अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -27
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -27 - पंकज अवधिया
अपनी शिक्षा पूरी करते ही मैने अन्ध-विश्वास पर काम कर रही संस्था की सदस्यता ग्रहण कर ली और युवा तुर्क बनकर सभी अभियानो मे बढ-चढ कर हिस्सा लेने लगा। अब मुझे लगता है कि मैने सदस्यता लेने मे जल्दीबाजी कर दी। आमतौर पर जैसा कि ज्यादातर संस्थाओ मे होता है आपस मे सदस्यो के बीच कम संवाद होता है। हमारी संस्था मे भी प्रश्न न पूछने का रिवाज था। किसी अभियान से पहले आपस मे खुलकर चर्चा नही होती थी। अध्यक्ष सबसे अलग बात कर लेते थे फिर जब हम अभियान स्थल पर पहुँचते थे तो सभी अपनी-अपनी भूमिका मे लग जाते थे। हमने बहुत बार लोगो पर चढे भूत को उतारने के लिये उन स्थानो पर छापे मारे जहाँ किसी मूर्ति के अचानक प्रकट होने या किसी को विशेष स्वप्न आने की बात फैलने के बाद लोगो का हुजूम जमा होता था। जैसे ही हम वहाँ पहुँचते और लोगो को पता चलता कि अमुक संस्था से आये है तो उनमे आक्रोश फैल जाता। ऐसे समय मै एक आम लोगो मे घुसकर फसलो की चर्चा करने लग जाता ताकि उनका ध्यान बँटे। दूसरे साथी श्री चन्द्रशेखर व्यास लोगो को सरल और मजेदार भाषा मे समझाने लगते। जादू करने वाले लोगो तक श्री राजेन्द्र सोनी पहुँच जाते और छत्तीसगढी मे ही उनसे तर्क करने लगते। जिन पर देवी या देवता आये हो उन्हे पकडकर डाँ अशोक सोनी ऐसी डाँट पिलाते कि लोग तुरंत होश मे आ जाते। संस्था प्रमुख और दूसरे सदस्य सरपंच और गाँव के प्रभावशाली लोगो से चर्चा करने लगते। हमारे साथ पुलिस तो होती नही थी और न ही आत्मरक्षा के लिये हथियार। हजारो की भीड मे सब सदस्य अपने कार्य मे लगे होते थे। सबके मन मे अनिष्ट की आशंका होती थी। पर जब बाद मे सब कुछ सामान्य हो जाता तो हम कठोर होते जाते और फिर भीड पर हावी हो जाते। भीड जादू वालो को छोडकर हमे सुनने लगती। इस तरह अभियान समाप्त हो जाता और हम वापस शहर लौट जाते थे। मुझे याद है कि शुरु मे सब कुछ सदस्यो की जेब से होता था। शिकायत करने वालो से आने-जाने के लिये गाडी का अनुरोध कर देते थे पर पैसे कभी-कभार ही मिल पाते थे। पास के इलाको मे हम अपनी गाडियो से चले जाते थे। वापस आकर हमारे संस्था प्रमुख अखबारो के लिये विज्ञप्तियाँ बनाते फिर उनके नाम की प्रमुखता के साथ खबरे छपती, अंत मे हमारे नाम भी होते थे और मारे गर्व हम सब के सीने चौडे हो जाते है। उस समय संस्था के पास सब कुछ था सिवाय पैसे के। आज वह सब कुछ नही पर पैसे बहुत है।
मैने अनुभव किया कि हर अभियान के बाद सदस्य असमंजस मे होते और उनके पास चर्चा के लिये ढेरो विषय होते पर चर्चा की बात करने वालो को पता था कि आवाज उठाने की सजा अगले अभियान मे न बुलाकर दी जा सकती थी। इसलिये कोई कुछ कहता नही था। लोगो के ऊपर देवी-देवता आने को अन्ध-विश्वास के रुप मे हम देखते रहे और गाँवो मे इसके विरोध मे अभियान चलाते रहे। इस बीच एक बार मुझे आबू के जाने-माने अध्यात्मिक संस्थान मे व्याख्यान के लिये आमंत्रित किया गया। मै वहाँ के माहौल से बडा ही प्रभावित हुआ। चर्चा के दौरान मुझे बाबा की मुरली की बात पता चली। मुझे बताया गया कि साल के एक दिन किसी साध्वी पर बाबा आते है और वर्ष भर के निर्देश देते