अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -34
अन्ध-विश्वास के साथ मेरी जंग : कुछ अनुभव -34 - पंकज अवधिया
देश के विभिन्न भागो मे भ्रमण के दौरान मैने एक अजीब सी बात महसूस की है कि एक ही वनस्पति जहाँ एक स्थान पर पूजी जाती है वही वनस्पति दूसरे स्थान पर हानिप्रद मानी जाती है। पूजने और तिरस्कार करने, दोनो ही के विशेष कारण है। भटकटैया का ही उदाहरण ले। इसे कंटकारी भी कहा जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम सोलेनम जैंथोकारपम है। यह कंटीला पौधा बेकार जमीन मे उगता है। मध्यप्रदेश के कुछ भागो मे इसे घर के बागीचे मे देखते ही उसी समय उखाडने की परम्परा है। वैसे बागीचे मे इसकी उपस्थिति खरपतवार की तरह ही होती है। आमतौर पर जिस पौधे को हम बागीचे मे नही लगाते और जो अपने आप उग जाता है उसे खरपतवार मानकर उखाड दिया जाता है। ऐसा पूरे देश मे होता है। इसमे काँटे भी होते है और इस कारण बागीचे मे खरपतवार की तरह इसकी उपस्थिति बच्चो और पालतू जानवरो के लिये मुश्किल पैदा कर सकती है। शायद इसलिये इसे उखाड दिया जाता हो-मैने सोचा। पर विस्तार से जानकारी लेने पर पता चला कि इसे तंत्र-मंत्र से जुडा पौधा माना जाता है। घर मे इसकी उपस्थिति अशांति और क्लेष पैदा करने वाली मानी जाती है। इसे सन्देह से देखने वाले यह मानते है कि किसी दुश्मन के बीज फेक देने से यह बागीचे मे उग जाता है। इसलिये इसे उखाडने के बाद तुरंत जलाकर हिसाब बराबर कर दिया जाता है। कुछ लोगो ने बताया कि यदि आस-पास के सन्दिग्ध लोगो को बुला कर उनके सामने इसे जलाया जाये तो जिसमे बैचैनी के लक्षण दिखे उसे ही शत्रु समझना चाहिये।
मेरे लिये यह अजीब-सी बात है क्योकि मै इसे एक स्थापित औषधीय वनस्पति के रुप मे जानता हूँ। इसके सभी पौध भाग औषधीय गुणो से भरपूर है। हमारे प्राचीन ग्रंथो मे भी इसके गुणो का बखान है। आधुनिक चिकित्सा प्रणालियो मे भी इसका प्रयोग होता है। प्रतिवर्ष बडी मात्रा मे इसे बेकार जमीन से एकत्र कर दसो ट्रको मे लादकर देश भर की दवा निर्मात्री कम्पनियो को भेजा जाता है। भारतीय किसान इसे अच्छे से पहचानते है। जब कोई वैज्ञानिक उन्हे डराता है कि यह खतरनाक खरप्तवार है और इसे मारने के लिये खरपतवारनाशक रसायन का प्रयोग करो तो वे मुस्कुरा देते है। वे जानते है कि फसलो के लिये ये नुकसानदायक है। वे यह भी जानते है कि रसायन उनके लिये महंगे और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। इसलिये वे इसे हाथ से उखाडते है। अधिक काँटे होने पर देशी यंत्रो की सहायता ली जाती है। फिर इसके विभिन्न भागो को अलग-अलग कर सुखाकर साल भर के प्रयोग के लिये रख लिया जाता है। ताजी पत्तियो से साग तैयार की जाती है। यह साग दमा के रोगियो के लिये महौषधि है। इसका मौसम भर प्रयोग साल भर दमा के दौरो से बचाता है। मुझे याद है मेरी दादी बडे चाव से इसे खाती थी। इसके लिये घंटो बैठकर लकडी से पीट-पीट कर पत्तियो से काँटो को अलग करती थी और फिर स्वादिष्ट साग बनाती थी। इससे वे दमे से मजे से निपट लेती थी। किसान इसे स्वाद के लिये खाते है। देश के पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि इसके इस तरह प्रयोग से बहुत से फायदे है। सबसे बडी बात यह है कि इसका प्रयोग शरीर की प्रतिरोधक शक्ति को बढाता है। किसान के घर मे जब किसी को दाँत दर्द होता है तो सुखाकर रखे गये बीजो