकारने को तैयार था और इसलिये पैरो मे गिर रहा था। मुझे खूब हँसी आयी। मै उसे खेतो तक ले गया और इस फसल से परिचित कराया। उसके लिये भले ही यह कठिनाई से उगने वाला पौधा था पर मैने तो इस औषधीय फसल को आलसियो की फसल का दर्जा दिया है। बिना किसी देखभाल के इसे लगाया जा सकता है। छत्तीसगढ मे तो यह धान के खेतो मे धान के साथ उग सकता है। शहर से बच से तैयार की गयी एक विदेशी मदिरा भी मैने ओझा को दी। वह मस्त हो गया। वह बच के बारे मे जानकर और इससे बनी मदिरा पीकर उतना खुश नही था जितना यह जानकर कि मैने उसे पराजित करने के लिये बच नही लगाया था।
आमतौर पर सन्दर्भ साहित्यो मे वनौषधीयो की खेती पर ज्यादा कुछ नही मिलता है। जैसे ही माँग आती है मै जंगल मे उग रही वनस्पतियो को जानने उनके प्राकृतिक आवास मे चला जाता हूँ। फिर वहाँ माँ प्रकृति के प्रयोग से सीखने की कोशिश करता हूँ। जब कलिहारी (ग्लोरियोसा सुपरबा) नामक वनस्पति की माँग आयी तो मैने यही रास्ता अपनाया। वनवासियो ने बताया कि ओझा ही आपको ऐसे स्थानो मे ले जा सकते है जहाँ यह बहुलता से उगती है। ओझाओ से बात की तो वे तैयार नही हुये। वे किसी खास दिन की बात करने लगे। फिर उन्होने मुझसे चेला बनने की शर्त रखी। चेला बनने के लिये कुछ तंत्र क्रियाए करनी थी फिर मुर्गे का प्रसाद लगाना था और अंत मे मदिरा का भरपूर सेवन करना था। पहली प्रक्रिया मे कोई मुश्किल नही थी। पर शाकाहारी होने और मदिरा का सेवन न करने के कारण पूरी प्रक्रिया कर पाना सम्भव नही था। मैने अपने ड्रायवर को आगे किया तो ओझाओ ने कहा कि ड्रायवर बस जायेगा। आपको जंगल के बाहर रुकना होगा। मैने इस योजना को त्याग दिया। बस्तर की ओर रुख किया और फिर अपने वानस्पतिक सर्वेक्षणो के माध्यम से कलिहारी के स्त्रोतो का पता लगा लिया। जब इसकी व्यवसायिक खेती आरम्भ की तो एक बार फिर आस-पास के ओझाओ ने हल्ला मचाया। यहाँ तो वे खुल्लम-खुल्ला विरोध करने लगे। किसान हमारे साथ थे। बाद मे काफी समझाने-बुझाने के बाद ओझाओ ने अनुमति दी। वे सोच रहे थे कि शायद मै इन्हे उगाकर उनपर कुछ जादू करुंगा।
एक रात फसल के आस-पास के क्षेत्र मे रात को लालटेन जलती देखकर बडे गुस्से मे वे एकत्र हो गये। लालटेन के पास मुझे खडा देखकर उन्हे यकीन हो गया कि मै जादू कर रहा था। आमतौर पर क्षेत्र मे कौन से कीडे सक्रिय होने वाले है-इसका पता लगाने के लिये हम लोग छोटा सा प्रयोग करते थे। रात को खेत के पास एक परात मे पानी भरकर बीच मे ईट रखकर उसमे लालटेन रख देते थे। चारो ओर अन्धेरा होता था। सिर्फ यहाँ प्रकाश होने के कारण कीडे पास आ जाते थे। फिर मरकर पानी मे तैरने लग जाते थे। इन कीडो को प्रयोगशाला मे ले जाकर हम उनकी पहचान कर लेते थे। नर-मादा साथ होने पर हमे सहज की अन्दाज लग जाता था कि किस प्रकार के अंडे दिये जा चुके है और कौन से कीडो का प्रकोप आगामी दिनो मे हो सकता है। यह सरल तकनीक है पर बस्तर के जंगलो मे यह प्रयोग हम पर भारी पड गया। ओझाओ को खूब समझाया तब जाकर जान छूटी।