है। मैने इस बारे मे अपने साथ आये संस्थान के लोगो से बात की तो उन्होने विस्तार से इस बारे मे बताया। मुझे अचानक ही अपने अभियानो की याद आ गयी। हमे तो बताया गया था कि यह अन्ध-विश्वास है। यह संस्थान दुनिया का जाना-माना संस्थान है और यहाँ बहुत से वैज्ञानिक अनुसन्धान हो रहे है। फिर यदि यह सब यहाँ हो रहा है तो क्या इसमे भी कोई विज्ञान है? आबू शहर मे मित्रो से चर्चा की तो उन्होने बताया कि महाराष्ट्र की अन्ध-विश्वास मिटाने वाली संस्था ने एक बार इसका व्यापक विरोध किया था पर उनकी आवाज नक्कारखाने ने तूती की आवाज साबित हुयी। यह सब सुनकर मन मे संश्य बढ गया। वापस लौटकर अनमने ढंग से मै फिर अभियानो मे जुट गया। एक बार पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के दस्तावेजीकरण के दौरान उन आदिवासियो के चर्च मे जाने का मौका मिला जिन्होने ईसाई धर्म अपना लिया था। एक उत्सव के दौरान उन्हे भी वैसे ही झूमते देखा जैसा देवी-देवता आ जाने पर गाँवो मे लोग झूनते थे। फर्क इतना था कि वे किसी दूसरे देवता का नाम ले रहे थे। मुझे बडा आश्चर्य हुआ। दरगाहो मे भी जाना हुआ और ऐसे दृश्यो को देखा। मुझे विश्वास हो गया कि यदि यह अन्ध-विश्वास है तो इसकी जडे धर्म के परे, बहुत गहरी है और इसे जनमानस से दूर करना कठिन है। यह भी प्रश्न आया कि यदि यह सभी धर्मो मे अलग-अलग रुपो मे है तो फिर हम क्यो हिन्दू धर्म के लोगो को ही समझाने मे तुले है। हमारे धर्म विशेष के विरोध मे काम करने से शहर के बहुत से लोग नाराज भी थे और वे समय-समय पर अपशब्द कहते रहते थे। संस्था प्रमुख से चर्चा करनी चाही पर नतीजा सिफर ही रहा। एक बुजुर्ग सदस्य ने बताया कि मेरे आने से पहले एक बार दूसरे धर्म के अन्ध-विश्वास के खिलाफ आवाज उठायी गयी थी तो उन्होने बडे जोरदार ढंग से प्रतिरोध किया। मारे डर संस्था प्रमुख ने सेफ गेम खेलने की राह चुनी। हिन्दू काफी सहनशील होते है इसलिये उनके बीच ही अन्ध-विश्वास मिटाने की मुहिम जारी रही। और संस्था पर अंगुली उठाने वालो से पर्दा कर लिया गया।
मुझे याद आता है कि एक बार चंगाई सभा के विरुद्ध एक अभियान हुआ था। इस सभा के विषय मे यह प्रचारित किया जा रहा था कि इसमे प्रार्थना की जायेगी जिससे अन्धे देखने लगेंगे, गूंगे बोलने लगेंगे और लंगडे चलने लगेंगे। यह आयोजन रायपुर मे होने वाला था। दूसरे शहरो मे यह हो चुका था। वहाँ से खबर आ रही थी कि सभा के चरम मे अचानक ही कुछ लोग मंच पर आ जाते है दर्शको के बीच से और कहने लगते है कि चमत्कार हो गया, चमत्कार हो गया। मै लंगडा था देखो प्रार्थना से ठीक हो गया, मै गूंगा था, बोलने लगा, चमत्कार हो गया, चमत्कार हो गया---। असल मे ये आयोजको के ही लोग होते थे। हमारी संस्था ने रायपुर मे इसके आयोजन पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग कर दी। संस्था का यही कहना था कि यदि आपके पास इतना ही सामर्थ्य है तो देश मे लाखो अन्धे, गूंगे और लंगडे लोग है उन्हे आप पहले ठीक करे। हम ऐसे लोगो को आपके सामने लाते है आप इन्हे ठीक करे। हमारे विरोध का शहर ने साथ दिया। आयोजको ने एक खुली चर्चा मे हमे बुलाया। उन्होने साफ इंकार कर दिया कि ठीक होने वाले लोग उनके लोग होते है। जब हमने उस सभा मे उपस्थित रहकर प्रकट होने वालो पर नजर