को जलाया जाता है और धुँए को कीडे लगे दाँत की ओर भेजा जाता है। कुछ ही समय मे न केवल दर्द से मुक्ति मिल जाती है बल्कि लम्बे समय तक इसके प्रयोग से दाँत भी दुरुस्त हो जाते है। इसकी जडो से बवासिर या पाइल्स की चिकित्सा की जाती है। मेरे ही गाँव के किसान इस बेकार समझे जाने वाले पौधे के दो सौ से अधिक सरल उपयोग जानते है। पूरे देश मे धरती पुत्रो के पास जानकारियो का कैसा अम्बार होगा- इसका अनुमान आप सहज ही लगा सकते है। किसान साफ कहते है कि रसायनो के प्रयोग से पौधे मर जाते है। हमे कुछ नही मिलता। इस प्रयोग से आने वाले सालो मे इसकी उपलब्धता कम हो जाती है और इसका सीधा असर हमारे स्वास्थ्य पर पडता है। यदि यह हमारे खेतो मे उग रहा है तो इसे हम माँ प्रकृति का उपहार मानते है।
दीपावली के एक दिन पहले छत्तीसगढ मे कडु पानी तैयार करने की परम्परा है। आस-पास खरप्तवार समझी जाने वाली वनस्पतियो को रात भर पानी मे उबाला जाता है और फिर दीपावली की सुबह केवल काढे ही से स्नान किया जाता है। भटकटैया को इसमे मुख्य घटक के रुप मे डाला जाता है। इसका काढा त्वचा रोगो के लिये वरदान है। बहुत से जटिल रोगो मे तो अन्य वनस्पतियो के साथ बनाये गये इसके काढे को साल भर उपयोग करने की सलाह पारम्परिक चिकित्सक देते है। बहुत अधिक तनाव से जब दिमाग उलझ जाता है और कुछ नही सूझता। खीज पर खीज होती है। ऐसे समय मे दिमाग को फिर से चैतन्य करने लिये कई प्रकार की वनस्पतियो को जलाया जाता है और धुँए के बीच रोगी को रहने के लिये कहा जाता है। भटकटैया इनमे से एक है। इसके विषय मे इतना सब यदि कोई जान ले और यदि सचमुच शत्रु इसे घर मे फेक जाये तो आप निश्चित ही उसे गले लगा लेंगे। हमारे प्राचीन ग्रंथो मे सही लिखा है कि इस दुनिया मे सभी वनस्पतियो मे औषधीय गुण है और यह मनुष्य़ की अज्ञानता है कि उसने कुछ को उपयोगी मान लिया है और शेष को अनुपयोगी की श्रेणी मे डाल दिया है। मुझे लगता है, यह मुझ जैसे लोगो का नैतिक कर्तव्य है कि ज्यादा से ज्यादा लोगो को अपने आस-पास फैली देशी वनस्पतियो के विषय मे बताये और पारम्परिक ज्ञान को आत्मसात करने के लिये उन्हे प्रेरित करे। हरेक को व्यक्तिगत तौर पर समझाना मुश्किल है। लेख एक सशक्त माध्यम है पर मुझे लगता है यदि बच्चो की किताबो के माध्यम से सही जानकारी उन तक पहुँच जाये तो एक पूरी पीढी तक यह ज्ञान पहुँच जायेगा।
आमतौर पर बैगनी फूलो वाले भटकटैया को हम देखते है। सफेद फूलो वाला भटकटैया भी होता है जिसके बारे मे पिछले लेखो मे लिखा जा चुका है। इसके बारे मे यह मान्यता है कि इसके नीचे गडा खजाना होता है। पर हकीकत कुछ और ही है।
बन्दरो की यह प्रिय वनस्पति है विशेषकर बीमारी के समय। देश के पारम्परिक चिकित्सक नि:संकोच यह स्वीकार करते है कि इसके बहुत से उपयोग उन्होने बन्दरो से सीखे है। कोई आश्चर्य नही कि बन्दरो ने भी हमसे इसके बहुत से उपयोग सीखे होंगे। मेरे भतीजे के कहना है कि उसका पालतू कुत्ता इस पौधे को पसन्द करता है। मैने उससे कहा है कि नजर रखो, हो सकता है इससे कुछ नयी जानकारी निकल के आये।
भटकटैया से भयभीत लोगो को मैने विस्तार से इसके गुणो के विषय मे बताया। इसकी साग खिलायी और साथ ही इसकी हर्बल चाय भी पिलायी। कुछ लोगो का भ्रम दूर हुआ पर ज्यादातर लोगो के मन मे अन्ध-विश्वास की जडे इतनी गहरी दिखी कि बडा दुख हुआ। फिर भी मेरा प्रयास जारी है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