इतनी सारी तथाकथित जादुई फसलो को उगाकर भी किसी प्रकार का जादू मै सीख नही पाया। यदि थोडा भी सीख जाता तो किसानो को कम्पनी वालो से उत्पाद की अधिक कीमत दिलाने का प्रयास मै जरुर करता। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
औषधीय और सगन्ध फसलो की व्यवसायिक खेती के क्षेत्र मे वर्ष विशेष मे अचानक ही किसी फसल की माँग बढती है और किसानो के साथ मिलकर वह फसल लगायी जाती है। उत्पाद बेचकर किसान फिर पारम्परिक खेती मे लग जाते है। वनौषधि विशेषज्ञ होने के कारण अक्सर कम्पनी के लोग सम्पर्क करते रहते है। वे मुझसे फसल उत्पादन की जैविक विधि पूछते है फिर किसानो को मार्गदर्शन का काम सौपते है। अभी तक मैने 100 से अधिक फसलो की खेती मे दुनिया भर के लोगो का मार्गदर्शन किया है। इस दौरान मुझे बडे ही दिलचस्प अनुभव हुये है। यहाँ मै विश्वास और अन्ध-विश्वास से जुडे अनुभवो की बात करुंगा।
कुछ वर्षो पहले रायपुर के पास मुझे बच (एकोरस कैलामस) नामक औषधीय फाल की खेती के लिये अनुबन्धित किया गया। मुझे प्रतिदिन किसानो से मिलने जाना होता था। सफेद रंग की एम्बेसडर उपलब्ध करवायी गयी थी। मै सबसे पहले पूरे प्रक्षेत्र का भ्रमण करता और फिर किसानो से चर्चा करता। हर दिन मै भ्रमण के दौरान दूर खडे एक व्यक्ति को देखता था। उसकी नजर मेरी ओर होती थी। नजर मिलने से पहले ही वह दूसरी ओर देखने लगता था। साल भर तक यही सिलसिला चलता रहा। जब फसल तैयार हुयी और कन्दो को खोदने की बारी आयी तो मैने एक दिन उस व्यक्ति को फार्म पर पाया। वह हाथ जोडे खडा था। उसके चेहरे पर आदर का भाव था। मेरे पहुँचते ही उसने बढकर पैर छूने की कोशिश की। मै पीछे हटा और इस सब का कारण पूछा। किसानो ने बताया कि वह गाँव का ओझा था। दरअसल वह बच की खेती से परेशान था। बच एक सुगन्धित वनस्पति है। भूत उतारने के लिये ओझा अक्सर इसका आँतरिक और बाहरी प्रयोग करते है। इसका धुँआ दिमाग को चैतन्य बना देता है। यही कारण है कि मानसिक रोग की अवस्था से रोगी असली दुनिया मे आ जाता है धुँए के शरीर के अन्दर पहुँचते ही। देश के बहुत से भागो मे मृगी के दौरे के समय इसे सुँघाया भी जाता है। ओझा इसकी पूजा करते है और जंगलो से इसे एकत्र करके लाते है। वे मानते है कि इसे इधर-उधर ऐसे ही लगा देने से गाँव की हवा बदल जाती है। वे इसे देवनाशन कहते है। एक भी पौधा दिखने पर वे इसे उखाड कर ही दम लेते है। यह भी सुनने मे आता है कि ओझा को बस मे करने के लिये उसके दुश्मन इसे लगा देते है। जब इस ओझा ने मुझे बडी मात्रा मे इसे खेतो मे लगाते देखा तो वह भयभीत हो गया। उसने किसानो को डराया पर शायद किसान नही डरे। उन्होने मुझे इसके बारे मे बताना उचित नही समझा उस समय। वह ओझा यह भी मानता था कि इसे उगाना सरल नही है। मैने इतने बडे क्षेत्र मे इसे उगाया था इसलिये अब वह मेरी सत्ता स्वीकारने को तैयार था और इसलिये पैरो मे गिर रहा था। मुझे खूब हँसी आयी। मै उसे खेतो तक ले गया और इस फसल से परिचित कराया। उसके लिये भले ही यह कठिनाई से उगने वाला पौधा था पर मैने तो इस औषधीय फसल को आलसियो की फसल का दर्जा दिया है। बिना किसी देखभाल के इसे लगाया जा सकता है। छत्तीसगढ मे तो यह धान के खेतो मे धान के साथ उग सकता है। शहर से बच से तैयार की गयी एक विदेशी मदिरा भी मैने ओझा को दी। वह मस्त हो गया। वह बच के बारे मे जानकर और इससे बनी मदिरा पीकर उतना खुश नही था जितना यह जानकर कि मैने उसे पराजित करने के लिये बच नही लगाया था।