रखने की बात की तो वे आग-बबूला हो गये। उन्होने इसे धर्म प्रचार कहा और अपने ग्रंथो का हवाला दिया। संस्था के सदस्यो ने भी जबरदस्त तैयारी की थी। कुछ ने तो बाइबल पढकर ईसा मसीह द्वारा कहे गये वाक्य ढूँढ निकाले थे जिसमे कहा गया गया था कि मेरे बाद भी कुछ लोग आयेंगे और चमत्कारो से आम लोगो को भ्रमित करेंगे। इनसे दूर रहना। हमने चर्चा के दौरान बाइबल मे कही गयी बाते सामने रखी तो वे हैरान रह गये। उन्हे एकाएक भरोसा ही नही हुआ कि हम लोग इस हद तक मेहनत कर सकते है। बाद मे इस कार्यक्रम का आयोजन तो हुआ पर कोई भीड से प्रकट नही हुआ। उसके बाद हम ऐसे अभियानो के लिये तरस गये। और हमारी संस्था सेफ गेम की राह पर चलती रही। कालांतर मे यह इतना अधिक सेफ गेम हो गया कि अभियान अतीत की बात हो गये, पुराने सदस्य एक-एक कर चले गये, अब लोगो के बीच व्याख्यान होते है, सदस्य अब भी साथ होते है पर संस्था प्रमुख का नाम ही छपता है, वे ही अपने नाम पर पुरुस्कार जुगाड लेते है। इस तरह शहर के जागरुक लोगो द्वारा शुरु की गयी संस्था अब एक की बपौती बनकर रह गयी है। अन्ध-विश्वास फैल रहे है दिन दूनी और रात चौगुनी की दर से और साथ ही संस्था प्रमुख को मिलने वाले निजी पुरुस्कारो और सम्मान की सूची भी। संस्था के गठन के समय से जुडे चन्द्रशेखर व्यास और राजेन्द्र सोनी जैसे अहम सदस्यो के योगदान को भुला दिया गया। जिन लोगो ने इन सदस्यो के साथ अभियान मे भाग लिया वे अपनी जान जोखिम मे डालकर अन्ध-विश्वास के खिलाफ असली लडाई करने वाले इन सदस्यो को कभी भूल नही पायेंगे। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
अपनी शिक्षा पूरी करते ही मैने अन्ध-विश्वास पर काम कर रही संस्था की सदस्यता ग्रहण कर ली और युवा तुर्क बनकर सभी अभियानो मे बढ-चढ कर हिस्सा लेने लगा। अब मुझे लगता है कि मैने सदस्यता लेने मे जल्दीबाजी कर दी। आमतौर पर जैसा कि ज्यादातर संस्थाओ मे होता है आपस मे सदस्यो के बीच कम संवाद होता है। हमारी संस्था मे भी प्रश्न न पूछने का रिवाज था। किसी अभियान से पहले आपस मे खुलकर चर्चा नही होती थी। अध्यक्ष सबसे अलग बात कर लेते थे फिर जब हम अभियान स्थल पर पहुँचते थे तो सभी अपनी-अपनी भूमिका मे लग जाते थे। हमने बहुत बार लोगो पर चढे भूत को उतारने के लिये उन स्थानो पर छापे मारे जहाँ किसी मूर्ति के अचानक प्रकट होने या किसी को विशेष स्वप्न आने की बात फैलने के बाद लोगो का हुजूम जमा होता था। जैसे ही हम वहाँ पहुँचते और लोगो को पता चलता कि अमुक संस्था से आये है तो उनमे आक्रोश फैल जाता। ऐसे समय मै एक आम लोगो मे घुसकर फसलो की चर्चा करने लग जाता ताकि उनका ध्यान बँटे। दूसरे साथी श्री चन्द्रशेखर व्यास लोगो को सरल और मजेदार भाषा मे समझाने लगते। जादू करने वाले लोगो तक श्री राजेन्द्र सोनी पहुँच जाते और छत्तीसगढी मे ही उनसे तर्क करने लगते। जिन पर देवी या देवता आये हो उन्हे पकडकर डाँ अशोक सोनी ऐसी डाँट पिलाते कि लोग तुरंत होश मे आ जाते। संस्था प्रमुख और दूसरे सदस्य सरपंच और गाँव के प्रभावशाली लोगो से चर्चा करने लगते। हमारे साथ पुलिस तो होती नही थी और न ही आत्मरक्षा के लिये हथियार। हजारो की भीड मे सब सदस्य अपने कार्य मे लगे होते थे। सबके मन मे अनिष्ट की आशंका होती थी। पर जब