© सर्वाधिकार सुरक्षित
देश के विभिन्न भागो मे भ्रमण के दौरान मैने एक अजीब सी बात महसूस की है कि एक ही वनस्पति जहाँ एक स्थान पर पूजी जाती है वही वनस्पति दूसरे स्थान पर हानिप्रद मानी जाती है। पूजने और तिरस्कार करने, दोनो ही के विशेष कारण है। भटकटैया का ही उदाहरण ले। इसे कंटकारी भी कहा जाता है। इसका वैज्ञानिक नाम सोलेनम जैंथोकारपम है। यह कंटीला पौधा बेकार जमीन मे उगता है। मध्यप्रदेश के कुछ भागो मे इसे घर के बागीचे मे देखते ही उसी समय उखाडने की परम्परा है। वैसे बागीचे मे इसकी उपस्थिति खरपतवार की तरह ही होती है। आमतौर पर जिस पौधे को हम बागीचे मे नही लगाते और जो अपने आप उग जाता है उसे खरपतवार मानकर उखाड दिया जाता है। ऐसा पूरे देश मे होता है। इसमे काँटे भी होते है और इस कारण बागीचे मे खरपतवार की तरह इसकी उपस्थिति बच्चो और पालतू जानवरो के लिये मुश्किल पैदा कर सकती है। शायद इसलिये इसे उखाड दिया जाता हो-मैने सोचा। पर विस्तार से जानकारी लेने पर पता चला कि इसे तंत्र-मंत्र से जुडा पौधा माना जाता है। घर मे इसकी उपस्थिति अशांति और क्लेष पैदा करने वाली मानी जाती है। इसे सन्देह से देखने वाले यह मानते है कि किसी दुश्मन के बीज फेक देने से यह बागीचे मे उग जाता है। इसलिये इसे उखाडने के बाद तुरंत जलाकर हिसाब बराबर कर दिया जाता है। कुछ लोगो ने बताया कि यदि आस-पास के सन्दिग्ध लोगो को बुला कर उनके सामने इसे जलाया जाये तो जिसमे बैचैनी के लक्षण दिखे उसे ही शत्रु समझना चाहिये।
मेरे लिये यह अजीब-सी बात है क्योकि मै इसे एक स्थापित औषधीय वनस्पति के रुप मे जानता हूँ। इसके सभी पौध भाग औषधीय गुणो से भरपूर है। हमारे प्राचीन ग्रंथो मे भी इसके गुणो का बखान है। आधुनिक चिकित्सा प्रणालियो मे भी इसका प्रयोग होता है। प्रतिवर्ष बडी मात्रा मे इसे बेकार जमीन से एकत्र कर दसो ट्रको मे लादकर देश भर की दवा निर्मात्री कम्पनियो को भेजा जाता है। भारतीय किसान इसे अच्छे से पहचानते है। जब कोई वैज्ञानिक उन्हे डराता है कि यह खतरनाक खरप्तवार है और इसे मारने के लिये खरपतवारनाशक रसायन का प्रयोग करो तो वे मुस्कुरा देते है। वे जानते है कि फसलो के लिये ये नुकसानदायक है। वे यह भी जानते है कि रसायन उनके लिये महंगे और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। इसलिये वे इसे हाथ से उखाडते है। अधिक काँटे होने पर देशी यंत्रो की सहायता ली जाती है। फिर इसके विभिन्न भागो को अलग-अलग कर सुखाकर साल भर के प्रयोग के लिये रख लिया जाता है। ताजी पत्तियो से साग तैयार की जाती है। यह साग दमा के रोगियो के लिये महौषधि है। इसका मौसम भर प्रयोग साल भर दमा के दौरो से बचाता है। मुझे याद है मेरी दादी बडे चाव से इसे खाती थी। इसके लिये घंटो बैठकर लकडी से पीट-पीट कर पत्तियो से काँटो को अलग करती थी और फिर स्वादिष्ट साग बनाती थी। इससे वे दमे से मजे से निपट लेती थी। किसान इसे स्वाद के लिये खाते है। देश के पारम्परिक चिकित्सक बताते है कि इसके इस तरह प्रयोग से बहुत से फायदे है। सबसे बडी बात यह है कि इसका प्रयोग शरीर की प्रतिरोधक शक्ति को बढाता है। किसान के घर मे जब किसी को दाँत दर्द होता है तो सुखाकर रखे गये बीजो को जलाया जाता है और धुँए को कीडे लगे दाँत की ओर भेजा जाता है। कुछ ही समय मे न केवल दर्द से मुक्ति मिल जाती