आमतौर पर सन्दर्भ साहित्यो मे वनौषधीयो की खेती पर ज्यादा कुछ नही मिलता है। जैसे ही माँग आती है मै जंगल मे उग रही वनस्पतियो को जानने उनके प्राकृतिक आवास मे चला जाता हूँ। फिर वहाँ माँ प्रकृति के प्रयोग से सीखने की कोशिश करता हूँ। जब कलिहारी (ग्लोरियोसा सुपरबा) नामक वनस्पति की माँग आयी तो मैने यही रास्ता अपनाया। वनवासियो ने बताया कि ओझा ही आपको ऐसे स्थानो मे ले जा सकते है जहाँ यह बहुलता से उगती है। ओझाओ से बात की तो वे तैयार नही हुये। वे किसी खास दिन की बात करने लगे। फिर उन्होने मुझसे चेला बनने की शर्त रखी। चेला बनने के लिये कुछ तंत्र क्रियाए करनी थी फिर मुर्गे का प्रसाद लगाना था और अंत मे मदिरा का भरपूर सेवन करना था। पहली प्रक्रिया मे कोई मुश्किल नही थी। पर शाकाहारी होने और मदिरा का सेवन न करने के कारण पूरी प्रक्रिया कर पाना सम्भव नही था। मैने अपने ड्रायवर को आगे किया तो ओझाओ ने कहा कि ड्रायवर बस जायेगा। आपको जंगल के बाहर रुकना होगा। मैने इस योजना को त्याग दिया। बस्तर की ओर रुख किया और फिर अपने वानस्पतिक सर्वेक्षणो के माध्यम से कलिहारी के स्त्रोतो का पता लगा लिया। जब इसकी व्यवसायिक खेती आरम्भ की तो एक बार फिर आस-पास के ओझाओ ने हल्ला मचाया। यहाँ तो वे खुल्लम-खुल्ला विरोध करने लगे। किसान हमारे साथ थे। बाद मे काफी समझाने-बुझाने के बाद ओझाओ ने अनुमति दी। वे सोच रहे थे कि शायद मै इन्हे उगाकर उनपर कुछ जादू करुंगा।
एक रात फसल के आस-पास के क्षेत्र मे रात को लालटेन जलती देखकर बडे गुस्से मे वे एकत्र हो गये। लालटेन के पास मुझे खडा देखकर उन्हे यकीन हो गया कि मै जादू कर रहा था। आमतौर पर क्षेत्र मे कौन से कीडे सक्रिय होने वाले है-इसका पता लगाने के लिये हम लोग छोटा सा प्रयोग करते थे। रात को खेत के पास एक परात मे पानी भरकर बीच मे ईट रखकर उसमे लालटेन रख देते थे। चारो ओर अन्धेरा होता था। सिर्फ यहाँ प्रकाश होने के कारण कीडे पास आ जाते थे। फिर मरकर पानी मे तैरने लग जाते थे। इन कीडो को प्रयोगशाला मे ले जाकर हम उनकी पहचान कर लेते थे। नर-मादा साथ होने पर हमे सहज की अन्दाज लग जाता था कि किस प्रकार के अंडे दिये जा चुके है और कौन से कीडो का प्रकोप आगामी दिनो मे हो सकता है। यह सरल तकनीक है पर बस्तर के जंगलो मे यह प्रयोग हम पर भारी पड गया। ओझाओ को खूब समझाया तब जाकर जान छूटी।
इतनी सारी तथाकथित जादुई फसलो को उगाकर भी किसी प्रकार का जादू मै सीख नही पाया। यदि थोडा भी सीख जाता तो किसानो को कम्पनी वालो से उत्पाद की अधिक कीमत दिलाने का प्रयास मै जरुर करता। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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