बाद मे सब कुछ सामान्य हो जाता तो हम कठोर होते जाते और फिर भीड पर हावी हो जाते। भीड जादू वालो को छोडकर हमे सुनने लगती। इस तरह अभियान समाप्त हो जाता और हम वापस शहर लौट जाते थे। मुझे याद है कि शुरु मे सब कुछ सदस्यो की जेब से होता था। शिकायत करने वालो से आने-जाने के लिये गाडी का अनुरोध कर देते थे पर पैसे कभी-कभार ही मिल पाते थे। पास के इलाको मे हम अपनी गाडियो से चले जाते थे। वापस आकर हमारे संस्था प्रमुख अखबारो के लिये विज्ञप्तियाँ बनाते फिर उनके नाम की प्रमुखता के साथ खबरे छपती, अंत मे हमारे नाम भी होते थे और मारे गर्व हम सब के सीने चौडे हो जाते है। उस समय संस्था के पास सब कुछ था सिवाय पैसे के। आज वह सब कुछ नही पर पैसे बहुत है।
मैने अनुभव किया कि हर अभियान के बाद सदस्य असमंजस मे होते और उनके पास चर्चा के लिये ढेरो विषय होते पर चर्चा की बात करने वालो को पता था कि आवाज उठाने की सजा अगले अभियान मे न बुलाकर दी जा सकती थी। इसलिये कोई कुछ कहता नही था। लोगो के ऊपर देवी-देवता आने को अन्ध-विश्वास के रुप मे हम देखते रहे और गाँवो मे इसके विरोध मे अभियान चलाते रहे। इस बीच एक बार मुझे आबू के जाने-माने अध्यात्मिक संस्थान मे व्याख्यान के लिये आमंत्रित किया गया। मै वहाँ के माहौल से बडा ही प्रभावित हुआ। चर्चा के दौरान मुझे बाबा की मुरली की बात पता चली। मुझे बताया गया कि साल के एक दिन किसी साध्वी पर बाबा आते है और वर्ष भर के निर्देश देते है। मैने इस बारे मे अपने साथ आये संस्थान के लोगो से बात की तो उन्होने विस्तार से इस बारे मे बताया। मुझे अचानक ही अपने अभियानो की याद आ गयी। हमे तो बताया गया था कि यह अन्ध-विश्वास है। यह संस्थान दुनिया का जाना-माना संस्थान है और यहाँ बहुत से वैज्ञानिक अनुसन्धान हो रहे है। फिर यदि यह सब यहाँ हो रहा है तो क्या इसमे भी कोई विज्ञान है? आबू शहर मे मित्रो से चर्चा की तो उन्होने बताया कि महाराष्ट्र की अन्ध-विश्वास मिटाने वाली संस्था ने एक बार इसका व्यापक विरोध किया था पर उनकी आवाज नक्कारखाने ने तूती की आवाज साबित हुयी। यह सब सुनकर मन मे संश्य बढ गया। वापस लौटकर अनमने ढंग से मै फिर अभियानो मे जुट गया। एक बार पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के दस्तावेजीकरण के दौरान उन आदिवासियो के चर्च मे जाने का मौका मिला जिन्होने ईसाई धर्म अपना लिया था। एक उत्सव के दौरान उन्हे भी वैसे ही झूमते देखा जैसा देवी-देवता आ जाने पर गाँवो मे लोग झूनते थे। फर्क इतना था कि वे किसी दूसरे देवता का नाम ले रहे थे। मुझे बडा आश्चर्य हुआ। दरगाहो मे भी जाना हुआ और ऐसे दृश्यो को देखा। मुझे विश्वास हो गया कि यदि यह अन्ध-विश्वास है तो इसकी जडे धर्म के परे, बहुत गहरी है और इसे जनमानस से दूर करना कठिन है। यह भी प्रश्न आया कि यदि यह सभी धर्मो मे अलग-अलग रुपो मे है तो फिर हम क्यो हिन्दू धर्म के लोगो को ही समझाने मे तुले है। हमारे धर्म विशेष के विरोध मे काम करने से शहर के बहुत से लोग नाराज भी थे और वे समय-समय पर अपशब्द कहते रहते थे। संस्था प्रमुख से चर्चा करनी चाही पर नतीजा सिफर ही रहा। एक बुजुर्ग सदस्य ने बताया कि मेरे आने से पहले एक बार दूसरे धर्म के अन्ध-विश्वास के खिलाफ आवाज उठायी गयी थी तो उन्होने बडे जोरदार ढंग से प्रतिरोध किया। मारे डर संस्था प्रमुख ने सेफ गेम खेलने की राह चुनी। हिन्दू काफी सहनशील होते है इसलिये उनके बीच ही अन्ध-विश्वास मिटाने की मुहिम जारी रही। और संस्था पर अंगुली उठाने वालो से पर्दा कर लिया गया।