है बल्कि लम्बे समय तक इसके प्रयोग से दाँत भी दुरुस्त हो जाते है। इसकी जडो से बवासिर या पाइल्स की चिकित्सा की जाती है। मेरे ही गाँव के किसान इस बेकार समझे जाने वाले पौधे के दो सौ से अधिक सरल उपयोग जानते है। पूरे देश मे धरती पुत्रो के पास जानकारियो का कैसा अम्बार होगा- इसका अनुमान आप सहज ही लगा सकते है। किसान साफ कहते है कि रसायनो के प्रयोग से पौधे मर जाते है। हमे कुछ नही मिलता। इस प्रयोग से आने वाले सालो मे इसकी उपलब्धता कम हो जाती है और इसका सीधा असर हमारे स्वास्थ्य पर पडता है। यदि यह हमारे खेतो मे उग रहा है तो इसे हम माँ प्रकृति का उपहार मानते है।
दीपावली के एक दिन पहले छत्तीसगढ मे कडु पानी तैयार करने की परम्परा है। आस-पास खरप्तवार समझी जाने वाली वनस्पतियो को रात भर पानी मे उबाला जाता है और फिर दीपावली की सुबह केवल काढे ही से स्नान किया जाता है। भटकटैया को इसमे मुख्य घटक के रुप मे डाला जाता है। इसका काढा त्वचा रोगो के लिये वरदान है। बहुत से जटिल रोगो मे तो अन्य वनस्पतियो के साथ बनाये गये इसके काढे को साल भर उपयोग करने की सलाह पारम्परिक चिकित्सक देते है। बहुत अधिक तनाव से जब दिमाग उलझ जाता है और कुछ नही सूझता। खीज पर खीज होती है। ऐसे समय मे दिमाग को फिर से चैतन्य करने लिये कई प्रकार की वनस्पतियो को जलाया जाता है और धुँए के बीच रोगी को रहने के लिये कहा जाता है। भटकटैया इनमे से एक है। इसके विषय मे इतना सब यदि कोई जान ले और यदि सचमुच शत्रु इसे घर मे फेक जाये तो आप निश्चित ही उसे गले लगा लेंगे। हमारे प्राचीन ग्रंथो मे सही लिखा है कि इस दुनिया मे सभी वनस्पतियो मे औषधीय गुण है और यह मनुष्य़ की अज्ञानता है कि उसने कुछ को उपयोगी मान लिया है और शेष को अनुपयोगी की श्रेणी मे डाल दिया है। मुझे लगता है, यह मुझ जैसे लोगो का नैतिक कर्तव्य है कि ज्यादा से ज्यादा लोगो को अपने आस-पास फैली देशी वनस्पतियो के विषय मे बताये और पारम्परिक ज्ञान को आत्मसात करने के लिये उन्हे प्रेरित करे। हरेक को व्यक्तिगत तौर पर समझाना मुश्किल है। लेख एक सशक्त माध्यम है पर मुझे लगता है यदि बच्चो की किताबो के माध्यम से सही जानकारी उन तक पहुँच जाये तो एक पूरी पीढी तक यह ज्ञान पहुँच जायेगा।
आमतौर पर बैगनी फूलो वाले भटकटैया को हम देखते है। सफेद फूलो वाला भटकटैया भी होता है जिसके बारे मे पिछले लेखो मे लिखा जा चुका है। इसके बारे मे यह मान्यता है कि इसके नीचे गडा खजाना होता है। पर हकीकत कुछ और ही है।
बन्दरो की यह प्रिय वनस्पति है विशेषकर बीमारी के समय। देश के पारम्परिक चिकित्सक नि:संकोच यह स्वीकार करते है कि इसके बहुत से उपयोग उन्होने बन्दरो से सीखे है। कोई आश्चर्य नही कि बन्दरो ने भी हमसे इसके बहुत से उपयोग सीखे होंगे। मेरे भतीजे के कहना है कि उसका पालतू कुत्ता इस पौधे को पसन्द करता है। मैने उससे कहा है कि नजर रखो, हो सकता है इससे कुछ नयी जानकारी निकल के आये।
भटकटैया से भयभीत लोगो को मैने विस्तार से इसके गुणो के विषय मे बताया। इसकी साग खिलायी और साथ ही इसकी हर्बल चाय भी पिलायी। कुछ लोगो का भ्रम दूर हुआ पर ज्यादातर लोगो के मन मे अन्ध-विश्वास की जडे इतनी गहरी दिखी कि बडा दुख हुआ। फिर भी मेरा प्रयास जारी है। (क्रमश:)
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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