मुझे याद आता है कि एक बार चंगाई सभा के विरुद्ध एक अभियान हुआ था। इस सभा के विषय मे यह प्रचारित किया जा रहा था कि इसमे प्रार्थना की जायेगी जिससे अन्धे देखने लगेंगे, गूंगे बोलने लगेंगे और लंगडे चलने लगेंगे। यह आयोजन रायपुर मे होने वाला था। दूसरे शहरो मे यह हो चुका था। वहाँ से खबर आ रही थी कि सभा के चरम मे अचानक ही कुछ लोग मंच पर आ जाते है दर्शको के बीच से और कहने लगते है कि चमत्कार हो गया, चमत्कार हो गया। मै लंगडा था देखो प्रार्थना से ठीक हो गया, मै गूंगा था, बोलने लगा, चमत्कार हो गया, चमत्कार हो गया---। असल मे ये आयोजको के ही लोग होते थे। हमारी संस्था ने रायपुर मे इसके आयोजन पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग कर दी। संस्था का यही कहना था कि यदि आपके पास इतना ही सामर्थ्य है तो देश मे लाखो अन्धे, गूंगे और लंगडे लोग है उन्हे आप पहले ठीक करे। हम ऐसे लोगो को आपके सामने लाते है आप इन्हे ठीक करे। हमारे विरोध का शहर ने साथ दिया। आयोजको ने एक खुली चर्चा मे हमे बुलाया। उन्होने साफ इंकार कर दिया कि ठीक होने वाले लोग उनके लोग होते है। जब हमने उस सभा मे उपस्थित रहकर प्रकट होने वालो पर नजर रखने की बात की तो वे आग-बबूला हो गये। उन्होने इसे धर्म प्रचार कहा और अपने ग्रंथो का हवाला दिया। संस्था के सदस्यो ने भी जबरदस्त तैयारी की थी। कुछ ने तो बाइबल पढकर ईसा मसीह द्वारा कहे गये वाक्य ढूँढ निकाले थे जिसमे कहा गया गया था कि मेरे बाद भी कुछ लोग आयेंगे और चमत्कारो से आम लोगो को भ्रमित करेंगे। इनसे दूर रहना। हमने चर्चा के दौरान बाइबल मे कही गयी बाते सामने रखी तो वे हैरान रह गये। उन्हे एकाएक भरोसा ही नही हुआ कि हम लोग इस हद तक मेहनत कर सकते है। बाद मे इस कार्यक्रम का आयोजन तो हुआ पर कोई भीड से प्रकट नही हुआ। उसके बाद हम ऐसे अभियानो के लिये तरस गये। और हमारी संस्था सेफ गेम की राह पर चलती रही। कालांतर मे यह इतना अधिक सेफ गेम हो गया कि अभियान अतीत की बात हो गये, पुराने सदस्य एक-एक कर चले गये, अब लोगो के बीच व्याख्यान होते है, सदस्य अब भी साथ होते है पर संस्था प्रमुख का नाम ही छपता है, वे ही अपने नाम पर पुरुस्कार जुगाड लेते है। इस तरह शहर के जागरुक लोगो द्वारा शुरु की गयी संस्था अब एक की बपौती बनकर रह गयी है। अन्ध-विश्वास फैल रहे है दिन दूनी और रात चौगुनी की दर से और साथ ही संस्था प्रमुख को मिलने वाले निजी पुरुस्कारो और सम्मान की सूची भी। संस्था के गठन के समय से जुडे चन्द्रशेखर व्यास और राजेन्द्र सोनी जैसे अहम सदस्यो के योगदान को भुला दिया गया। जिन लोगो ने इन सदस्यो के साथ अभियान मे भाग लिया वे अपनी जान जोखिम मे डालकर अन्ध-विश्वास के खिलाफ असली लडाई करने वाले इन सदस्यो को कभी भूल नही पायेंगे। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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जारी रहे यह जंग.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन